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डरा रहा है सरसों का नया अवतार

‘हमारा देश प्राचीन काल से ही पारंपरिक खेती का देश रहा है। वर्तमान सरकार ऑर्गेनिक खेती पर जोर दे रही है। ऐसे में विदेशी कंपनियों के इशारे पर इस तरह की जहरीली खेती के लिए जगह बनाना, किसी रहस्य से कम नहीं है। — अनिल तिवारी

 

जीएम सरसों को लेकर एक तरफ सेहत संबंधित चिंता है तो दूसरी और इसके पक्ष और विपक्ष में लाबिंग भी है, जो बाजार पर कब्जा करने के लिए लगातार की जा रही है। भारत के लिए यह कोई नया बवाल नहीं है। पहले भी बीटी कॉटन और बीटी बैगन को लेकर पक्ष-विपक्ष की भिड़ंत हो चुकी है। स्वदेशी जागरण मंच सरीखे संगठनों के पुरजोर विरोध के कारण हर बार सरकारों को अपने पैर खींचने पड़े। केंद्र सरकार के नियामक ने एक बार फिर सरसों के प्राचीन पारंपरिक उत्पादक देश में विकसित जेनेटिकली मॉडिफाइड यानी जीएम बीजों के फील्ड ट्रायल को मंजूरी दी है। सरसों के जिस किस्म के फील्ड ट्रायल को मंजूरी दी गई है उसे वरुण नाम की पारंपरिक सरसों की प्रजाति और यूरोप की एक प्रजाति के साथ क्रास करके बनाया गया है। दावा किया जा रहा है कि इससे सरसों के उत्पादन में भारी वृद्धि होगी। कृषि, जलवायु और पर्यावरण से जुड़े विशेषज्ञों की आपत्ति और कई जन संगठनों के भारी विरोध के बीच यह मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा है, जहां उच्चतम न्यायालय ने जन भावनाओं का ख्याल करते हुए इसके आगे बढ़ने पर रोक लगा रखी है।

देश दुनिया की आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उसकी तुलना में हमारा कृषि उत्पादन लगातार घट रहा है। कई एक कृषि वैज्ञानिक आने वाले दिनों में खाद्यान्न संकट की आशंकाओं को देखते हुए कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए पारंपरिक फसलों की जगह जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों की खेती पर जोर दे रहे हैं। ऐसे वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्पादन बढ़ाने के लिए हाल फिलहाल इसके अलावा और कोई दूसरा चारा नहीं है। लेकिन ठीक इसके उलट हरित क्रांति के जनक डॉक्टर एम.एस. स्वामीनाथन लगातार यह कहते रहे हैं कि जीएम फसलों को मंजूरी देने से हमें बचना होगा। डॉ. वंदना शिवा जैसे कई पर्यावरणविदों ने कहा है कि इस तरह के मामलों के निर्णय भावनात्मक नहीं बल्कि तर्कपूर्ण विवेचना के साथ होने चाहिए, क्योंकि भोजन, आजादी और न्याय का भी मसला होता है।

‘स्वदेशी पत्रिका’ अपने पाठकों के लिए इस मसले से जुड़े प्रमुख बिंदुओं को लेकर विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों से बातचीत कर यह जानने की कोशिश की है कि यह मसला कितना जरूरी है और कितना गैरजरूरी है? दरअसल यह राहत है या आफत?

जीएम फसलें क्या होती हैं और इसे कैसे तैयार किया जाता है?

डॉ. आलोक दत्त ने बताया कि जीएम फसल का मतलब होता है वैसी फसल जिसे वैज्ञानिक मूल फसल के डीएनए में थोड़ा बहुत बदलाव करने के बाद तैयार करते हैं। इसके जरिए फसल में कीटनाशकों से लड़ने की क्षमता विकसित की जाती है। अब तक वैज्ञानिकों ने सोयाबीन, मक्का, कपास, चुकंदर, चावल, आलू, टमाटर, मूंगफली, सरसों, पत्ता गोभी, फूल गोभी, मटर, भिंडी, गेहूं, बासमती चावल, सेव, केला, पपीता, प्याज, तरबूज, अदरक जैसी फसलों के साथ इस इंजीनियरिंग का इस्तेमाल किया गया है। उन्होंने बताया कि किसी भी जीव की पहचान उसके डीएनए से होती है। डीएम ने एक लंबा और दोहरे स्तर वाला कण होता है, जो अलग-अलग जिलों में अपने खास ऑर्डर से सजा होता है। डीएनए की सिग्मेंट को जींस भी कहते हैं, जो शरीर में अलग-अलग रासायनिक प्रक्रिया में भाग लेते हैं। वैज्ञानिक पता लगाते हैं कि किस जींस का क्या काम होता है, इसके आधार पर फसल को जेनेटिक मॉडिफाई किया जाता है।

जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलें देश के लिए इस लिहाज से महत्वपूर्ण है क्योंकि इनसे दुनिया में तकरीबन एक अरब की आबादी का पेट भरता है? इस सवाल का जवाब देते हुए देश के कृषि के जानकार शिवनंदनलाल ने कहा कि विश्व में कोई भी ऐसा जीएम खाद्यान्न नहीं है जो उत्पादन क्षमता को बढ़ाता है। वास्तव में हमारी ज्यादातर जीएम फसलें उत्पादन क्षमता को कम करती हैं। अमेरिकी कृषि विभाग भी स्वीकार करता है कि जीएम कॉटन यानी मक्का और सोया की उत्पादकता सामान्य प्रजाति से भी कम है। दुनिया में खाद्यान्न की कमी नहीं है। समूची धरती पर लगभग 7.5 अरब लोग रहते हैं जबकि हम इतना अनाज पैदा कर लेते हैं कि उससे 12 अरब लोगों का पेट भर सकते हैं। यदि दुनिया की एक अरब से ज्यादा आबादी भूखी सोती है तो इसकी वजह खाद्यान्न की कमी नहीं, बल्कि इनका बेतरतीब वितरण है। लगभग यही स्थिति भारत में भी है। जहां की कुल जनसंख्या की एक-तिहाई आबादी बाजार में उपलब्ध होने पर भी अनाज खरीद नहीं पाती। यहां तक कि हमारे यहां की 80 करोड़ गरीब जनता सस्ते गल्ले की दुकान से भी राशन नहीं खरीद पाती। कोरोना काल में इन्हें मुफ्त राशन देना पड़ा था। सवाल उत्पादन का नहीं, सवाल उसकी अधिकता और वितरण का ज्यादा है।

जीएम फसलें किसानों पर कैसा विपरीत असर डालती हैं?

इस सवाल के जवाब में पूसा इंस्टिट्यूट के कृषि विज्ञानी डॉ एस.आर. सिंह ने कहा कि जैविक रूप से उत्पादित खाद्यान्न से भारी मात्रा में कचरा पैदा होता है, जिसे किसी रसायन से काबू में नहीं लाया जा सकता। गौरतलब है कि अमेरिका के जार्जिया सीमांत क्षेत्र में बड़ी तेजी से बंजर होने लगी थी। इसके पीछे रासायनिक कचरे को ही जिम्मेदार ठहराया गया था। दुनिया के करीब 26 देशों की जमीन इसी तरह से जीएम फसलों के कारण बंजर होने के कगार पर पहुंच गई हैं। जीएम उत्पाद के बारे में माना जाता है कि इससे हमारे देश में पाए जाने वाले खाद्यानों की विविधता भी खत्म हो जाएगी। वैसे भी भारत सरसों का पुराना और पारंपरिक उत्पादक देश रहा है। इस लिहाज से भी भारत को सरसों उत्पाद को लेकर ज्यादा सजग और सतर्क रहना ही होगा।

अमेरिका की ही बात करें तो खुद वहां इस तरह की फसलों के उत्पादन की मनाही है। इतना ही नहीं अन्य देशों में भी इस तरह के उत्पादन पर लगभग रोक है। इस बाबत कई रिपोर्ट सामने आ चुकी है। ऐसे में लोग सवाल कर रहे हैं कि जब खाद्यान्न इंसानों के लिए सुरक्षित है तो फिर क्या वजह है कि लोग ऐसे प्रदर्शन कर रहे हैं। दरअसल दुनिया भर में इस बाबत हुए रिसर्च दर्शाते हैं कि जीएम सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। यहां तक कि मोनसेंटो कंपनी ने खुद यूरोप में चूहों पर किए गए अपने अध्ययनों में पाया कि उनके शरीर में कई अंग मसलन किडनी, लीवर, पाचन तंत्र, खून आदि में गंभीर जटिलताएं पाई गई। इतना ही नहीं उनमें एलर्जी की भी शिकायतें देखी गई। एक अध्ययन में यह भी पाया गया कि जीएम खाद्यान्नों से प्रजनन क्षमता पर भी खासा असर पड़ा।

जहरीले रासायनिक पदार्थों के बल पर तैयार होने वाली इन जीएम फसलों से न तो भूमि का भला हो सकता है और न ही इन खाद्यान्नों को खाने वाले मनुष्यों का। इन फसलों से पैदा होने वाले खाद्यान्नों को खाकर इंसान की क्या दशा होगी इसकी कल्पना की जा सकती है।

नैनी एग्रीकल्चर इन्स्टीटयूट के अध्यापक डॉ. आर.पी. सिंह का कहना है कि बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां पूरी दुनिया की खाद्य सुरक्षा को अपने मुट्ठी में करना चाहती हैं। वह हर हाल में अपना साम्राज्य बढ़ाना चाहती हैं और इसके लिए वह हर तरह की तरकीब भी अपना सकती हैं। पूर्व में जिस तरह बीटी बैंगन को लेकर इन कंपनियों ने दबाव  बनाया था, लग रहा था कि पूरा का पूरा देश मल्टीनेशनल कंपनियों के हाथ में है। जीएम सरसों का मामला भी उससे अलग नहीं है। सारी मल्टीनेशनल कंपनियां आपस में मिली हुई है और हर हाल में उनकी नजर आम किसानों की जेब पर है। 

हमारा देश प्राचीन काल से ही पारंपरिक खेती का देश रहा है। वर्तमान सरकार ऑर्गेनिक खेती पर जोर दे रही है। ऐसे में विदेशी कंपनियों के इशारे पर इस तरह की जहरीली खेती के लिए जगह बनाना, किसी रहस्य से कम नहीं है।

जीएम सरसों के मसले को जनहित याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय तक ले जाने वाली पर्यावरणविद अरुणा रोड्रिग्स का कहना है कि सरकार एक तरफ तो ऑर्गेनिक फार्मिंग की बात करती है, तो दूसरी तरफ इस प्रकार की नीतियां लाकर खेती में रसायनों के प्रभाव को बढ़ाती हैं। हमारे देश में कृषि कार्य में महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग सभी जुड़े हुए रसायनों के प्रयोग से कृषि कार्य में लगे लोगों की सेहत खराब हो सकती है। अगर इसको नहीं रोका गया तो यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारी खेती दिन प्रतिदिन और जहरीली होती जाएगी। मस्टर्ड बहुत छोटा बीज होता है। इसलिए इसके खराब या बर्बाद होने की आशंका ज्यादा रहती है लेकिन ज्यादा जरूरी यह है कि हम अन्य देशों के अनुभव से सबक लें। कनाडा में 90 फ़ीसदी किसानों की गेहूं की खेती बर्बाद हो गई। अमेरिका में भी परिणाम अच्छे नहीं रहे, तो भारत में अच्छे परिणाम कैसे हो सकते हैं? दबे पांव भारतीय बाजार में ग्लाइफोसेट ने जो जगह बना ली है, उससे होने वाले नुकसानों को तो हम संभाल नहीं पा रहे हैं, इससे निपटना और मुश्किल हो जायेगा।

आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ प्रो. अश्वनी महाजन का कहना है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मायाजाल बढ़ता ही जा रहा है। हालिया विकसित किए गए डीएमएच-11 को स्वदेशी कह कर भ्रम फैलाया जा रहा है। अगर इस जीएम फसल की मंजूरी सरकार द्वारा दी जाती है तो वह भविष्य के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। देश में जीएम सरसों की व्यवसायिक खेती से सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनी बायर को फायदा होगा, क्योंकि जीएम सरसों की फसल को कीटनाशकों और खरपतवार से बचाने के लिए सिर्फ बायर कंपनी के कीटनाशक ही कारगर होंगे। जीएम फसलों पर सामान्य फसलों से कई गुना ज्यादा कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है। पहले ही फसलों में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों के प्रयोग से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियां बढ़ी है। जीएम सरसों से बने खाद्य तेलों या सरसों के साग के साथ कीटनाशक के रूप में हम जहर खाने को मजबूर हो जाएंगे। 

डॉ. महाजन ने कहा कि हमारे देश में सरसों की अन्य किस्में हैं जो जीएम सरसों की तुलना में ज्यादा उत्पादन दे सकती हैं। यही कारण है कि भारत अभी कुछ साल पहले तक खाद्य तेल के मामले में आत्मनिर्भर देश था। आज हम 60 प्रतिशत से ज्यादा खाद्य तेल आयात करने लगे हैं। देश में तिलहन उत्पादन किसानों के लिए फायदेमंद नहीं रह गया है। यह सब अनायास हुआ या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के धोखे में। यह समय ऐसे सवालों का जवाब तलाशने का है, न कि भारत की भूमि पर जीएम फसलों का बोझ लादने का। भारत में जीएम सरसों की अनुमति देने से खाद्य तेल का आयात तो नहीं घटेगा, लेकिन हर तरह के खाद्यान्नों का निर्यात जरूर कम हो जाएगा।  

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