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स्वावलम्बन का आधार स्वदेशी

प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो और उसे रहने के लिए घर के साथ इतना भोजन प्राप्त हो जिससे एक स्वस्थ नागरिक के रूप में वह अपना निर्वाह कर सके। स्वस्थ रहने का अर्थ है, स्व में स्थित रहना और यही स्वदेशी का तात्त्विक अर्थ भी है। — ड़ा. धनपत राम अग्रवाल

 

आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन एक दूसरे के पर्यायवाची के रूप में व्यवहार किये जाते हैं किन्तु इन्हें एक दूसरे का पूरक भी समझा जा सकता है। इसका व्यष्टिगत और समष्टिगत संदर्भ अलग-अलग है। इसका तात्पर्य यह है कि हम व्यक्तिगत स्तर पर भी आत्मनिर्भर हों और सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर भी। व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता से तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास रोज़गार हो, भले ही नौकरी न हो और उसकी आय का एक ऐसा स्तर हो जिससे वह अपने स्वाभिमान और अस्मिता को बचाने में सक्षम हो। इस तरह प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो और उसे इतना भोजन और आवास प्राप्त हो जिससे एक स्वस्थ नागरिक के रूप में वह अपना निर्वाह कर सके। स्वस्थ रहने का अर्थ है, स्व में स्थित रहना और यही स्वदेशी का तात्त्विक अर्थ भी है।

समाज परस्परावलंबन और पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही चल सकता है। कोई व्यक्ति अनाज उत्पन्न करता है, कोई शिक्षा देता है, कोई घर बनाता है और इस प्रकार परस्परावलंबन के आधार पर अलग-अलग गुण और कर्म पर आधारित समाज सर्वांगीण विकास की दिशा में तीव्र गति से एक साथ कदम से कदम मिलाकर चलता है। स्वावलंबन और परस्परावलंबन एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं और आपसी सहयोग और योग्यता के आधार पर हम एक आदर्श गाँव या ज़िले की अवधारणा तैयार कर सकते हैं।

परावलंबन अलग हैं और यह नहीं होना चाहिये

आज अगर हम विदेशी वस्तुओं का और विदेशी पूँजी तथा विदेशी तकनीक पर निर्भर रहेंगे तो परावलम्बी बने रहेंगे। अतः हमें स्वदेशी को ही अपनाना होगा। हमने स्वदेशी संकल्प के आधार पर भारत को आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनाने का निश्चय किया है। हमारा लक्ष्य, अर्थव्यवस्था को ग्राम आधारित और रोज़गार आधारित एक विकेंद्रित प्रणाली के द्वारा ग़रीबी का उन्मूलन करते हुए धर्म और संस्कृति पर आधारित स्वाभिमानी राष्ट्र का निर्माण करना है। पिछले तीस वर्षों से चली आ रही वैश्विक अर्थव्यवस्था की जो तथाकथित सुधारवादी आर्थिक नीतियाँ चल रही हैं, इनसे हमारा देशीय संचय घटा है और विदेशी पूँजी का वर्चस्व बढ़ा है। हमारा घरेलू उद्योग कमजोर हुआ है। सिर्फ़ कृषि क्षेत्र में हम आत्मनिर्भर हो सके हैं। ग़रीबी और बेरोज़गारी का स्तर बढा है। आर्थिक विषमता बढ़ी है। हमें व्यवस्था और नीतियों में परिवर्तन की आवश्यकता है। स्वदेशी तत्वज्ञान को आचरण में ढालने की आवश्यकता है।

स्वधर्म के आधार पर मनुष्य के गुण और कर्म का अलग-अलग होना एक स्वाभाविक क्रिया है और वर्णाश्रम व्यवस्था भी इसी आधार पर बनी है। अर्थ व्यवस्था के तीन विभाग भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया के ही अंग हैं और तदनुसार कृषि, उद्योग तथा सेवा के विभिन्न क्षेत्र सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में समन्वय तथा परस्पर सहयोग के साथ विकास के पथ की दिशा पर चलते हैं। आज आर्थिक नीतियों के दोष के कारण कृषि क्षेत्र से जुड़े लोग गरीब हैं। आवश्यकता इस बात की है कि कृषक और गावों को स्वावलंबी कैसे बनाया जाये।

आत्मनिर्भरता स्वाभिमान की रक्षा का एक लक्ष्य है। हम अपने प्राकृतिक तथा अन्य पूँजीगत एवं मानव संसाधनों के उचित विनियोजन द्वारा उनका संयमित दोहन करते हुए हमारी व्यक्तिगत और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयास करते हैं। परन्तु दोहन की जगह अगर हम प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करते हैं तो पर्यावरण की समस्या पैदा होती है और मानव संसाधन का शोषण करते हैं तो समाज की समरसता घटती है। आर्थिक विषमता समाज के लिये अभिशाप है। किसानों की फसल का उचित मूल्य और श्रम का उचित पारिश्रमिक मिलना चाहिये। आत्मनिर्भरता की यही कुंजी है। अगर हमारा किसान और मज़दूर आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होता है तो उनकी क्रय क्षमता में वृद्धि होती है और देश के उद्योग आगे बढ़ सकते हैं। इससे सरकार की सब्सिडी का खर्च घट सकता है, जिसे शिक्षा और स्वास्थ्य तथा देश की सुरक्षा में खर्च किया जा सकता है। स्वावलंबन के लिये कुटीर तथा लघु उद्योग को बढ़ाना और प्रोत्साहित करना आवश्यक है। इसके लिये उनको सस्ते ब्याज दर पर ऋण की व्यवस्था तथा आधुनिक तकनीक की व्यवस्था उपलब्ध होनी चाहिये। सबसे महत्वपूर्ण बात है उनके उत्पादों की बिक्री की व्यवस्था और यहाँ स्वदेशी भावना का बहुत बड़ा योगदान हो सकता है। स्वदेशी उत्पादों की गुणवत्ता और प्रतियोगात्मकता को वरीयता मिलनी चाहिये। उपभोक्ताओं के बीच स्वदेशी जीवन पद्धति के प्रति जागरूकता को बढ़ाना भी आवश्यक है।यहाँ यह समझना भी ज़रूरी है कि अर्थ व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिये कुछ सामग्रियों का आयात देश की आवश्यकता को ध्यान में रखकर करना अनिवार्य होता है। जैसे पेट्रोल, डीज़ल के लिये कच्चा तेल हमें अरब देशों से आयात करना पड़ता है और कुछ आधुनिक तकनीक से बनी मशीनों एवं कुछ दवाइयों को भी अनिवार्य रूप से आयात करना पड़ता है। इसके अलावा और बहुत सारे उपभोग के सामानों का आयात होता है जिन्हें स्वदेशी तकनीक को और अधिक विकसित करके स्वावलंबी होने की आवश्यकता है। इसके लिये हमारे अनुसंधान क्षेत्र में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इसमें निजी औद्योगिक क्षेत्र को ज़िम्मेवारी लेनी चाहिये क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था का तीन चौथाई से ज़्यादा हिस्सा निजी क्षेत्र से ही आता है जब कि अनुसंधान का तीन चौथाई से ज़्यादा हिस्सा सरकारी संस्थाओं द्वारा किया जाता है। आज का युग बौद्धिक सम्पदा पर आधारित है। अमेरिका और यूरोप की कुल आय का एक तिहाई से ज़्यादा हिस्सा सिर्फ़ पैटेंट और कापी राइट की रॉयल्टीज़ से आ जाता है जो कि हमारी कुल राष्ट्रीय आय के दोगुना से भी अधिक है। यह मानसिक बदलाव लाना बहुत आवश्यक है और हमारी प्रज्ञा को बाहर जाने से रोकने में भी मदद मिलेगी। इसका दूरगामी और दीर्घक़ालीन प्रभाव हमारी कार्यक्षमता को बढ़ाने और हमारे स्वदेशी उत्पादों की गुणवत्ता बढ़ाने में मिलेगा। धीरे-धीरे मोटर गाड़ी तथा इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में हम आत्मनिर्भर बन सकेंगे और हमारा न सिर्फ़ आयात घटेगा बल्कि हम अपना निर्यात भी बढ़ा सकेंगे। हमारे मानव संसाधन की मर्यादा बढ़ेगी और बौद्धिक सम्पदा में हम अग्रणी स्थान प्राप्त कर सकेंगे। अभी हम तकनीक का आयात करते हैं, फिर हम इसका निर्यात करेंगे। अभी हम व्यापार घाटे की स्थिति में हैं और इसकी भरपाई विदेशी ऋण और विदेशी पूँजी से करते हैं, जिसका बोझ बढ़कर 1.5 ट्रिलियन यूएस डालर से भी ज़्यादा हमारे देश पर है। विदेशी पूँजी के मुख्यतः तीन श्रोत हैं - विदेशी ऋण, शेयर बाज़ार में निवेश तथा उद्योग या सेवा क्षेत्र में विदेशी निवेश (एफडीआई)। चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का प्रचार होते हुए भी चालू वित्त वर्ष में लगभग 100 बिलियन यूएस डालर का आयात चीन से हुआ है और निर्यात सिर्फ़ 25 बिलियन यूएस डालर और फलतः व्यापार घाटा 75 बिलियन यूएस डालर के लगभग हुआ है। इसकी उल्टी गिनती चालू करने की आवश्यकता है, तभी हमारा रुपया अमेरिकन डालर की तुलना में मज़बूत हो सकेगा। स्वावलम्बन और आत्मनिर्भर भारत की पहचान तभी हो सकेगी जब भारत का रुपया अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अपना स्थान बना सकेगा और अपनी क्रय क्षमता के अनुकूल अपनी क़ीमत बना सकेगा जो कि आज के दिन लगभग सिर्फ़ 15 रुपये होने के बावजूद बाज़ार मूल्य 83 रुपये का है। रुपये की दर में गिरावट का मुख्य कारण कच्चे तेल के मूल्य में वृद्धि और बढ़ती हुई मँहगाई है, जिसके मूल में रुस-यूक्रेन युद्ध तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भौगोलिक-राजनैतिक अस्थिरता है। अमेरिकी केंद्रीय बैंक के द्वारा ब्याज दर में लगातार बढ़ोतरी का मुख्य कारण वहाँ की 7-8 प्रतिशत की महंगाई है, जिसकी वजह से हमारे रिज़र्व बैंक ने भी ब्याज दर को बढ़ाया है। रूपये की दर में गिरावट को रोकने के उपाय किये जा रहे हैं और विदेशी व्यापार भी अधिकांश देशों के साथ डालर में नहीं करके रूपये में करने की कोशिश की जा रही है। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार भी पिछले एक साल में लगभग 100 बिलियन यूएस डालर घटा। ऐसे गंभीर हालातों में देशी संचय क्षमता को बनाये रखना ज़रूरी है ताकि पूँजी के विनियोजन और रोज़गार सृजन के लिये हमें विदेशी पूँजी पर आश्रित नहीं होना पड़े। स्वदेशी और स्वावलम्बन ही एकमात्र विकल्प है जो हमारी बौद्धिक क्षमता और हमारी आर्थिक क्षमता को एक प्रखर और समृद्ध राष्ट्र के रूप में दुनिया में अपना खोया हुआ स्थान प्राप्त करा सकता है।

उपरोक्त भूमिका को ध्यान में रखकर ही हमें आज के युगानुकूल चिंतन करने की आवश्यकता है। तकनीक और ज्ञान-विज्ञान के आज के युग में व्यावहारिक चिंतन आवश्यक है। हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता सर्वोपरि है।

(लेखक स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक हैं।)

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