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राष्ट्रीय हित बनाम कारपोरेट स्वायत्तता

मूल सवाल यह है कि कारपोरेट राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति असंवेदनशील कैसे रह सकते हैं? कारपोरेट स्वायत्तता को राष्ट्रीय हित से ऊपर नहीं माना जा सकता है। — केके श्रीवास्तव

 

तुर्की के नागरिक इल्कर आयसी के टाटा ग्रुप की कंपनी एयर इंडिया का सीईओ और एमडी बनने से इनकार के बाद उनकी नियुक्ति को लेकर उठा तूफान थम तो गया है किंतु राष्ट्रीय हित के बरक्श कारपोरेट स्वायत्तता की आंख मिचैली कठघरे में है। मूल सवाल है कि कारपोरेट राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति असंवेदनशील कैसे रह सकते हैं?

मालूम हो कि टाटा सन्स की ओर से इल्कर आयसी को एयर इंडिया का नया सीईओ और एमडी नियुक्त किया गया था। टाटा सन्स की ओर से जारी एक पत्र में कहा गया कि एयर इंडिया बोर्ड की बैठक के दौरान आयसी के नाम की मंजूरी दी गई है, उन्हें 1 अप्रैल 2022 से पदभार ग्रहण करना है। इस घोषणा के बाद से ही आयसी की नियुक्ति पर उंगलियां उठने लगी थी। स्वदेशी जागरण मंच सरीखे संगठन तथा भारतीय आर्थिकी के जानकार इसे राष्ट्रीय हित की कसौटी पर कसने लगे थे। बताते हैं कि इन्हीं सब कारणों से तुर्की एयरलाइंस के पूर्व चेयरमैन आयसी ने टाटा ग्रुप की कंपनी की ओर से प्राप्त प्रस्ताव ठुकरा दिया है। उनके इनकार के बाद एक तरह से मामले का पटाक्षेप हो जाता है किंतु यह सवाल लाजमी तौर पर अभी खड़ा है कि आयसी जैसे व्यक्ति को एयर इंडिया की जिम्मेदारी सौंपना क्या सही है?

दरअसल इसे लेकर हम बहुत निश्चित नहीं है और शायद भारत सरकार भी नहीं है। वैसे भी एक देश के रूप में तुर्की की पहचान भारत के हितैषी देश के रूप में नहीं रही है। तुर्की के राष्ट्रपति ने भारत विरोधी कदम बार-बार उठाया है। यहां तक की कश्मीर नीति पर भी तुर्की, पाकिस्तान का समर्थन करता रहा है। टाटा ग्रुप द्वारा सीईओ के लिए प्रस्तावित आयसी के तुर्की राष्ट्रपति के साथ मधुर संबंध जगजाहिर है। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन खुद को बड़ा इस्लामिक बताते हुए पाकिस्तान के साथ नजदीकी रिश्ता रखते रहे हैं। तुर्की एयरलाइंस के क्षेत्र में एक लाभकारी कंपनी मानी जाती है। आयसी के नेतृत्व में तुर्की एयरलाइंस ने पूर्व में लाभ कमाया है। चूंकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तुर्की राष्ट्रपति के बीच उत्साहजनक रिश्ते कभी नहीं रहे, संभव है इसी कारण तुर्की एयरलाइंस भारत में अपना पैर नहीं जमा सकी। भारत को दुनिया एक बड़े बाजार के रूप में देखती है, ऐसे में तुर्की राष्ट्रपति के 30 वर्षों से अधिक समय से विश्वासपात्र आयसी को व्यापक हित को आगे रखकर एयर इंडिया का सर्वेसर्वा बनाया जाना व्यापारिक तौर पर जायज हो सकता है किंतु भारत की संप्रभुता, भारत के राष्ट्रीय हित जो कि विमानन क्षेत्र के व्यवसाय से सीधे-सीधे और गहराई से जुड़ा हुआ है, इसलिए इस पर फूंक-फूंक कर कदम उठाने की जरूरत है। चूंकि मौजूदा मामला व्यवसाय से संबंधित होने के बावजूद राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ा है इसलिए ऐसे किसी भी उम्मीदवारी को गहन जांच के दायरे में रखा जाना चाहिए।

इसमें कोई दो राय नहीं कि कोविड की महामारी के बाद दुनिया भर में कई एक वाहक कंपनियां दिवालिया होने के जोखिम का सामना कर रही है। हालांकि एयर इंडिया बहुत पहले से एक बीमारू उपक्रम घोषित थी तथा सरकारी समर्थन से सांस ले रही थी। एक अनुमान के मुताबिक कोरोना से उबरने के बाद विमानन क्षेत्र में 227 बिलियन वैश्विक यात्री राजस्व का अनुमान किया गया है। इससे आशा जगी है कि प्रतिबंधों के हटने के बाद मांग में सुधार होगा तथा व्यापार बढ़ेगा। कारपोरेट हस्तियां भी अपने-अपने तीर-तरकस लेकर मैदान मारने की दौड़ में है।

भारत में टाटा समूह ने बीते जनवरी महीने में एयर इंडिया का अधिग्रहण कर लिया। लंबे समय से घाटे में चल रही विमानन कंपनी के लिए सब कुछ आसान नहीं है। जिस आसमान में यह उद्योग संचालित होता है वहां का चाल चलन भी काफी बदल गया है। कम लागत वाली उड़ानों का दौर है। लगभग 80 प्रतिशत बाजार पर कम लागत वाली उड़ानों का कब्जा है। इस मामले में टाटा समूह का पूर्ण सेवा उद्यम विशेष रूप से विस्तारा का उल्लेख समीचीन है, जिसमें एएसआई से कम भागीदार नहीं है, ने पैर जमाने के लिए काफी संघर्ष किया है। एयर इंडिया के साथ अब इनकी संयुक्त घरेलू बाजार हिस्सेदारी 20 प्रतिशत से अधिक है। लेकिन एयर एशिया पहले से संकट में है और टाटा द्वारा अधिग्रहित एयर इंडिया पर भी संकट है। ऐसे में टाटा समूह को इसे अनुकूलित करने और वहां से रिटर्न देने की आवश्यकता है ताकि व्यवहारिकता और लाभप्रदता सुनिश्चित की जा सके।

वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई चुनौतियां हैं। वाणिज्यिक उड़ानों के संचालन पर कोविड के कारण प्रतिबंध है। एयर इंडिया द्वारा संचालित उड़ानों में भी भारी कटौती की गई है। एयर इंडिया की समकक्ष देशों के साथ भी सीमित द्विपक्षीय व्यवस्था है। अतिरिक्त कर्मचारी, पुराने विमान, कर्मचारियों की सरकारी संस्कृति आदि दुर्जेय चुनौतियों की अंतहीन सूची है।

वाॅरेन बफेट की एक प्रसिद्ध उक्ति है कि प्रतिष्ठा बनाने में 20 वर्ष लगते हैं जबकि इसे बर्बाद करने में 5 मिनट लगते हैं, परंतु एक ब्रांड के रूप में एयर इंडिया का मामला एक उत्कृष्ट मामला है। इससे इत्मीनान से खराब करने में दशकांे का समय लगाया गया है। इसे धीरे-धीरे खोखला किया गया है। हालांकि भारत में माल्या, सुब्रतो राय जैसे अनेकों बिजनेस टाइकून है जिनके उत्थान-पतन की अपनी-अपनी गाथाएं हैं लेकिन एयर इंडिया के पतन की कथा किसी फिल्मी परिदृश्य से कम नहीं है। ज्ञात हो कि कुछ ऐसी ही पृष्ठभूमि के चलते टाटा ने आयसी को सीईओ के रूप में नियुक्त करने का फैसला किया था। आयसी के पास राज्य द्वारा संचालित तुर्की एयरलाइंस चलाने का 7 साल का शानदार रिकॉर्ड है। तुर्की एयरलाइन ने अंतरराष्ट्रीय गंतव्यों को तेजी से जोड़ा और लाभ अर्जित किया। एयर इंडिया भारी-भरकम संसाधन होने के बावजूद आगे नहीं बढ़ सका। एयर इंडिया अपने बेड़े, पार्किंग स्लाॅट और द्विपक्षीय अधिकारों को देखते हुए लाभप्रद रूप से अंतरराष्ट्रीयकरण करने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में था लेकिन 2008-09 से 2019-20 के बीच इसके राजस्व में केवल 8 प्रतिशत की वृद्धि और अंतरराष्ट्रीय खंड पर मात्र 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी स्थिर रही, वहीं तुर्की के राजस्व में प्रतिवर्ष औसतन 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई और अंतरराष्ट्रीय खंड का योगदान 90 प्रतिशत तक बढ़ गया। तुर्की ने हब और स्पाॅट मॉडल को अपनाया। यात्रियों को पहले इस्तांबुल लाया और फिर उन्हें गंतव्य तक पहुंचाया। 2021 की तीसरी तिमाही में 722 मिलियन डालर का मुनाफा तय किया। जबकि इसी दौरान एयर इंडिया को 7983 करोड रुपए का नुकसान हुआ।

एयर इंडिया के पास प्रशिक्षित पायलट दल है, बड़ी विमानन संपत्ति है लेकिन लचर प्रबंधन के कारण अलाभप्रद है। संभव है टाटा समूह ने प्रबंधन को चाक-चैबंद करने के लिए व्यापारिक रूप से सफल आयसी का चयन किया हो लेकिन उनकी नियुक्ति के पहले देश के लिए जरूरी चीजों को देखा जाना चाहिए था। जहां तक विकल्प की बात है तो एगाॅन जहिंदर जैसी मशहूर भर्ती फर्म ने दुनिया की 5 शीर्ष एयरलाइनों के 5 पेशेवरों को शार्कलिस्ट किया था, उनमें से किसी एक को विकल्प के रूप में तब तक आजमाया जा सकता था जब तक कि आयसी जैसे उम्मीदवार, उम्मीदवारी की जांच के दायरे में रख गहन जांच की जा सके।

अब परिदृश्य बदल गया है जब से इल्कर आयसी इस दौड़ से बाहर हो गए हैं इस अध्याय को बंद माना जा सकता है। हालांकि मूल सवाल यह है कि कारपोरेट राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति असंवेदनशील कैसे रह सकते हैं? कारपोरेट स्वायत्तता को राष्ट्रीय हित से ऊपर नहीं माना जा सकता है।

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