भारत सरकार द्वारा जारी राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा नीति को प्रभावी ढं़ग से लागू कर हमारी युवा पीढ़ी की मेधा और प्रज्ञा को आधार बनाकर अपनी स्वदेषी शोध और तकनीक के आधार पर स्वावलंबी उद्यमिता को मजबूत बनाना होगा। - डॉ. धनपत राम अग्रवाल
अनुसंधान तथा नवाचार भारतीय संस्कृति के मूल में है और यही कारण है कि सृष्टि के प्रारंभिक काल से ही हमारे पूर्वज, ऋषि-महर्षि ज्ञान और विज्ञान की खोज तथा उसकी अभिव्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों में करते आये है और यह प्रयास सतत रूप से चलता आया है। वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण तथा हमारा साहित्यिक वांगमय इन वैज्ञानिक यंत्रों तथा सारे ब्रह्मांड के बारे में विभिन्न तथ्यों की जानकारी से भरा पड़ा है। विज्ञान तथा कला के क्षेत्र में हमारे ऋषियों ने ग्रह-नक्षत्रों की खोजकर खगोल शास्त्र में अनोखी जानकारियां उपलब्ध करवायी और इसी प्रकार ज्योतिषी शास्त्र तथा गणित विद्या के आधार पर विभिन्न ग्रहों की स्थिति तथा उनका मनुष्य जीवन एवं जलवायु पर प्रभाव, विभिन्न वनस्पतियों का मानव स्वास्थ्य के साथ सम्बन्ध तथा आयुर्वेद का आविष्कार किया। इनमें ऋषि सुश्रुत का चिकित्सा शास्त्र, ऋषि कणाद का भौतिक शास्त्र, आर्यभट्ट और भास्कराचार्य का गणित शास्त्र तथा वाणभट्ट का पाक-षास्त्र उल्लेखनीय है।
ज्ञान-विज्ञान के अनुसंधान की इसी प्रक्रिया में आधुनिक युग में आचार्य जगदीष चंद्र बसु, सत्येंद्र नाथ बोस, सी.वी. रमन, होमी भावा, विक्रम साराभाई, अब्दुल कलाम आदि विश्व विख्यात वैज्ञानिक भारत भूमि में पैदा हुए हैं। भारत शब्द ही ज्ञान के प्रकाष में रत रहने की प्रेरणा देता है। विज्ञान का अर्थ विषेष ज्ञान अर्थात अलग-अलग विषयों का ज्ञान यानि रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र अथवा गणित शास्त्र आदि।
ज्ञान और विज्ञान की खोज द्वारा मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने का पुरुषार्थ सृष्टि के आदि काल से वर्तमान समय तक चलता रहा है और इसका प्रभाव हमारे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक जीवन में देखने को मिलता है। मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में थोड़ा सा जो अंतर है वह बुद्धि, विवेक और विचार करने की शक्ति के कारण है और इसी के आधार पर मनुष्य अपनी आवष्यकताओं का निर्धारण करता है। मनुष्य की कुछ आवष्यकताएं शारीरिक और कुछ मानसिक हैं। कुछ की शारीरिक और भौतिक आवष्यकताएं ज़्यादा हैं और कुछ की मानसिक। यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसके बौद्धिक विकास का स्तर क्या है और जिस समाज में वह रहता है, उसकी मान्यताएँ क्या हैं। भारतीय मनीषियों ने पुरुषार्थ चतुष्टय में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के आधार पर मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य सांसारिक बंधनों से मुक्ति बताया है और उस दृष्टि से समाज के लिये निःश्रेय अभ्युदय का सिद्धांत राष्ट्र जीवन का भी होना चाहिये और इस प्रकार मानव जीवन का आधार ‘धर्म’ होना चाहिये। इसी सिद्धांत पर हम ‘सर्वे भवन्तु सुखिन’ और ‘वसुधैव कुटुम्भकम्’ की अवधारणा पर सारे विश्व ब्रह्मांड को ‘एकम सदविप्रा बहुधा वदंति’ के आधार पर सभी प्राणियों में एक ही ब्रह्म की दृष्टि रखते हुए सभी के हित के लिये जो उचित है, उसे धर्म मानते हैं।
स्वदेषी और ‘स्व’ आधारित वैचारिक अधिष्ठान के चिंतन में भी यही भारतीय दृष्टिकोण है। ’श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः’ यह श्लोक भगवद गीता के अध्याय 3, श्लोक 35 में है, जिसका अर्थ है कि अपने धर्म के लिए मरना श्रेयस्कर है और दूसरों के धर्म के लिए मरना भयावह है। अतः जब हम समग्र आर्थिक विकास का चिंतन करते हैं तो हमारा उद्देष्य ‘स्व’ के अंदर सारे विश्व कल्याण की सोच आती है और इसी कारण हम त्याग के आधार पर उपभोग और संयम के साथ हमारे जीवन की आवष्यकताओं का निर्णय करते हैं। पर्यावरण के साथ संतुलन और सामंजस्य रखते हुए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग, उनका उचित परिमाण में दोहन और पोषण करते हुए एक दीर्घगामी जीवन प्रणाली की अवधारणा करते हैं। तकनीकी विकास और उद्यमिता के आधार पर विकास हो, इसे हम स्वीकार करते हैं किंतु सिर्फ उपभोग के लिये प्रकृति के शोषण का हम विरोध करते हैं।
स्वदेषी अर्थनीति के मूल में और स्वदेषी से स्वावलंबन की जीवन यात्रा में हम आर्थिक संसाधनों के उपयोग में बौद्धिक संपदा के विषय में सकारात्मक सोच रखते हैं और सृजन शक्ति तथा नवाचार के आधार पर परम वैभवषील राष्ट्र निर्माण का संकल्प लेते हैं। पिछले 500 वर्षों के इतिहास में हम पाते हैं कि जहां एक समय भारत आर्थिक दृष्टि से दुनिया का सबसे संपन्न राष्ट्र रहा है वहीं सन् 1757 में ब्रिटिष शासन और उनकी साम्राज्यवादी नीतियों की वजह से 1947 में राजनैतिक दृष्टि से स्वाधीन होने के बावजूद हमारे यहाँ आर्थिक विपन्नता डेरा डाले हुए है और आज भी आर्थिक रूप से पूर्णरूप से स्वाधीन होने के पथ में पिछड़ गए हैं।
सबसे अहम सवाल है कि 19वीं शताब्दी के औद्योगिक क्रांति के पहले तक जब सारी दुनिया कृषि और पषु पालन आधारित जीविका पर आश्रित थी, उस समय भी भारत का कपड़ा, सिल्क तथा अन्य कई षिल्प दुनिया में मषहूर थे और भारत कई शताब्दियों से दुनिया का अग्रणी राष्ट्र था। वर्ष 1757 में ब्रिटिष शासन के आने तक और उससे कई शताब्दी पूर्व से सारी दुनिया की आय का 25-30 प्रतिशत हिस्सा भारत का होता था। दुनिया के अधिकांष देषों के साथ भारत का व्यापार होता था, निर्यात ज़्यादा होता था, आयात कम होता था और व्यापार से जो आय होती थी वह सोने यानि गोल्ड तथा अन्य कीमती हीरे-जवाहरात के रूप में होती थी। भारत के मसाले सारी दुनिया में प्रसिद्ध थे।
विदेषी लुटेरों की नज़र भारत पर पड़ी और डच, पुर्तगीज़, फ्रेंच और अंत में ब्रिटिष भारत में व्यापार करने के बहाने आकर फिर धोके से हुकूमत करने लगे। ऐसा अनुमान है कि ब्रिटिष साम्राज्य ने आज के मूल्यांकन के आधार पर 45 ट्रिलियन अमरीकी डालर के बराबर का धन 200 वर्षों में भारत से लूटा। भारत की अर्थव्यवस्था के प्रतिकूल उनकी नीतियों की वजह से हमारा वर्षों पुराना व्यापार और षिल्प नष्ट प्रायः हो गया।
औपनिवेषिक एवं साम्राज्यवादी नीतियों के दुष्परिणाम से पूंजीवाद का जन्म हुआ और उसी के प्रतिक्रिया स्वरूप में साम्यवाद का जन्म हुआ। आर्थिक विषमताएँ बढ़ने लगी। यूरोपियन देषों के आपसी हितों में टकराव के फलस्वरूप दो विश्व युद्ध हुए। औपनिवेषिक सत्ता का अंत हुआ। ब्रिटिष हुकूमत ख़त्म हुई और संयुक्त राज्य अमेरिका ने वैश्वीकरण के नये हथकंडे अपनाये। दुनिया में अमरीकी डालर का बोलबाला हो गया। इन सारी प्रतिकूल परिस्थितियों में भारत की अर्थव्यवस्था कमजोर होती गई और हमारा हिस्सा दुनिया की कुल आय का सिर्फ 2.5 प्रतिशत ही रह गया। यानि औद्योगिक क्रांति, पूंजीवाद तथा औपनिवेषिक शासन पद्धति ने भारत की आर्थिक शक्ति को बिल्कुल कमजोर कर दिया। दुनिया में सोने की चिड़िया कहलाने वाला देष एक आर्थिक दृष्टि से ग़रीब राष्ट्र के रूप में परिणित हो गया।
आज 21वीं शताब्दी में भारत के आर्थिक पुनःनिर्माण का समय आया है। आज विज्ञान और तकनीक ने पूंजीवाद की नींव को कमजोर कर दिया है। भारत के पास मानव संसाधन है, युवा शक्ति है तथा भारत अपनी प्रज्ञा और मेधा के आधार पर दुनिया की एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनने के लिये फिर से खड़ा हो गया है। वर्ष 2047 में अपनी स्वाधीनता के 100 वर्ष पूर्ण होने तक एक विकसित भारत बन जाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। उस विकसित भारत का मानचित्र अभी से बनाना आरम्भ हो गया है और वर्तमान में भारत दुनिया की पाँचवी बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुका है और शीघ्र ही अगले 3-4 वर्षों में दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने वाला है।
आज बहुत से अर्थषास्त्री इस बात पर विचार कर रहे हैं कि आर्थिक विकास के न्यायसंगत और युक्तिसंगत मापदंड क्या होने चाहिये। आज दूनिया में अमरीका तथा यूरोप में एक तरफ़ तो भौतिक दृष्टि से आर्थिक उन्नति तो बहुत हुई है किंतु आर्थिक विषमता, ग़रीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों में गिरावट, पर्यावरण की समस्या, भौगोलिक-राजनैतिक विद्वेष आदि से दुनिया त्रस्त है। ऐसे में भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के अपने मापदंडों को निष्चित करना पड़ेगा। जहाँ उद्यमिता और स्वावलंबन के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में रोजगार हो, जैविक कृषि हो, जिससे भूमि को और विषाक्त होने से बचाया जा सके, आर्थिक तथा भौगोलिक असमानता खत्म हो तथा धर्म पर आधारित नैतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित किया जा सके। ऐसा करने के लिए षिक्षा क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन की आवष्यकता है, कौषल तथा उद्यमिता को प्रोत्साहन, नवाचार तथा सृजन शक्ति को उत्साहित करना, अनुसंधान तथा नए अविष्कारों के द्वारा भारतीय प्रज्ञा के आधार पर स्वदेषी वस्तुओं की गुणात्मकता तथा उनकी क़ीमतों को विश्व बाज़ार में प्रतियोगात्मक बनाना आदि विषयों की प्राथमिकता तथा वरीयता देने की आवष्यकता है।
भारत आज दुनिया की 18.5 प्रतिशत जनसंख्या वाला देष है किंतु आज भी हमारी राष्ट्रीय आय दुनिया की कुल आय का सिर्फ 3.5 प्रतिशत ही है, जबकि अमरीका दुनिया की जनसंख्या का सिर्फ 5 प्रतिशत होते हुए भी दुनिया की आय का 25 प्रतिशत है। चीन जो दुनिया की जनसंख्या का 18 प्रतिशत है, दुनिया की आय का भी 18 प्रतिशत है। यह विरोधाभास इसलिये है कि अमरीका ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काफ़ी तरक्की करके अपने बौद्धिक संपदा के आधार पर पेटेंट और कापी राइट के द्वारा जो आय अर्जित करता है, वह भारत की कुल राष्ट्रीय आय की तुलना में दोगुना से भी ज़्यादा है और हाल के उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से अमेरिका की बौद्धिक संपदा द्वारा अर्जित आय 7-6 ट्रिलियन अमरीकी डालर है। अतः भारत को 2047 में विकसित भारत बनने के संकल्प में बौद्धिक संपदा की ओर ध्यान देने की आवष्यकता है। भारत सरकार द्वारा जारी राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा नीति को प्रभावी ढं़ग से लागू कर हमारी युवा पीढ़ी की मेधा और प्रज्ञा को आधार बनाकर अपनी स्वदेषी शोध और तकनीक के आधार पर स्वावलंबी उद्यमिता को मजबूत बनाना होगा।