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मई दिवस/मजदूर दिवस: जस की तस है कामगारों की दशा

मजदूरों के लिए लोकतंत्र का राज और आजादी का अमृत महोत्सव होने का कोई मतलब नहीं है। वह आज भी उतने ही शोषित हैं जितना पहले के दौर में थे। आजादी के अमृत काल के दौरान केंद्र की सरकार द्वारा 80 करोड़ को लोगों को मुफ्त राशन उपलब्ध कराना इस बात की तस्दीक करता है। - शिवनंदन लाल

 

सन् 1886 में मजदूरों ने पहली दफा शिकागो शहर में रैली निकाली थी तो उनकी एक ही मांग थी कि हमारे काम के घंटे आठ होने चाहिए। तब पुलिस ने उनके ऊपर गोलियां चलाई, जिससे कई मजदूर शहीद हुए। अंततः उनकी बात मान ली गई। काम के घंटे आठ किए गए। उसी की याद में हम ’मई दिवस’ मनाते रहे हैं। बीते 137 सालों में दुनिया के साथ भारत में भी संगठित क्षेत्र के मजदूरों की सेवा शर्तों में काफी हद तक सुधार हुआ है, इससे मजदूरों की दशा-दिशा बदली है, बावजूद देश में मजदूरों के बड़े क्षेत्र असंगठित वर्ग के कामगारों की स्थिति निरंतर और अधिक बदतर और श्रम-साध्य होती गई है। सुधार की अनेक घोषणाओं के बावजूद असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को प्रतिदिन 12 से लेकर 16 घंटे तक काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। करोना कॉल के बाद इस तरह के व्यवहार में और वृद्धि हुई है।

हाल के वर्षों में देश की संसद ने तीन प्रमुख प्रमुख श्रम सुधार विधेयक इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड 2020, आक्यूपेशनल सेफ्टी हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन कोड 2020 और कोड आन सोशल सिक्योरिटी 2020 पारित कर कानून बनाया। कोविड-19 की चुनौतियों और भारत के लिए वैश्विक उद्योग कारोबार के बढ़ते मौकों को ध्यान में रखते हुए नए श्रम कानून को नियोक्ता, कर्मचारी तथा सरकार तीनों के लिए फायदेमंद माना गया। कहा गया कि इन कानूनों से श्रमिकों को बहुत सहूलियतें प्राप्त होंगी। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए अलग से फंड तैयार किया जाएगा। खतरनाक क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिकों को अनिवार्य रूप से कर्मचारी राज्य बीमा निगम की सुविधा दी जाएगी। सेल्फ एसेसमेंट के आधार पर श्रमिक अपना पंजीयन करा सकेंगे। घर से काम पर आने जाने के दौरान दुर्घटना होने पर कर्मचारी हर्जाना पाने का हकदार होगा। महिला श्रमिक अपनी इच्छा से रात की पाली में भी काम कर सकेंगे। सभी कामगारों को नियुक्ति पत्र दिया जाएगा तथा इनका हिसाब किताब रखने के लिए अलग से एक लेबर ब्यूरो बनाया जाएगा। उद्यमियों के लिए भी कई फायदे गिनाए गए। मसलन इंस्पेक्टर राज से मुक्ति दिलाने के साथ-साथ श्रम संहिताओं के तहत नियमों का अनुपालन नहीं करने को लेकर अधिकतम सजा सात साल को घटाकर तीन साल कर दिया गया।विभिन्न राज्य सरकारों के द्वारा कारखाने का लाइसेंस लेने की शर्तों में भी ढील दी गई। कारखाना अधिनियम 1948 और औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के अधिकांश प्रावधान लागू किए जाने में अत्यधिक रियायतें दी गई। उत्पादन बढ़ाने के लिए राज्यों ने उत्पादन इकाइयों में काम के घंटों को 8 से बढ़ाकर 12 कर दिया।

यानि मजदूर जहां से चले थे, कमोबेश फिर से वही आकर के खड़े हो गए हैं। शिकागो में जो सफलता मिली थी वह 137 साल के अंतराल पर फिर अपने पुराने मुकाम के करीब पहुंच गई। मजदूर एक बार फिर 12 से 16 घंटे काम करने जैसी गुलामी की स्थिति में फंस गया है। आज पूंजी की दुनिया ने पूरे विश्व को बाजार में बदल दिया है। हर चीज बिकने के लिए तैयार है। परंतु इसकी कीमत पूंजी के मालिक ही तय करेंगे। यहां तक कि भारत के किसान अपने खेतों में जो अन्य पैदा करेंगे वह भी किस भाव पर बिकेगा, यह महाजन ही तय करेगा और यह हो भी रहा है। जिन किसानों की पहुंच मंडियों तक नहीं है, उनके उत्पाद महाजनों के रहमोकरम पर है।

सन 1940 में संयुक्त राष्ट्र की तरफ से मानव अधिकारों पर सार्वभौम घोषणा पत्र जारी किया गया था। भारत भी उसका एक सदस्य है, जिस पर यह घोषणा पत्र बाध्यकारी है, जिसमें लिखा गया है कि मजदूरी इतनी होनी चाहिए कि जिससे मजदूर और उसके परिवार का भरण पोषण हो सके। उसी साल हमारे यहां न्यूनतम मजदूरी कानून बनाया गया था। समय-समय पर न्यूनतम मजदूरी का पैमाना बदलता और बढ़ता रहा है। वर्तमान में देश में न्यूनतम मजदूरी 350 रू. से लेकर 523 रू. तक कौशल के हिसाब से 4 कोटियों में अनुमन्य है। लेकिन इस कानून में सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें परिवार शब्द गायब है। संविधान के अनुच्छेद 43 जहां मजदूरी की बात आती है वहां पर भी परिवार नहीं है। चूंकि परिवार शब्द नहीं है इसका परिणाम यह हुआ कि मजदूरों के लिए जो भी मजदूरी तय की जाएगी, उसे तय करने के और सारे कारक हो सकते हैं, पर इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाएगा कि एक मजदूर को कम से कम इतनी कमाई होनी चाहिए कि वह अपने परिवार का भरण पोषण कर सकें। आज देश में असंगठित क्षेत्र के लगभग 12 करोड़ परिवार है। इनमें से ज्यादातर गांव में है जो इस असमानता के खिलाफ बेबस और लाचार हैं। सरकार के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के आंकड़ों के अनुसार असंगठित क्षेत्र के हर परिवार के दो लोगों को काम करना पड़ता है। सरकार एक आदमी की मजदूरी इतनी भी तय करने के लिए तैयार नहीं है कि एक आदमी कमाए और पूरा परिवार खाए जो कि मानवाधिकार के तहत अनिवार्य है। इसका मतलब यह है कि व्यावहारिक रूप में दिन-ब-दिन मजदूरी बढ़ने की बजाय घटती जा रही है और असमानता बढ़ती जा रही है। हालांकि संगठित क्षेत्र में मजदूरों को ज्यादा मजदूरी मिलने लगी है। लेकिन वहां अस्थाई नौकरिया घटने लगी है अधिकांश सरकारी संस्थानों में भी संविदा के आधार पर ठेके के लोग रखे जाने लगे हैं। वहां स्थाई कामगारों की तुलना में ठेके के कार्मिकों को बहुत कम सुविधाएं उपलब्ध होती है।

असंगठित क्षेत्र की बात करते हुए वर्तमान में सबसे प्रमुख मानदंड मनरेगा को कहा जा सकता है जिसके तहत काम करने वाले को मजदूरी के रूप में विभिन्न राज्यों में 210 रू. से लेकर 228 रू. रोज प्राप्त होता है। अर्जुन सेन गुप्ता समिति ने अपनी रपट में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए 49 रू. प्रतिदिन मजदूरी की सिफारिश की थी। मनरेगा के कानून में 60 रू. प्रति कार्य दिवस लिखा गया। व्यवहार में 100 रू. से शुरू किया गया था जो अब अलग- अलग राज्यों में 210 रू. से लेकर 228 रू. तक पहुंचा है। इसे देखकर कई बार आशंका पनपती है की साजिश के तहत पूजी निवेश के लिए पूंजी जुटाने का ही खेल है क्या? क्योंकि पूजी कुल मिलाकर दो तरह से जुटाई जा सकती है या तो टैक्स लेकर या फिर लोगों की मेहनत का मोल कम करके। भारी भरकम तनख्वाह पाने वाले संगठित क्षेत्र के लोगों की अक्सर शिकायत रहती है कि उनकी पगार का बड़ा हिस्सा सरकार टैक्स के रूप में ले लेती है। वह कहते हैं अच्छा होता कि सरकार टैक्स काट कर के ही उनकी पगार देती। यहां एक सवाल विचारणीय हो सकता है कि सरकार मजदूरों को संतोषजनक मजदूरी अदा करे और बाद में उन पर थोड़ा बहुत टैक्स लगाकर उन्हें राहत दे सकती है क्या। भारत जन आंदोलन के अध्यक्ष रहे डॉ ब्रह्मदेव शर्मा ने इस पर काम किया था तथा उनका आकलन था कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का शोषण आम बात है। उन्होंने अपने अध्ययन में यह अनुमान लगाया था कि लगभग एक करोड़ रुपए, प्रति गांव, प्रतिवर्ष, मजदूरों से शोषण हो रहा है।

देश में आजादी का अमृत काल चल रहा है। पिछले 75 साल से देश का मजदूर काम कर रहा है। विकास के लिए पूंजी जुटाने के खेल में मजदूरों का शोषण हो रहा है जिसका सबसे ज्यादा शिकार असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं। इस शोषण के साथ-साथ विकास का जो हमारा पूंजीवादी ढांचा है, उसमें मजदूरों की जरूरत भी धीरे-धीरे खत्म हो रही है। आज अधिकांश काम मशीन से किया जाने लगा है ऐसे में मजदूरों के लिए पारंपरिक कृषि क्षेत्र ही एकमात्र जगह बचती है जहां से वह आजीविका कमा सकता है। मगर इसमें भी साजिश है। अगर हम मनरेगा के तहत दी जा रही मजदूरी की तुलना करें तो किसान इस स्थिति में नहीं है कि वह उसके बराबर भी मजदूरी देकर अपने खेतों में काम करा सके। क्योंकि खेती से उसके पास इतनी बचत नहीं है कि वह दे सकें। यही कारण है कि अधिकांश किसान खेती से भी भागने लगे हैं।

देश के लगभग 40 करोड मजदूरों में 95 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र के हैं। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए न तो काम के घंटे निर्धारित है और ना ही कोई वेतन आयोग है। उनके लिए न तो काम की निश्चिता है और ना ही भविष्य निधि पेंशन की कोई व्यवस्था उनके लिए न कोई नियम कानून है नहीं सामाजिक सुरक्षा और नहीं काम करने का कोई सही माहौल। उनके हित के लिए बने किसी भी सरकारी कानून को ठीक से लागू नहीं किया जाता। मजदूर के खिलाफ समूचे देश में एक तरह से शोषण का साम्राज्य कायम है। उनके लिए लोकतंत्र का राज और आजादी का अमृत महोत्सव होने का कोई मतलब नहीं है। वह आज भी उतने ही शोषित हैं जितना पहले के दौर में थे। आजादी के अमृत काल के दौरान केंद्र की सरकार द्वारा 80 करोड़ को लोगों को मुफ्त राशन उपलब्ध कराना इस बात की तस्दीक करता है। 

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