swadeshi jagran manch logo

भूमि सुपोषण की आवश्यकता एवं उपाय 

रसायनों से मिट्टी के स्वास्थ्य को होने वाले नुकसानों में खारापन (क्षारीयता), अम्लीयता, रसायनों के कारण मिट्टी में आने वाली विषाक्तता और पोषक व जैविक तत्वों में गिरावट और अन्य पोषण संबंधी नुकसान प्रमुख हैं। — प्रोफेसर भगवती प्रकाश शर्मा, सुश्री कृति शर्मा व डा. जया शर्मा

 

भारत में भू अवनति की वर्तमान स्थिति

भारत में मरूस्थलीकरण व भूमि की बंजरता एक प्रमुख समस्या बनती जा रही है, जिससे लगभग 30 प्रतिशत भूमि का बंजर होना एवं मरूस्थल में बदल जाना या अन्य प्रकार से मृदा हृस एक गम्भीर समस्या है। उल्लेखनीय है कि इसमें से 82 प्रतिषत हिस्सा कुछ राज्यों में जैसे- राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू एवं कष्मीर, कर्नाटक, झारखंड, ओडिषा, मध्य प्रदेष और तेलंगाना में है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की ‘‘स्टेट ऑफ एनवायरमेंट इन फिगर्स 2019’’ रिपोर्ट के अनुसार 2003-05 से 2011-13 के बीच भारत में मरुस्थलीकरण 18.7 लाख हेक्टेयर तक बढ़ चुका है। वहीं सूखा प्रभावित 78 में से 21 जिले ऐसे हैं, जिनका 50 प्रतिषत से अधिक क्षेत्र मरुस्थल में बदल चुका है। वर्ष 2003-05 से 2011-13 बीच 9 जिले में मरुस्थलीकरण 2 प्रतिषत से अधिक बढ़ा है। भारत का 29.32 प्रतिषत क्षेत्र मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। इसमें 0.56 प्रतिषत वार्षिक बदलाव देखा जा रहा है।

भारत ने 2030 तक 2.1 हेक्टेयर बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने के अपने लक्ष्य को हाल ही में बढ़ाकर 2.6 करोड़ हेक्टेयर करने का निर्णय किया है, जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ग्रेटर नोएडा में आयोजित यूनाइटेड नेषन्स कन्वेंषन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेषन के 14वें सम्मेलन को संबोधित करते हुए की है।

2016 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की ओर से बनाया गया राष्ट्रीय डेटाबेस दिखाता है कि 12.07 करोड़ हेक्टेयर जमीन या भारत की कुल सिंचित और असिंचित भूमि का 36.7 फीसदी जमीन विभिन्न तरह की डिग्रेडेषन (भूमि हृस) की षिकार है। इसमें से 8.3 करोड़ हेक्टेयर (68.4 फीसदी) जमीन पानी से होने वाले कटाव की वजह से कमजोर हो रही है, जो मिट्टी को कमजोर करने वाली वजहों में सबसे बड़ी है। पानी का कटाव मिट्टी में जैविक कार्बन के नुकसान, पोषण असंतुलन, मिट्टी के ठोस होने, मिट्टी की जैव-विविधता घटने और भारी तत्वों व कीटनाषकों की मिलावट के रूप में सामने आता है।

रसायनों से मिट्टी के स्वास्थ्य को होने वाले नुकसानों में खारापन (क्षारीयता), अम्लीयता, रसायनों के कारण मिट्टी में आने वाली विषाक्तता और पोषक व जैविक तत्वों में गिरावट और अन्य पोषण संबंधी नुकसान प्रमुख हैं। खारेपन से प्रभावित 67.4 लाख हेक्टेयर मिट्टी में 37.9 लाख हेक्टेयर में सोडियम की उच्च मात्रा (9.5 से ज्यादा पीएच मान) और 30 लाख हेक्टेयर खारेपन से प्रभावित मिट्टी शामिल है। पीएच मान के आधार पर देष का एक बड़ा हिस्सा औसत रूप से क्षारीय है। उत्तर भारत के कुछ हिस्सों जैसे हिमाचल प्रदेष, जम्मू-कष्मीर (अविभाजित), पष्चिमी उत्तराखंड और पूर्व भारत जैसे ओडिषा, झारखंड, पूर्वी उत्तर और पष्चिमी तट प्रायद्वीप उच्च या औसत रूप से अम्लीय हैं। लगभग 1.1 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन बहुत कम उत्पादकता के साथ अत्यधिक मृदा अम्लीयता (5.5 से कम पीएच मान) से प्रभावित है (अनुपात बहुत ज्यादा क्रमषः रू.27.7, रू.6.1, रू.1 और रू.31.4, रू.8.0, रू.1 है)। रासायनिक उर्वरकों का उपयोग भारत के 42 फीसदी जिलों में ही केंद्रित है। देष के कुल 739 जिलों में से 292 जिलों में ही कुल खादों के 80-85 प्रतिषत का उपयोग होता है। नाइट्रोजन वाली खादों के उपयोग का अतिरेक भी मिट्टी को क्षति पहुंचा रहा है। कृषि की स्थायी संसदीय समिति की 54वीं रिपोर्ट (2017-18) के अनुसार उर्वरकों के उपयोग में असंतुलन के पीछे यूरिया के पक्ष में झुकी हुई सब्सिडी नीति और अन्य खादों की ऊंची कीमतें है।

भारत में भूमि की अवनति या मृदा हृस की समस्याः    

विविध घातक रसायनां के विवेक रहित उपयोग के कारण, मरूस्थलीकरण, लवणीयता व क्षारीयता प्रसार की समस्या, मृदा अपरदन या क्षरण अर्थात सॉइल इरोजन, ऊसरीकरण, अम्लीकरण, रसायन जनित प्रदूषण, भूमि की उर्वरता व उत्पादकता में हृस, मृदा ऑर्गेनिक कार्बन का हृस, जोतदार भूमि में कमी, आकस्मिक तथा भयंकर बाढ़ का प्रकोप, शुष्क मरूभूमि का विस्तार, बीहड़ तथा बंजर भूमि में वृद्धि, जो असमाजिक तत्वों का शरणस्थल बनता है, स्थानीय जलवायु पर विपरीत प्रभाव, मिट्टी के कटाव से नदियों का मार्ग परिवर्तन व बाढ़ का प्रकोप, भू-जलस्तर का नीचे जाना, फलरूवरूप पेयजल तथा सिंचाई के लिए जल की कमी, खाद्य उत्पादन में कमी, फलस्वरूप आयात में वृद्धि, भुगतान संतुलन का बिगड़ने संबंधी समस्याएं गंभीर रूप ले रही है।

स्वस्थ व सुपोषित भूमि के लाभ

स्वस्थ मिट्टी से आषय मृदा स्वास्थ्य अच्छा होने से है, जिसके चलते - 1.    उच्च उत्पादकता, 2. पोषक तत्व पुनर्चक्रण या रीसाइकिलिंग, 3. पौधे के लिए ऊपरी सतह पर पानी बनाए रखने के लिए, 4. दूषित पदार्थों को छानना, 5. कृषि मित्र कीटों व जीवों यथा केंचुओं आदि को उचित परिस्थितिकीय परिस्थितियाँ प्रदान करना, 6. भूजल का स्तर व गुणवता उन्नत करना, 7. पौधों की जड़ो का सम्यक विकास के लिए भूमि को मुलायम रखना।

भूमि सुद्येषण या मृदा स्वास्थ्य बनाए रखने के सामान्य उपाय

रसायनों के अत्याधिक प्रयोग से थोडे़ समय तक तो कृषि उपज में वृद्वि हुई। लेकिन रसायनों के अत्याधिक उपयोग से भूमि की गुणवत्ता में भारी कमी आ गई जिस से अब पैदावार में स्थिरता आने लगी है। भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए उससे निष्कासित हुए कार्बनिक पदार्थों की भूमि में वापिस आगमन आवष्यक है। यह इस प्रकिया पर निर्भर करता है कि रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग कम कर के प्राकृतिक खादों के प्रयोग में वृद्धि की जाए जिस से मृदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में बढ़ोतरी हो। मृदा में उपस्थित आवष्यक पोषक तत्वों में परिवर्तन सूक्ष्म जीवाणुओं की प्रकिया पर निर्भर करता है। अगर मृदा में इन जीवाणुओं की मात्रा तथा विविधता बढ़ाई जा सके तो उपज में वृद्वि की जा सकती है। मृदा इन सूक्ष्म जीवाणुओं का अभिन्न स्रोत है। मृदा वातावरण में विषिष्ट प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु विषेष प्रकार की प्रक्रिया में भाग लेते हैं और पौधो को पोषक तत्व उपलब्ध कराते हैं। लेकिन इन की संख्या में परिवर्तन मृदा में उपस्थित एवं डाले जाने वाली कार्बनिक सामग्री पर निर्भर करता है। मृदा में महत्वपूर्ण सूक्ष्म जीवाणु के मुख्य तत्वों की उपलब्धता में वृद्वि तथा पौधों को बीमारियों से बचाने में सहायता मिलती है कृषि उत्पादन वृद्वि में सहायक महत्वपूर्ण सूक्ष्म जीवाणु इस प्रकार हैंः-

1.    नाइट्रोजन फिक्सर (स्थिरीकारक)ः ये जीवाणु या सूक्ष्मजीव वायुमण्डल से नाइट्रोजन लेकर उसे पौधो को उपलब्ध रुप में परिवर्तित करते हैं, यह प्रक्रिया पारस्परिक सहजीविता पर निर्भर करती है।

2.    फास्फोरस विलेयकः फास्फोरस एक महंगा उर्वरक है अतः किसान इसे उचित मात्रा में उपलब्ध नहीं करा पाते हैं। उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग से फास्फोरस की कमी लगातार बड़ रही है। महंगे तथा आयातित फास्फोरस उर्वरकों के विकल्प के रुप में भूमि से पाये गए फास्फोरस विलयकारी सक्षम सूक्ष्म जीवाणु मिट्टी में उपलब्ध अघुलनषील फास्फोरस को घुलनषील बनाकर पौधों को सुलभ कराते हैं।

3.    फफूंदीः फफूंदी या कवक भी फास्फोरस, जिंक, कॉपर, मेग्नेषियम और आइरन आदि तत्वों को संग्रहित कर पौधों को उपलब्ध कराने में सहायक है। ये भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है और सूत्र कृमि से होने वाली हानि से बचाते हैं।

4.    फाइटोस्टीम्युलेटरः ये सूक्ष्म जीवाणु विटामिन और हॉरमोन (इंडोलेसीटिक एसिड, स्यटोकिनीन एवं जिबरेलिन) पैदा करते हैं जिससे पौधों का विकास होता है।

5.    पादप रोगों से बचाने वाले जीवाणुः पौधों में बीमारी के रोगाणुओं को रोकने के अलावा कुछ फफूंदी और बैक्टीरिया पौधां की अपनी बचाव प्रक्रिया को सक्रिय करते है, इसे प्रेरित सर्वांगी प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं जिससे पौधे अपने शारीरिक प्रतिक्रिया को बदल लेते हैं ताकि रोग के लक्षण कम हो जाएं। 
6.    अपघटक जीवाणुः ये जीवाणु स्वाभाविक तरी के से उपघटनीय सामग्री से कार्बन एवं ऊर्जा लेकर उसे खाद में परिवर्तित करते हैं। काले एवं भूरे रंग की खाद को कम्पोस्ट कहते है। अनेक फसलों के अवषेष किसान द्वारा खेतों में ही जला दिये जाते हैं जिससे भूमि में उपस्थित पोषक तत्वों के साथ-साथ लाभकारी जीवाणु एवं कीट भी नष्ट हो जाते है। 

मृदा ऑर्गेनिक कार्बन और उसका महत्वः-मृदा में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों में वांछित कार्बन को मृदा ऑर्गेनिक कार्बन कहते हैं। मृदा में मिलाये गये अथवा उपस्थित वानस्पतिक व जन्तु अवषेष, सूक्ष्मजीव, कीडे़, मकोडे़, अन्य जन्तुओं के मृत शरीर, मृदा में मिलाये जाने वाले खाद जैसे गोबर की खाद, वर्मी कम्पोस्ट, हरी खाद, राख आदि मृदा कार्बनिक पदार्थ कहलाते हैं।

यह मृदा कार्बनिक पदार्थ विच्छेदन व संष्लेषण प्रतिक्रियाओं द्वारा ह्यूमस बनाता है। मृदा ऑर्गेनिक कार्बन मृदा स्वास्थ्य में सुधार एवं बदलते जलवायु परिदृष्य में मृदा की उर्वरता बनाये रखता है। ताजे एवं बिना विच्छेदन के पौध अवषेष जैसे भूसा, ताजा गोबर एवं अन्य पदार्थ जो भूमि की सतह पर पडे़ रहते हैं वे मृदा कार्बनिक पदार्थ की श्रेणी में नहीं आते हैं। 

ऑर्गेनिक कार्बन कृषि समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है क्योंकि सघन खेती के कारण मृदा में उपस्थित ऑर्गेनिक कार्बन कम हो जाने से भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है। टिकाऊ खेती के लक्ष्य को प्राप्त  करने में भूमि में कम हो रही ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा सबसे बड़ा कारण है। मृदा में ऑर्गेनिक कार्बन का प्रमुख स्रोत पौधे होते हैं, जिनका ऊपरी भाग एवं जड़़ें विघटित होकर मृदा में मिल जाती हैं। पौधो की जड़ों से श्वसन क्रिया द्वारा तथा अन्य भागों से रसायन उत्पन्न करके कार्बन पृथक्करण क्रिया को तीव्र कर देते हैं। आधुनिक खेती में कार्बन की इस हानि को कुछ सीमा तक कम किया जा सकता है अधिक ऑर्गेनिक वृद्धि वाली फसलों द्वारा अधिक कार्बन की मात्रा को मृदा में पुनः लौटाकर इसका समाधान संभव है। संरक्षित कृषि जैसे शून्य जुताई, न्यूनतम कृषि कार्य, फसल अवषेष को पुनः भूमि में मिलाकर तथा भूमि को अधिक आवरण प्रदान करने वाली फसलें उगाकर मृदा कार्बन पृथक्करण को बढ़ाया जा सकता है। कार्बन पृथक्करण का अंतिम उत्पाद मृदा ऑर्गेनिक कार्बन होता है।

दलहन फसलों का समावेष का महत्व- फसल की विभिन्न प्रणालियों में वर्ष में एक बार दलहन फसल समावेष अवष्य ही करना चाहिए। दलहन फसलों के जड़ों में ग्रन्थियां होती हैं उनमें बैक्टीरिया निवास करते हैं जो कि मृदा में कार्बनिक पदार्थ बनाते हैं तथा दलहन में पत्तियां खेत में गिर जाती हैं जो कि  कार्बनिक पदार्थ में वृद्वि करती हैं।

मृदा संरक्षण की दो विधियां हैंः- 1. जैविय विधि, 2. यांत्रिक विधि

जैविय विधि- 
(क)  फसल संबंधीः
1.    फसल चक्रल- अपरदन को कम करने वाली फसलों का अन्य के साथ चक्रीकरण कर अपरदन को रोका जा सकता है। इससे मृदा की उर्वरता भी बढ़ती है।
2.    पटटीदार खेती- यह जल प्रभाव के वेग को कम कर अपरदन को रोकती है।
3.    सीढ़ीनुमा खेती- इससे ढ़ाल में कमी लाकर अपरदन को रोका जा सकता है। इससे पर्वतीय भूमि को खेती के उपयोग में लाया जा सकता है।
4.    मल्विंग पद्वति- खेती में फसल अवषेष की 10-15 से.मी. पतली परत बिछाकर अपरदन तथा वाष्पीकरण को रोका जा सकता है। इस पद्वति से रबी की फसल में 30 प्रतिषत तक की वृद्धि की जा सकती है।
5.    रक्षक मेखला- खेती के किनारे पवन की दिषा में समकोण पर पंक्तियों में वृक्ष तथा झाड़ी लगाकर पवन द्वारा होने वाल पअरदन को रोका जा सकता है।
6.    खादों का प्रयोग- गोबर की खाद, सनई अथवा ढ़ॅंचा की हरी खाद एवं अन्य जीवांष खादों के प्रयोग से भू-क्षरण में कमी आती है।

(ख)  वन रोपण संबंधी पद्धतिः
वन मृदा अपरदन को रोकने में काफी सहायक होते हैं। इसके तहत दो कार्य आते हैं-
1.    प्रथम, नवीन क्षेत्रों में वनों का विकास करना, जिससे मिट्टी की उर्वरता एवं गठन बढ़ती है। इससे वर्षा जल एवं वायु से होने वाले अपरदन में कमी आती है।
2.    द्वितीय, जहॉं वनों का अत्याधिक विदोहन, अत्याधिक पषुचारण एवं सतह ढलवा हो, वहॉं नये वन लगाना।

यांत्रिकी पद्धति-
यह पद्धति अपेक्षाकृत महंगी है पर प्रभावकारी भी।
1.    कंटूर जोत पद्धति- इसमें ढ़ाल वाली दिषा के समकोण दिषा में खेतों को जोता जाता है, ताकि ढ़ालों से बहने वाला जल मृदा को ना काट सके।
2.    वेदिका का निर्माण कर अत्याधिक ढ़ाल वाले स्थान पर अपरदन रोकना।
3.    अवनालिका नियंत्रण- (क) अपवाह जल रोककर (ख) वनस्पति आवरण में वृद्वि कर तथा (ग) अपवाह के लिए नये रास्ते बनाकर।
4.    ढ़ालों पर अवरोध खड़ा कर।

मृदा संरक्षण के सूत्रः-        
-    वनीकरण को प्रोत्साहन
-    कृषि में रसायनिक उर्वरकों के स्थान पर जैविक उर्वरकों का प्रयोग।
-    फसल चक्र को प्रभावी रुप से अपनाना।
-    सिंचाई के नवीन और वैज्ञानिक तरीकों को अपनाना। जैसे बूॅंद-बूॅंद सिंचाई, स्प्रिंकलस सिंचाई आदि।
-    मरुस्थलीकरण के बारे में जागरुकता बढ़ाएॅं।    

ताजा सरकारी प्रयासः-
(i)    चारा और विकास योजना
(ii)    ग्रीन इंडिया पर राष्ट्रीय मिषन
(iii)    भारत का मरुस्थलीकरण और भूमि उन्नयन एटलस
(iv)    मरुस्थलीकरण को रोकने के लिये वैष्विक प्रयास
-    बॉन चुनौतीः बॉन चुनौती एक वैष्विक प्रयास है। इसके तहत दुनिया के 150 मिलियन हेक्टेयर गैर-वनीकृत एवं बंजर भूमि पर वर्ष 2020 तक और 350 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर वर्ष 2030 तक वनस्पतियॉं उगाई जाएंगी।
-    सतत विकास लक्ष्य 15ः यह घोषणा करता है कि ‘‘हम टिकाऊ खपत और उत्पादन के माध्यम से ग्रह हो निम्नीकरण से बचाने के लिये दृढ़ हैं।’’

संयुक्त राष्ट्र कन्वेंषन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेषन (UNCCD):  इसे 1994 में स्थापित किया गया था, जो पर्यावरण और विकास को स्थायी भूमि प्रबंधन से जोड़ने वाला एकमात्र कानूनी रुप से बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय समझौता है।

Share This

Click to Subscribe