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नारी शक्ति वंदन अधिनियम

अंततः महिला आरक्षण बिल जिसे ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ का नाम दिया गया है संसद के दोनों सदनों में भारी बहुमत से पास कर दिया गया। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद यह अधिनियम अब कानून का रूप ले लिया है, लेकिन यह देखना अभी बाकी है कि राजनीतिक दलों का ध्यान महिला सषक्तिकरण पर होता है अथवा इस विधेयक को आगे भी राजनीतिक उपकरण के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता है। - डॉ. जया कक्कड़

 

नारी शक्ति वंदन अधिनियम भारत के संसदीय इतिहास में सर्वसम्मति का एक अद्भुत सिद्ध विनायक क्षण है, जिसका श्रीगणेष नए संसद भवन से हुआ है। देष की लगभग आधी आबादी को विधायिका में 33 प्रतिषत हिस्सेदारी पर आम राय से मोहर लग गई। 33 प्रतिशत सीटों के आरक्षण का प्रावधान करने वाला 128वां संषोधन विधायक तभी प्रभावी होगा जब परिसीमन प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। इसका मतलब यह की आरक्षण कम से कम 2019 के चुनाव तक लागू नहीं होगा। एक बार लागू होने के बाद यह 15 वर्षों तक प्रभावी रहेगा, हालांकि संसद इसकी अवधि बढ़ा सकती है।

महिला आरक्षण की पृष्ठभूमि देखें तो इसके लंबे सफर में काफी अवरोध रहे हैं। देष में राजनीतिक समानता का विचार शाह बेगम और सरोजिनी नायडू ने 1931 में ही ब्रिटिष प्रधानमंत्री के समक्ष उठाया था। आजादी के बाद वर्ष 1974 में संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा भारत में महिलाओं की स्थिति के आकलन संबंधी समिति के रिपोर्ट के आधार पर उठाया गया था। राजनीति की इकाइयों में महिलाओं की स्थिति के आकलन संबंधी रिपोर्ट के साथ ही आरक्षण के विचार का बीजारोपण किया। कई एक राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करना शुरू कर दिया। फिर मारगेट अल्वा समिति ने 1988 में सिफारिष की कि निर्वाचित निकायों में महिलाओं के लिए सीटें अवष्य आरक्षित की जाए। नरसिम्हा राव सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं में 33 प्रतिशत  सीटें आरक्षित करने के लिए वर्ष 1992 में संविधान में संषोधन किया। पहली बार देवगौड़ा सरकार ने यह प्रस्ताव रखा की लोकसभा और राज्य विधानसभा की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की जाए। बाद में गुजराल सरकार, वाजपेई सरकार और यूपीए सरकार ने इस विधेयक को पारित करने की कोषिष की, हालांकि कड़े विरोध के कारण विरोध पारित नहीं हो सका। सदन में अधिकांष पुरुष राज नेताओं ने शुरुआती दिनों से ही इसका विरोध किया है। यह सुझाव दिया गया था कि विधेयक केवल अधिक योग्य ग्रामीण गरीब महिलाओं की जगह शहरी षिक्षित महिलाओं को लाभान्वित करेगा, जिन्हें वास्तव में इस तरह के आरक्षण के माध्यम से सषक्तिकरण की कोई आवष्यकता ही नहीं है।

अब केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के नेतृत्व में विषेष सत्र के दौरान यह विधेयक पारित किया गया है, इस विधेयक का दायरा व्यापक है।

हमारे संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक न्याय एवं अवसर की समानता की बात कही गई है ताकि राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को खत्म करने के लिए उचित उपाय किए जा सके। लेकिन आजादी के बाद से ही स्वार्थ पूर्ण तरीके से महिलाओं को लेकर राजनीतिक लामबंदी की जाती रही है। ऐसे में इस विधेयक का लाभ महिलाओं के भीतर वास्तविक सषक्तिकरण के जरिए ही मिल सकता है। इसके लिए जरूरी है कि महिलाओं को राजनीति के साथ-साथ जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी पर्याप्त भागीदारी देकर उन्हें आगे बढ़ाया जाए अन्यथा यह विधेयक भी समय के साथ एससी एसटी वर्ग के लिए आरक्षण प्रावधानों की तरह ही केवल कोरम पूरा करने जैसा हो जाएगा। सर्वसम्मति से पारित इस विधेयक को अमली जामा पहनाने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ ठोस दिषा में काम करना होगा नहीं तो यही संदेष जाएगा कि वैश्विक सूचकांकों के मोर्चे पर भारत की रैंकिंग को बेहतर दिखाने के लिए यह एक दिखावटी प्रयास किया गया है। इसके लिए जरूरी है कि महिला आरक्षण कानून का उपयोग वोट आकर्षित करने वाले कदम के रूप में कतई ना किया जाए। क्योंकि अधिनियम पारित करने के पीछे वास्तविक उद्देष्य यह सुनिष्चित करना है कि आरक्षण के माध्यम से कानून निर्माता कार्यपालिका और समाज बड़े पैमाने पर सक्षम वातावरण तैयार करें जिसमें महिलाएं षिक्षा रोजगार स्वास्थ्य और पोषण तक अपनी पहुंच के माध्यम से बेहतर और अधिक पूर्ण जीवन प्राप्त कर सकें। इससे यह सुनिष्चित होगा कि भारत की आधी आबादी अपनी पूरी क्षमता का एहसास करेगी और भारत को एक समृद्ध देष बनाने में अपना योगदान देगी।

इसमें कोई दो राय नहीं कि महिलाएं एकजुट होती हैं तो कठिन से कठिन कार्य आसान कर देती हैं। वर्ष 2013 में महिला सांसदों ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर बलात्कार और कार्यस्थल पर उत्पीड़न कानून को और अधिक कठोर बनना सुनिष्चित किया था।

अभी देष में महिला विधायकों की संख्या कम है। वर्ष 2014 में महिला सांसदों की हिस्सेदारी 8 प्रतिशत थी जो वर्ष 2019 में बढ़कर 15 प्रतिशत हो गई है लेकिन यह 33 प्रतिशत से बहुत कम है। राज्यों और केंद्र शासित प्रदेषों में और खराब स्थिति है। आष्चर्यजनक है कि मातृ सत्तात्मक समाज के रूप में प्रचलित पूर्वोत्तर और केरल में यह प्रतिषत शून्य से 9 प्रतिषत के बीच में है। आज लोकसभा में 15 प्रतिशत और राज्यसभा में 14 प्रतिशत सदस्य महिलाएं हैं इसकी तुलना में दक्षिण अफ्रीका के निचले सदन में 45 प्रतिषत और चीन के एकल सदन में 27 प्रतिषत महिलाएं हैं।

योग्य भारतीय महिलाओं को मतदान का अधिकार देने के मामले में भारत कई उन्नत देषों से भी आगे निकल चुका है, लेकिन यह पर्याप्त महिला मुक्ति में अभी तक तब्दील नहीं हुआ है। महिलाओं को राजनीतिक और आर्थिक रूप से सषक्त बनाने की चुनौती अभी भी विकट बनी हुई है। महिला श्रम भागीदारी के मोर्चे पर भी भारत की स्थिति दयनीय है। वर्ष 2021 में प्राप्त एक आंकड़े के मुताबिक भारत में 42 प्रतिशत महिलाओं के पास घर नहीं है वहीं 32 प्रतिशत महिलाओं के पास कोई जमीन नहीं है। दुनिया के अन्य देषों के मुकाबले भारत की महिलाओं को अपने जीवन काल में अधिक हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। राष्ट्रीय महिला आयोग के एक दस्तावेज में बताया गया है कि वर्ष 2022 में 30257 महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न के मामले प्रकाष में आए। पंचायत में भी महिलाओं की वास्तविक भागीदारी निराषाजनक है। प्रधान पति का चलन अब भी बदस्तूर जारी है। वैश्विक स्तर पर विश्व के विभिन्न देषों में महिला प्रतिनिधित्व की बात करें तो जिनेवा स्थित इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन की रिपोर्ट के मुताबिक रवांडा पहले, क्यूबा दूसरे और बोलिविया तीसरे स्थान पर है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया आज की उन्नत अर्थव्यवस्था में जहां या तो संसदीय कोटा अनिवार्य नहीं है या स्वैच्छिक  प्रावधान है वहां लैंगिक समानता का रिकॉर्ड भारत की तुलना में बेहतर ही है।

यह स्थापित सत्य जैसा है कि जिन सरकारों में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है वहां भ्रष्टाचार कम होता है भारत में भी ऐसी महिलाओं के उदाहरण हैं जिन्होंने अवसर मिलने पर राजनीति में न केवल पहचान बनाई बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति अर्जित की है। यह विधेयक देष के विकास में बराबरी का संकल्प जैसा है। इस विधेयक के माध्यम से हमारा लोकतंत्र और मजबूत होगा। दषकों से फाइलों में दबे इस विधेयक के लागू होने से लैंगिक समानता, सामाजिक समावेषन और सामाजिक विकास को बढ़ावा देने वाली नीतियों को पंख लगेंगे।

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