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सरकारें पशुओं की भी सुधि ले

मनुष्य का जीवन सर्वोपरि है उसे उच्च प्राथमिकता के साथ डील किया जाना चाहिए लेकिन आपदाओं के वक्त पशुओं को बचाने के लिए भी किसी ठोस तंत्र की बात अवश्य होनी चाहिए, क्योंकि भारत एक पशु प्रधान देश भी है। - शिवनंदन लाल

 

हर साल की तरह इस बार भी बाढ़ और भयंकर बारिश की शुरुआत असम से हुई और फिर कई प्रांतों में बाढ़ की विनाश लीला दिखने लगी। देश की राजधानी दिल्ली में तो 1978 के बाद यानी 48 सालों के बाद भयावह बाढ़ आई जिसने पूरे देश को वैसे ही अचंभित किया जैसे मुंबई, चेन्नई, केरल या फिर श्रीनगर की बाढ़ ने पूर्व में किया था।देखते ही देखते 11 राज्यों में नदियां खतरे के निशान से ऊपर बहने लगी। प्रशासन भी जरूरी काम समझ कर राहत और बचाव काम में जुट गया।

शहरों में तो सरकार के साथ-साथ कई प्रकार के स्वयंसेवी संगठन भी बचाव और राहत के लिए आगे आ जाते हैं लेकिन ग्रामीण भारत को आज भी कमोबेश उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है।ग्रामीण भारत में बाढ़ से हर साल बहुत बड़ी आबादी प्रभावित होती है, फसली क्षेत्र की बहुत हानि होती है। गरीबों के घर उजड़ जाते हैं पशुओं के बाड़े नष्ट हो जाते हैं। गांव में मानव के साथ-साथ पशुओं की भी भारी हानि होती है। वर्ष 2022-23 की बाढ़ का आकलन देखें तो देश मैं बाढ़ से 18.54 लाख हेक्टेयर फसली क्षेत्र प्रभावित रहा। इस दौरान 1997 लोगों की मौत हुई जबकि 30615 पशु मृत पाए गए। बाढ़ में जिनके पशुओं की मृत्यु हो जाती है उन पर दुखों का पहाड़ टूट जाता है। दुख की बात है कि देश में आपदाओं के वक्त पशुओं को बचाने के लिए बुनियादी तंत्र तक नहीं है।जब कभी सूखा पड़ता है तो कई राज्यों में पशुओं के लिए कुछ इंतजाम होते हैं पर बाढ़ में तो सारी मशीनरी मनुष्य को बचाने में लग जाती है और बेजुबान पशु ईश्वर के रहमो करम पर छोड़ दिए जाते हैं।पशुओं को बचाने के लिए ना तो किसी राज्य में कोई प्रशिक्षित टीम है ना उनके लिए अलग कैंप की तैयारी की जाती है और ना ही उनके लिए पहले से चारा पानी का कोई इंतजाम होता है। बाढ़ की आपदा के समय पशुओं के लिए आवश्यक दवाइयों का अभाव तो होता ही है पशु चिकित्सक भी खोजे नहीं मिलते।

पशु संपदा के मामले में भारत दुनिया में सबसे धनी देश है। दुनिया का सबसे अधिक पशुधन भारत के पास है। दुनिया की भैंसों का 57 प्रतिशत और कुल मवेशियों का करीब 15 प्रतिशत भारत में है। बड़ी संख्या में लोग पशुपालन में लगे हैं जिनमें छोटे किसान सबसे अधिक 87 प्रतिशत तक है। दूध उत्पादक किसानों में 70 प्रतिशत के पास एक से तीन पशु हैं। अनेक भूमिहीनों तथा वंचित वर्ग के लोगों की आजीविका पशुपालन से ही चलती है। एक हेक्टेयर से कम रकबा वाले किसानों के पास 37 प्रतिशत पशुधन है। इन सब के बूते ही भारत दूध उत्पादन में दुनिया में शीर्ष पर है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हर साल औसतन बाढ़ से 75 हजार से एक लाख पशु मर जाते हैं। इनमें काफी संख्या में दुधारू पशु भी होते हैं। वर्ष 2000 से 2014 के बीच देश में लगभग 12 लाख जानवरों की मौत आपदाओं से हुई। हाल के सालों का आंकड़ा देखें तो 2015 में 50000 पशु मरे, वही 2016 में 22367 पशु मर गए। वर्ष 2017 में 26673, वर्ष 2018 में 60279 पशु मर गए थे। वर्ष 2019 में 25852 पशु तथा 2020 में 45463 पशुओं की मौत हो गई थी। आपदाओं में बचाव के लिए एनडीआरएफ की कुल 334 टीमें देश के विभिन्न भागों में तैनात हुई थी। बचाव टीम ने इस दौरान लगभग 98962 लोगों को बचाया लेकिन मात्र 617 पशुओं को बचाने में ही कामयाब हुए।

जब भी कोई बाढ़ या अन्य आपदा आती है तो सबसे पहले मानव जाति के बारे में सोचा जाता है। हम पशु को धन मानते हैं लेकिन आपदाओं में उनको  कैसे बचाया जाए इस बारे में कुछ नहीं सोचते। पशुओं को लेकर लोगों में जागरूकता का भी अभाव है।आपदा के समय बड़े-बड़े नेता हेलीकॉप्टरों पर बैठकर हवाई सर्वेक्षण करने लगते हैं लेकिन पशुओं को आपदा प्रबंधन का हिस्सा बनाने की बात नहीं होती। तमाम पशु खूटे से बधे बधे ही डूब कर मर जाते हैं। दुधारू पशुओं के मर जाने से गरीब किसान की रीढ़ टूट जाती है। लेकिन विडंबना पूर्ण है कि सरकार के पास पशुओं के मरने से होने वाली आर्थिक क्षति का न तो कोई आंकड़ा है और ना ही इस नुकसान की भरपाई का कोई तंत्र।

पशु ग्रामीण भारत की जीवन रेखा है और करोड़ों परिवार का पेट पशुओं से पलता है। देश में पशु चिकित्सकों का ढांचा बहुत कमजोर है। लगभग 15000 पशुओं पर एक पशु चिकित्सक है जबकि कायदे से 5000 पशुओं पर एक चिकित्सक होना चाहिए। आपदा प्रबंधन का काम पहले कृषि मंत्रालय के तहत था अब गृह मंत्रालय के पास है। आपदा में पशुओं के मरने संबंधी सवालों को संसद यह कहकर टाल देती है कि यह राज्यों का विषय है। कुछ राज्यों में दुधारू पशु जैसे भैंस, गाय, ऊंट के मामले में 30000 रूपये तक और भेड़ बकरी सूअर के मामले में 3000 रूपये तक की मदद का प्रावधान है। इसी तरह कुछ राज्यों में बछड़ा, गधा, खच्चर के मामले में 16000 रूपये तक के मुआवजे की बात है, लेकिन लाल फीताशाही की जकड़न के कारण यह मदद शायद ही किसी पीड़ित तक पहुंच पाती है। ठीक है कि मनुष्य का जीवन सर्वोपरि है उसे उच्च प्राथमिकता के साथ डील किया जाना चाहिए लेकिन आपदाओं के वक्त पशुओं को बचाने के लिए भी किसी ठोस तंत्र की बात अवश्य होनी चाहिए, क्योंकि भारत एक पशु प्रधान देश भी है।           

लेखक- कार्यक्रम अधिकारी, आकाशवाणी, दिल्ली

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