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आईपीईएफः मजबूरियां, विरोधाभास और समझौता

हिंद प्रशांत आर्थिक ढांचे में भारत के लिए संभावनाएं और वादे बहुत हैं लेकिन इसमें अपने हितों की रक्षा के लिए राजनीतिक समायोजन और बातचीत दोनों को शामिल करना होगा — केके श्रीवास्तव

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि भारत प्रशांत आर्थिक ढांचा (आईपीईएफ) का निर्माण इस क्षेत्र को वैश्विक आर्थिक विकास का इंजन बनाने की हमारी सामूहिक इच्छा की घोषणा है। ऐसे में प्रधानमंत्री की बातों का एक स्पष्ट विश्लेषण लाजमी हो जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस क्षेत्र में अमेरिका के प्रभाव को फिर से स्थापित करने और चीन के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से यह पहल की गई है। आईपीईएफ को चीन से दूर एक अलग आर्थिक दूरी रूप के रूप में भी देखा जा रहा है। असल में एशिया में दो प्रमुख कारोबारी समूह सीपीटीपीपी और आरसीईपी हैं। जहां तक चीन की बात है तो वह ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप यानी सीपीटीपीपी की सदस्यता चाहता है, वही वह आरसेप का सदस्य है। अमेरिका टीपीपी से पहले ही अलग हो चुका है और आरसेप का वह सदस्य नहीं है। इसी तरह भारत भी दोनों समूह का सदस्य नहीं है। भारत और सबसे अलग हो चुका है। ऐसे में अमेरिका की कोशिश है कि वह आईपीईएफ के जरिए न केवल चीन के दबदबे को रोके बल्कि क्षेत्र में फिर से अपनी विश्वसनीयता बनाए। अमेरिका यह भी चाहता है कि इस काम में भारत उसका अहम साझेदार बने।

ऐसा माना जा रहा है कि आईपीईएफ में पारंपरिक फ्री ट्रेड एग्रीमेंट से अलग रास्ता अपनाया जाएगा। इसमें दो देश आपसी जरूरतों को देखते हुए तेजी से फैसले ले सके, इस पर ज्यादा फोकस किया जाएगा। इस समझौते से अमेरिकी और एशियाई अर्थव्यवस्था में सप्लाई चैन, डिजिटल व्यापार, ग्रीन एनर्जी, ऊर्जा समेत कई मुद्दों पर साथ काम करने की बात है। आईपीईएफ का मकसद सप्लाई चेन की राह में आने वाले अवरोधों को दूर करना और सहयोग बढ़ाना है, जिसका सबसे ज्यादा असर कोरोना के दौर में देखा गया और इसको लेकर चीन पर खुले आरोप लगते रहे हैं कि उसने सप्लाई चैन में बाधा पहुंचाई है।

आईपीईएफ के ऐलान के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद जापान में मौजूद थे। आईपीएल पर उन्होंने कहा कि यह दुनिया के आर्थिक विकास का इंजन बनेगा। भारत हमेशा मुक्त खुला और समावेशी इंडोपेसिफिक क्षेत्र को लेकर प्रतिबद्ध रहा है। यह क्षेत्र आर्थिक गतिविधि और निवेश का केंद्र रहा है। ऐसे में जरूरी है कि हम इस क्षेत्र की आर्थिक चुनौतियों का समाधान खोजें और व्यवस्था बनाए। विश्वास, पारदर्शिता और सामरिक एकता हमारे बीच लचीली सप्लाई चैन के तीन मुख्य आधार होने चाहिए।

प्रधानमंत्री के बयान से साफ है कि भारत सप्लाई चेन के, बिना किसी बाधा के, काम करने को लेकर सबसे ज्यादा आशान्वित है, क्योंकि कोविड-19 का सबसे बड़ा असर हुआ है। इसके अलावा एशिया में वर्क वार्ड और आईपीईएफ के जरिए अपने आर्थिक हितों को बेहतर तरीके से साध सकेगा। हालांकि आईपीईएफ कैसे काम करता है इसकी शर्तें क्या होगी और उसका कितना फायदा मिलेगा, इसके लिए हमें अभी और थोड़ा इंतजार करना होगा।

क्वार्ड सम्मेलन के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन द्वारा ताइवान के मामले पर चीन को चुनौती वाला बयान और फिर सम्मेलन शुरू होने से पहले ही इंडोपेसिफिक इकोनामिक फ्रेमवर्क के अवतार ने यह साफ कर दिया है कि अमेरिका इंडोपेसिफिक क्षेत्र में अपनी 2017 वाली रणनीति में बदलाव कर रहा है और वह किसी भी हालत में चीन का इस क्षेत्र में दबदबा बढ़ने नहीं देना चाहता है।

रूस-यूक्रेन युद्ध संकट और खाद्य सुरक्षा की आगामी चुनौती पर मतभेदों के बावजूद क्वाड ने महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों जलवायु कार्रवाई व्यापार टिकाऊ बुनियादी ढांचे और महामारी के बाद की वसूली में अभिसरण पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया है। वास्तव में दुर्लभ खनिजों और उभरती प्रौद्योगिकियों के लिए मानक स्थापित करने जैसे क्षेत्रों में में कोई एक कार्य समूह ने पहले ही बहुत काम किया है। इनमें से कुछ देशों के चीन के साथ घनिष्ठ संबंध होने के कारण क्वार्ड इंडोपेसिफिक में कई देशों को प्रभावित नहीं कर पाया है लेकिन आज भी उनको एक मंच पर लाने के लिए कोशिश की जा रही है। अवैध रूप से मछली पकड़ने पर अंकुश लगाने जैसी पहल के जरिए उन्हें जोड़ने की कोशिश हो रही है। ज्ञात हो कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अक्टूबर 2021 में ही कहा था कि अमेरिका भागीदारों के साथ एक इंडोपेसिफिक आर्थिक ढांचे के विकास का पता लगाएगा जो व्यापार सुविधा, डिजिटल अर्थव्यवस्था और प्रौद्योगिकी के मान को आपूर्ति श्रृंखला की लचीलापन भी कार्बोनाइजेशन और स्वच्छ ऊर्जा बुनियादी ढांचे  को लेकर साझा उद्देश्यों को परिभाषित करेंगा।

टीपीपी से बाहर निकलने के बाद अमेरिका इस क्षेत्र में अपनी विश्वसनीयता हासिल करने की लगातार कोशिश कर रहा है। आईपीईएफ ऐसा ही एक जरिया है। इंडोपेसिफिक दुनिया की आधी आबादी और वैश्विक जीडीपी के 60 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र को कवर करता है लेकिन बाजार पहुंच की मुकम्मल व्यवस्था नहीं होने के कारण आईपीईएफ दक्षिण कोरिया फिलीपींस सिंगापुर जैसे देशों को इसके लिए अधिक उत्साहित नहीं कर सकता। इस बीच भारत ने घोषणा की है कि वह एक स्वतंत्र खुले और समावेशी हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए प्रतिबद्ध है। भारत का मानना है कि निरंतर विकास शांति और समृद्धि के लिए भागीदारों के बीच आर्थिक जुड़ाव का होना बहुत महत्वपूर्ण है। नई आर्थिक व्यवस्था की दिशा में इस प्रयास को खुली नियम आधारित भागीदारी के माध्यम से बेहतर आर्थिक विकास सुनिश्चित करना चाहिए। इस क्षेत्र में चीन के वाणिज्यिक दबदबे का एक विकल्प प्रदान करके या भारत के लिए नई भू राजनीतिक वास्तविकताओं का निर्माण करेगा। इसे अपनी क्षमताओं का निर्माण करने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अपनी साझेदारी को मजबूत करने और मूल निवासियों के लिए समृद्धि लाने के नए अवसर के रूप में लिया जाना चाहिए।

आरटीपीएस पारंपरिक मुक्त व्यापार सौदा नहीं है। इसके सभी सदस्य देशों का उद्देश्य उच्च मानक नियमों और मानकों को स्थापित करके नवाचार को बढ़ावा देना है, ताकि आर्थिक परिवर्तन लाया जा सके लेकिन इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत जैसे देश अमेरिका के उच्च मानकों से असहज हो सकते हैं और उनकी तकनीकी जोखिमों से बचना ही पसंद करेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि आईपीईएफ में रेखांकित कुछ क्षेत्र भारत के हितों की पूर्ति नहीं कर सकते हैं लेकिन भारत को चीन के मुकाबले लाभ उठाने के लिए इसका सकारात्मक उपयोग कर लाभ उठाने का लक्ष्य रखना चाहिए। अमेरिका और यूरोपीय संघ ने पहले ही आवश्यक आयात के लिए चीन पर अपनी निर्भरता कम करते हुए आपूर्ति श्रृंखला को जोखिम से मुक्त करना शुरू कर दिया है। भारत को भी कुछ प्रमुख मुद्दों पर कूटनीतिक तरीके से आगे बढ़ना होगा। उदाहरण के लिए भारत ने अब तक ई-कॉमर्स और डाटा स्थानीयकरण के लिए बहुपक्षीय नियमों पर बहस करने से इनकार कर दिया है। अमेरिका उन्हें आईपीईएफ के तहत संबोधित करना चाहता है लेकिन इससे इधर चीन का व्यापार पर हावी होना जारी है।

एक तथ्य यह भी है कि ठेठ अमेरिकी मतदाता अमेरिकी संकटों के लिए वैश्वीकरण को जिम्मेदार ठहराते हैं। इसलिए अमेरिका के लिए इच्छा को खुले तौर पर बढ़ावा देना मुश्किल होगा। अमेरिकी नौकरियों से समझौता नहीं किया जाना चाहिए। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अमेरिकी श्रम सुरक्षा और गैर टैरिफ बाधाएं आसानी से दूर नहीं हो सकती है। हमें अमेरिकी चेतावनी से सावधान रहना चाहिए जो किसी भी भारतीय के लाभ को कुंद कर सकती है। अभी यह भी देखा जाना बाकी है कि क्या अमेरिका वैश्विक लक्ष्यों को अपनी घरेलू राजनीति से ऊपर रखेगा। हालांकि आईपीईएफ को चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति के विकल्प के रूप में तैनात किया जा रहा है, लेकिन भारत सहित एशियाई देशों के लिए इसकी अपील विशाल अमेरिकी बाजारों में प्रवेश करने पर विवश हो सकती है कुछ नया और ठोस दिखाने के लिए कम से कम अभी 5 से 10 साल का समय देना होगा। ऐसे में सभी 13 भागीदारों को न केवल स्वतंत्र, खुले निष्पक्ष, समावेशी परस्पर जुड़े लचीला सुरक्षित और समृद्ध इंडोपेसिफिक के लिए प्रतिबद्धता का दावा करना चाहिए। बल्कि वास्तव में इसे कार्रवाई में बदलने के लिए एक ठोस तरीके से काम शुरू करना चाहिए। इसीलिए भारत के प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा है कि तीन टी (ट्रस्ट, ट्रांसपेरेंसी और टाइम) पर काम किया जाता है तो यह आईपीईएफ परियोजना की सफलता की कुंजी साबित होगी।

चीन की ओर से उभरे खतरों को केंद्र में रखकर क्वाड का गठन किया गया, लेकिन क्वाड को चीन विरोधी इकाई के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। आज भारत को राजनीतिक आर्थिक और सैन्य रूप से चीन का वास्तविक खतरा है। शायद इसीलिए भारत ने रणनीतिक रूप से अमेरिका के साथ गठबंधन करने का फैसला किया है। बावजूद भारत आईपीईएफ के लिए आगे बढ़ने से पहले अपनी चुनौतियों पर विचार कर सकता है। अमेरिका साझा लक्ष्यों पर जोर देता है जबकि भारत की राय है कि विकसित राष्ट्र अपने पिछले पापों के लिए पहले प्रायश्चित कर सकते हैं। कार्बन उत्सर्जन के मोर्चे पर भी भारत का यह मानना है कि  विकसित देशों के द्वारा फैलाए हुए जहरीले पर्यावरण का खामियाजा गरीब और अल्प विकसित तथा विकासशील देश उठाते रहे हैं। वैश्विक मंचों पर जब-जब इसके बारे में सवाल उठाया जाता है विकसित देश बड़े-बड़े वादे कर वाहवाही लूटते हैं लेकिन मंच से उतरने के बाद वह फिर विनाशकारी लाभ की अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं। आईपीईएफ एक अच्छी पहल है लेकिन पूर्व के अनुभव बताते हैं कि भारत जैसे देश को उनकी चालबाजियों से बचकर ही आगे बढ़ना चाहिए। यह भी सच है कि लगभग सभी वैश्विक और क्षेत्रीय पहलुओं की तरह आईपीईएफ भी एक राजनीतिक पहल है। भारत सहित सभी प्रतिभागी देशों को लचीलापन और समायोजन की भावना का प्रदर्शन करना चाहिए। भारत अगर इसमें आगे बढ़ता है तो उसके कई लाभ होंगे। अगर किसी कारण से भारत कदम पीछे हटाता है तो यह एक ऐसे आर्थिक मंच को खोने वाला होगा जहां से हम चीनी चुनौती का डटकर मुकाबला कर सकते थे। और साथ ही एक बेहतर आर्थिक समृद्धि का रास्ता भी तैयार कर सकते हैं। 

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