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जल स्रोतों में बढ़ता रासायनिक जहर

समस्या अगर शुरुआत में ही पकड़ में आ जाए और उसके उपाय पर गहराई से चिंतन हो, तो समस्या का समाधान आसान हो जाता है। - डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्रा

 

भारत में निरंतर बाघ कम हो रहे हैं। इसकी कोई एक वजह नहीं है। मगर बाघों को जान का नया खतरा जंगल के जहरीले जलस्रोत के रूप में सामने आया है। उत्तराखंड के हल्द्वानी में एक बाघ की मौत होने के बाद जांच में मिले तथ्यों के आधार पर वैज्ञानिक इसके पीछे जहरीले पानी की आषंका जता रहे हैं। वन्यजीव विषेषज्ञों के अनुसार, जंगल के कुछ दूषित जलस्रोत ऐसे हैं, जिनमें जहरीले तत्त्व पाए गए हैं, जिनके पीने से किसी भी प्राणी की मौत हो सकती है। जिस बाघ की मौत हुई उसके बिसरा की जांच से पता चला है कि बाघ के शरीर में भारी जहरीली धातुएं थीं, जो उसकी मौत की वजह बनीं। उत्तराखंड के जलस्रोतों में भारी जहरीले तत्त्व कब घुले, यह भी पता नहीं लग पाया है।

सवाल है कि पहाड़ के इन जलस्रोतों में भारी जहरीले तत्त्व कैसे घुलने लगे हैं? यह पहली बार संज्ञान में आया है। इसलिए इस पर गहन जांच जरूरी है।जिस बाघ की मौत हुई, उसकी उम्र आठ साल थी। अगर उसके शरीर में संक्रमण न हुआ होता तो शायद उसकी गहन जांच भी न कराई जाती। वैज्ञानिकों के अनुसार जलस्रोत में ऐसे जहरीले तत्त्व पाए गए हैं, जिनसे कैंसर होने का खतरा हो सकता है। इसके अलावा सिर, त्वचा, पेट, आंख से संबंधित समस्याएं इन जलस्रोतों के जहरीले जल से हो सकती हैं। विज्ञान की भाषा में आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम, तांबा, सीसा, मैगनीज, पारा, निकल, यूरेनियम आदि अगर जल में घुले हों, तो इनके लगातार सेवन से त्वचा रोग, कैंसर और पेट, सिर से संबंधित अनेक बीमारियां हो सकती हैं।

पहाड़ों के जल स्रोतों का पानी कृषि और बागवानी के अलावा पीने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। परीक्षण के बाद जिन जलस्रोतों में जहरीले रासायनिक तत्त्व पाए जाएं, वहां का पानी इस्तेमाल न करने की तख्ती लगा कर लोगों को सावधान किया जा सकता है, मगर जंगली और पालतू पषुओं को ऐसे जहरीले पानी से दूर रहने के लिए किस तरह सावधान किया जा सकता है? यह जहरीला जल कृषि और बागवानी के लिए भी इस्तेमाल करना बहुत खतरनाक है। इसलिए वन्य प्रषासन को जंगली और पालतू पषुओं तथा पक्षियों को ऐसे जलस्रोतों से दूर रखने के लिए किस तरह के उपाय करने होंगे, इसे समझना होगा।

राष्ट्रीय पषु होने के कारण बाघ की सुरक्षा को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें सावधानी बरतती हैं। इसलिए बाघों की सुरक्षा और संरक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाए गए हैं। ये कानून बाघों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करते हैं। गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्तर पर बाघों को षिकारियों से बचाने के लिए 4 सितंबर, 2006 को ’वन्य जीवन (संरक्षण) संषोधन अधिनियम 2006’ लागू किया गया। अधिनियम में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और बाध तथा अन्य लुप्तप्राय प्रजाति अपराध नियंत्रण ब्यूरो (वन्य जीव अपराध नियंत्रण) बनाने का प्रावधान है। 1972 की धारा 38 के अंतर्गत निर्धारित बाघ संरक्षण प्राधिकरण को अनेक शक्तियां प्रदान की गई हैं। इनमें राज्य सरकार द्वारा इस अधिनियम की धारा 38 की उपधारा (3) के तहत बाघ संरक्षण को स्वीकृति प्रदान की जाती है। जिस बाघ की मौत हुई, उसकी वजह बाघ संरक्षण की किसी भी धारा के अंतर्गत नहीं आती है, क्योंकि यह सबसे अलग है। 

यह समस्या महज बाघों से जुड़ी नहीं है, बल्कि कोई भी प्राणी जहरीले जल के असर से मौत का षिकार हो सकता है। जलस्रोतों का जहरीला होना बहुत बड़ी समस्या है। इस पर गहराई से जांच होनी चाहिए। इससे स्रोत के जहरीला होने के कारणों का पता चल पाएगा और उन कारणों को खत्म करने के लिए कारगर उपाय वन्य जीव सुरक्षा प्रषासन कर पाएगा।

बाघों की सुरक्षा के नजरिए से उत्तराखंड का वातावरण सबसे मुफीद माना जाता है, लेकिन अब वहां भी वैसी हालात नहीं है। हर साल उत्तराखंड के जगलों में विकट आग लगती है, इससे हजारों जानवर और पक्षी मारे जाते हैं। हालांकि बाघ जंगल की इस आग से सुरक्षित रहते हैं। फिर भी उत्तराखंड में बीते दस सालों में 96 बाघों की मौत हुई। वहीं पर मध्य प्रदेष में 244, महाराष्ट्र में 168, कर्नाटक में 138 बाघों की मौत हुई। लेकिन जहरीला पानी पीने से बाघ की मौत से यह आषंका बढ़ी है कि अगर वन्य प्रषासन बाघों को जहरीले जलस्रोतों का पानी पीने से नहीं बचा पाता है, तो समस्या विकट हो सकती है।

जहरीले जलस्रोतों की पहचान से इस प्रदेष में पीने के पानी और कृषि-बागवानी की सिंचाई की समस्या और बढ़ जाएगी, क्योंकि प्रदेष के करीब बारह हजार जलस्रोत जलवायु परिवर्तन और अन्य कारणों से सूख चुके हैं। यह बात उत्तराखंड जैव प्रौद्योगिकी परिषद की शोध रपट के आधार पर बताई गई है। गौरतलब है कि उत्तराखंड में करीब 2.6 लाख प्राकृतिक जलस्रोत हैं, इनमें से करीब बारह हजार से ज्यादा सूख चुके हैं और लाखों सूखने के कगार पर हैं। जो जलस्रोत जहरीले हुए हैं, उनके परीक्षणों से पता चला है कि इसकी वजह उद्योगों और मानव जनित प्रदूषण हो सकता है। उत्तराखंड में तराई के जलस्रोत अधिक तेजी से सूख रहे हैं। आधुनिक विकास के कारण छोटी नदियां और चष्मे गंदे नालों में तब्दील होते जा रहे हैं। ऐसे जलस्रोतों में रासायनिक जहरीले तत्त्व बढ़ते जा रहे हैं। उत्तराखंड में राजमार्गों के निर्माण की वजह से जलदोहन तेजी से बढ़ा है। आलम यह है कि जलस्रोत अपने मूलस्वरूप और दिषा खोने लगे हैं। ये धीरे-धीरे कुंओं में तब्दील होते जा रहे हैं। इसलिए अकूत जलदोहन से बढ़ने वाली समस्याओं की गहन जांच होनी चाहिए।

इस समस्या को समग्रता में देखने की जरूरत है, क्योंकि झरने, चष्मे, खार, कुएं और अन्य जल स्रोतों में ही रासायनिक तत्व नहीं बढ़ रहे हैं, बल्कि भूजल स्तर भी लगातार नीचे जा रहा है। भूजल स्तर लगातार कम होना महज हिमाचल प्रदेष, उत्तराखंड, गुजरात, मध्यप्रदेष, उत्तर प्रदेष की समस्या नहीं है। भारत के तकरीबन हर भू-भाग में जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। नलकूप से पानी निकालना बहुत कठिन हो गया है। फिर, भूजल जहरीला भी हो रहा है। तमाम जंगली और पालतू जानवर और पक्षी जहरीला पानी पीने की वजह से मरते रहे हैं, लेकिन इस तरफ किसी ने गौर नहीं किया। जंगली इलाकों या गांवों की समस्याओं की खबर इसलिए भी नहीं बन पाती, क्योंकि ये दूरदराज में घटने वाली घटनाएं होती हैं, जहां मीडिया शायद कभी-कभार अपनी आंख घुमाकर देख पाता है।

पानी का जहरीला होना और उसके असर से इंसान और जीव-जंतुओं का बीमार होना और उनकी मौत की घटनाएं यूं तो सालों से घट रही हैं, लेकिन बाघ की मौत ने इस समस्या को चर्चा में ला दिया। जाहिर है, अगर बाघ की मौत न हुई होती और पानी की जांच सरकारी विभाग से न होती, तो यह खबर भी दूसरी संवेदनषील खबरों की तरह दम तोड़ चुकी होती। गौरतलब है कि अब उन जलस्रोतों की भी जांच हो जाएगी, जो अभी तक जांच के दायरे में नहीं थे। इससे जल प्रदूषण का असर इंसान और वन्य प्राणियों पर किस तरह पड़ रहा है, यह भी जांच से पता चल जाएगा। समस्या अगर शुरुआत में ही पकड़ में आ जाए और उसके उपाय पर गहराई से चिंतन हो, तो समस्या का समाधान आसान हो जाता है।

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