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अंतरिक्ष विज्ञान के विकास में पूंजी निवेश की दरकार 

चंद्रयान 3 के शानदार कामयाबी का पहला चरण सभी के लिए गर्व करने के पल हैं, अगर सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ शोध और अनुसंधान के लिए माकुल बजट का इंतजाम करें तो भारतीय मेधा की दक्षता और कार्य कुशलता से निश्चित रूप से भारतीयों के लिए गर्व के अनेकों पल आगे भी सृजित हो सकते हैं। - अनिल तिवारी

 

पिछले 61 साल से चल रहे अंतरिक्ष कार्यक्रम के जरिए पहले हमने चांद पर पानी खोजा अब चांद के दूसरे सिरे पर भी पहुंचने में कामयाब हुए हैं। इसरो की पूरी टीम ने चांद पर सफल और सॉफ्ट लैंडिंग कर इतिहास रच दिया है। हम अक्सर इस बात पर फूले नहीं समाते कि हमारे वैज्ञानिक कितने कम खर्चे में बहुत शानदार काम कर रहे हैं। इस बार भी अनेक प्लेटफार्म पर यह बात जोर-जोर से फैलाई जा रही है कि चंद्रयान-3 को चांद पर पहुंचने की लागत (615 करोड रुपए) भारत में बनी निर्माता निर्देशक भूषण कुमार और ओम रावत की फिल्म ’आदि पुरुष’ के बजट (700 करोड रुपए) से भी कम है। लेकिन ऐसी लाइन चलाने वाले लोगों को ठहर कर सोचना चाहिए कि कम खर्चे में काम चलाने की मजबूरी हमारे वैज्ञानिकों की संभावना को किस तरह प्रभावित कर रही होगी। ज्ञात हो कि वर्ष 2023-24 मेंअंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए आवंटित बजट 12544 करोड रुपए है जो पिछले साल यानी 2022-23 के मुकाबले 8 प्रतिशत कम है।

मालूम हो कि इसरो की कमाई का मुख्य जरिया इसके सैटेलाइट लांचर्स है। जुलाई 23 तक इसरो ने 36 देश के 431 सैटेलाइट लॉन्च किये है। जुलाई 22 तक विदेशी सैटेलाइट लॉन्चिंग से इसरो को कुल 22.3 करोड डॉलर की कमाई हुई है। वह भी तब, जब भारत रॉकेट लॉन्च करने की क्षमता से लैस टॉप 10 देशों में शामिल है।

वर्तमान में वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी मात्र दो प्रतिशत है।अनुमान है कि 2025 तक भारतीय अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था 13 अरब डॉलर का आंकड़ा  छू सकती है। वही सरकार का लक्ष्य है की 2030 तक बाजार के 9 प्रतिशत हिस्से पर भारत का प्रभुत्व हो। दुनिया के अंतरिक्ष बाजार पर नजर रखने वाली एजेंसियों की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2040 तक भारत की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था के 100 अरब डॉलर तक पहुंचाने की क्षमता और संभावना आंकी जा रही है। ऐसे में इसरो को खुलकर अपनी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने तथा उन परियोजनाओं के लिए सरकार को अपने खजाने से अपेक्षित धनराशि बिना हीला हवाली के मुहैया कराने की जरूरत है।

ज्ञात हो कि सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग और इंस्टीट्यूट फॉर कंपीटिटिवनेस की ओर से हाल ही में कराए गए एक अध्ययन से यह खुलासा हुआ है कि भारत अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) पर दुनिया में सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शामिल है। देश में अनुसंधान विकास पर 2008 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 0.8 प्रतिशत की तुलना में 2017-18 में इनमें निवेश घटकर 0.7 प्रतिशत रह गया था। हालांकि 2018-19 में इसके बजट में थोड़ी वृद्धि हुई लेकिन बाद के करोना काल में यह उत्तरोत्तर कम ही होता गया। मौजूदा वित्त वर्ष में इस क्षेत्र में निवेश पिछले सत्र की तुलना में आठ प्रतिशत कम किए जाने की घोषणा बजट में की गई है।

अद्भुत संजोग है की इसरो का चंद्रयान जब चांद के साउथ पोल पर शाफ्ट लैंडिंग कर रहा था ठीक उसी वक्त दक्षिण अफ्रीका में आयोजित ब्रिक्स की बैठक में प्रधानमंत्री गर्व के साथ सदस्य देशों से इसरो का संदेश ’भारत, मैं अपने गंतव्य पर पहुंच गया हूं और आप भी“ साझा कर रहे थे। आंकड़े बताते हैं कि अंतरिक्ष कार्यक्रम के मामले में भारत ब्रिक्स देशों की तुलना में भी बहुत कम खर्च करता है। ब्राज़ील जीडीपी का करीब 1.2 प्रतिशत रूस 1.1 प्रतिशत चीन दो प्रतिशत से अधिक जबकि दक्षिण अफ्रीका 0.8 प्रतिशत पर खर्च करता है। अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर दुनिया का औसत खर्च करीब 1.8 प्रतिशत है।

अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए खर्च की जाने वाली रकम अपेक्षा से बहुत कम है। इसकी राशि बढ़ाई जाने की जरूरत है। सरकार द्वारा वित्तीय सहायता बढ़ाए जाने के साथ-साथ निजी क्षेत्र को भी इस काम में आगे बढ़कर हाथ बंटाना चाहिए। धन के आवंटन का स्तर और उसकी प्राथमिकता महत्वपूर्ण है। अनुसंधान कार्यक्रमों को अनवरत चलाने के लिए भारतीय विश्वविद्यालय को लंबे समय तक के लिए समुचित धन की व्यवस्था करनी चाहिए। शोध अनुसंधान कार्यक्रम चलाने वाले अंतर विश्वविद्यालयों को भी इसी तरह बढ़ाकर राशि दिए जाने की जरूरत है। नवाचार और संवर्धन ऐसे कारक हैं जिसे किसी भी कीमत पर कमतर नहीं आंकना चाहिए। इसरो के साथ-साथ अकादमिक संस्थानों, शोध प्रयोगशालाओं और अन्य तरह के प्रतिष्ठानों को अभी और लंबी दूरी तय करनी है, जहां उसे अपने अर्जित ज्ञान को कुछ संसाधन के रूप में रचना है तो कुछ नए उपक्रमों का पोषण संवर्धन भी करना है। इनमें से अधिकांश अर्थव्यवस्था को संपन्न करेंगे और उसका चेहरा बदलने वाले होंगे। सुखद है कि भारत में आयातित नवाचार और संवर्धन की जगह अब स्वदेशी तकनीक पर अब ज्यादा भरोसा किया जा रहा है। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचना भारत के लिए गौरव की बात तो है ही भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी सुखद संकेत है।अंतरिक्ष संबंधी प्रयासों से रोजमर्रा की जिंदगी में मिलने वाले फायदे दुनिया देख चुकी है। स्वच्छ पेयजल तक पहुंच, विश्व भर में इंटरनेट का प्रसार, सौर ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि, स्वास्थ्य से जुड़ी अनेक प्रौद्योगिकियों का लाभ मानवता को मिल रहा है। चंद्रयान 3 से प्राप्त होने वाले आंकड़ों और जानकारी की ओर दुनिया के वैज्ञानिक, शोधार्थी टकटकी लगाए हुए हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता डेविड ग्रास ने कहा था कि ’भारत के पास वैज्ञानिक शक्ति बनने की क्षमता मौजूद है’। कोविड-19 के लिए देसी वैक्सीन का विकास कर भारत ने अपनी क्षमता को साबित भी कर दिया। ग्रास का कथन पहले से कहीं अधिक आज सच होने की स्थिति में है। आज का भारत एक ऐसी बेहतर और मधुर स्थिति में बैठा है जहां भू राजनीतिक रूझानों से भारत को लाभ मिल सकता है, क्योंकि अब आपूर्ति श्रृंखलाएं चीन से दूर होती जा रही है। इसके साथ ही कृत्रिम बुद्धिमत्ता, जैव प्रौद्योगिकी, अक्षय ऊर्जा जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों के रूप में वैज्ञानिक रुझान भी तीव्र गति से परिपक्व होने लगे हैं। विज्ञानआज ऐसे चरण में है जहां एक क्षेत्र में होने वाली प्रगति दूसरे क्षेत्र को भी आगे बढ़ाने के लिए प्रेरणा देती है। प्रोटीन का अध्ययन करने के लिए गूगल द्वारा विकसित अल्फा फोल्ड एआई मॉडल को उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। केवल एक साल की अवधि में ही अल्फा फोल्ड ने विज्ञान को ज्ञात सभी प्रोटीन की संरचनाओं की भविष्यवाणी कर दी है। और अब यह जैव तकनीकी अनुसंधानकर्ताओं के लिए अनिवार्य उपकरण बन गया है। विज्ञान के मोर्चे पर इस तरह की उथल-पुथल मचा देने वाली खोज अब तेज और आम होने लगी है। अब भारत को अपनी वैज्ञानिक महत्वाकांक्षाओं को मूर्त रूप देने के लिए पीढ़ीगत अनुकूल माहौल का लाभ उठाना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि भारत को अनुसंधान एवं विकास पर अपने खर्च को बढ़ाना चाहिए। अमेरिका और चीन जैसे देशों में विज्ञान पर 80 प्रतिशत से अधिक खर्च निजी क्षेत्र की ओर से किया जाता है। भारत में निजी क्षेत्र का अनुसंधान में योगदान मात्र 35 प्रतिशत के आसपास है।

बहरहाल कमजोर सरोकार के बावजूद भारत में विज्ञान मजबूत दरकार बन कर उभर रहा है। हालांकि सफल वैज्ञानिक प्रगति के लिए पूजा पाठ के टोटके अभी भी कुछ शिराओं में दौड़ रहे हैं, लेकिन आओ विज्ञान करके देखें की राह आसान हुई है। विज्ञान पर बात पहले विज्ञान के खतरे के बहस से शुरू होती थी, लेकिन अब समय बदल गया है। आज का दौर विकास का दौर है, और विकास की आकांक्षा को पूरा करने का सबसे बड़ा औजार है विज्ञान। अपने देश में वैज्ञानिक अध्ययन की एक परंपरा तो रही है पर परंपरा का यह बहाव वर्तमान तक आते-आते लगभग छिड़ हो गया है। नए अनुसंधान और विकास के क्रम में हर जगह बजट की कमी हमारी स्थिति की दरिद्रता को जाहिर करता है। यह ठीक है कि इसरो के साथ-साथ पिछले दो-तीन दशकों में विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय प्रतिभाओं ने कई बड़े मुकाम हासिल किए हैं।इससे देश में एक नई तरह का प्रगाढ़ अर्थतंत्र भी विकसित हुआ है, पर इस कामयाबी के बावजूद देश में विज्ञान शिक्षण और अनुसंधान की ढांचागत चुनौती बरकरार है।हमें मेक इन इंडिया के साथ-साथ भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान और आविष्कार को और अधिक प्राथमिकता देने की जरूरत है। चंद्रयान 3 के शानदार कामयाबी का पहला चरण सभी के लिए गर्व करने के पल हैं, अगर सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ शोध और अनुसंधान के लिए माकुल बजट का इंतजाम करें तो भारतीय मेधा की दक्षता और कार्य कुशलता से निश्चित रूप से भारतीयों के लिए गर्व के अनेकों पल आगे भी सृजित हो सकते हैं।

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