तालिबान से नहीं, तालिबानी सोच से खतरा
दरअसल भारत को असली खतरा तालिबान से नहीं, बल्कि उस तालिबानी सोच से है जिसका अफगानिस्तान के बाहर फैलाव होने की आशंका है। — अनिल तिवारी
अफगानिस्तान में तालिबानियों ने अपनी बलात सत्ता की दूसरी पारी शुरू कर दी है। पहले भी यह बंदूक की नाल पर सवार होकर आए थे, अबकी बार भी हमलावरों की तरह अपने ही देश को दबोचा है। लोकतंत्र का तरीका न तब था और न अब है। करीब 4 करोड़ की आबादी वाले अफगानिस्तान को तोरा-बोरा की गुफाओं में फिर से धकेल दिया है। हिंदकुश को मजहबी बर्बरता के बादलों ने ढक लिया है। बादल छाए हैं तो फटेंगे भी, बरसेंगे भी और लोग मरेंगे भी। कोरोना वायरस की तीसरी लहर की आशंका के बीच अफगानिस्तान की हलचलों पर दुनिया के देशों की नजर लगी हुई है। भारत में भी काबुल-नई दिल्ली के रिश्तों को लेकर चर्चाएं हैं।
अफगानिस्तान में दोबारा सरकार गठित कर लेने के बाद तालिबान अब अधिक से अधिक देशों की मान्यता हासिल कर लेने के लिए विश्व बिरादरी के बीच हाथ पैर मार रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता के लिए उसने दिखावटी तौर पर अपना रुख भी नरम कर लिया है। हालांकि उसके कई अपढ़ मंत्रियों ने उल-जुलूल बयान दिया है, लेकिन तालिबानी सरकार के प्रमुख संतुलनकार सामंजस्य बिठाकर आगे काम करने का संकेत दे रहे हैं। भारत पल-पल हो रहे परिवर्तनों पर पैनी नजर रखे हुए हैं, इसके कारण आर्थिक भी हैं और राजनीतिक भी। भारत की घरेलू राजनीति में भी तालिबान एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है।
अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान के आने के बाद से ही मीडिया में भारत के अहित होने की आशंका जताई जा रही है। क्या यह सच है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जल्दबाजी में वर्तमान को जाने बिना भूत का भय जनमानस की सोच पर हावी है? लेकिन ब्रिक्स में चीन और रूस के रुख में आए बदलाव से यह स्पष्ट हो गया है कि भारत का पलड़ा न सिर्फ भारी हुआ है बल्कि तालिबान को लेकर जताई जा रही चिंता से निपटने में कूटनीतिक सफलता मिली है।
हाल के दिनों में यह दूसरा मौका है जब भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर तालिबान के मसले पर बाकी देशों को अपने स्टैंड के साथ सहमति में लिया है। इससे पहले भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक अहम प्रस्ताव पारित कराया था जिसके तहत तालिबान किसी आतंकी संगठन को अपने यहां पनाह नहीं देगा। यह शर्त रखी गई कि इसका उल्लंघन करने पर उसके खिलाफ संयुक्त कार्रवाई होगी। भारत ने अफगानिस्तान से जुड़े मसले पर पहले भी 6 अगस्त, 16 अगस्त और फिर 27 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र की ओर से तालिबान को सख्त संदेश जारी किए। अब ब्रिक्स में भारत ने तालिबान के दो प्रमुख सहयोगी माने जा रहे चीन और रूस को तालिबान के खिलाफ खड़ा करने में सफलता पाई है।
अब इसी (सितंबर) महीने के अंत में होने वाले संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में भारत तालिबान के मसले को जोर शोर से उठाने की तैयारी कर रहा है। भारत का मानना है कि अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद जो संघर्ष शुरू हुआ था वह वहां तालिबानी सरकार के गठन के बाद भी जारी है। ऐसी अस्थिरता का दौर आगे भी बने रहने की आशंका है। यह तय है कि इसका लाभ उठाने की हर संभव कोशिश पाकिस्तान कर सकता है।
भारतीय मीडिया और कतिपय लोगों द्वारा तालिबान के बारे में उठाए जा रहे सवालों का उत्तर तलाशने के लिए हमें मौजूदा वैश्विक राजनीति की चाल-ढाल पर भी गौर करना होगा। आज की राजनीति किसी विचारधारा पर नहीं बल्कि राष्ट्रीय हितों से नियंत्रित हो रही है। इसका अर्थ यह नहीं कि पहले देशों द्वारा राष्ट्रीय हितों की अनदेखी की जाती थी। लेकिन दिखावे के लिए ही सही विचारधारा का मुलम्मा भी चढ़ाया जाता था। बदले समय में अब विचारधारा की जगह न के बराबर रह गई है। शायद इसलिए दुनिया की मौजूदा राजनीति में न केवल अनिश्चयता बल्कि अप्रत्याशिता का तत्व भी हावी होता जा रहा है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का दंभ भरने वाला अमेरिका उस तालिबान से समझौता करता है जिसे उसने 20 साल पहले 9/11 की आतंकी घटना के बाद सत्ता से बेदखल कर दिया था।
इन परिस्थितियों में तालिबान के प्रतिनिधि से भारत के प्रतिनिधि की बातचीत होती है तो जाहिर है कि यह बातचीत परस्पर हितों और एक दूसरे की हितों और संभावनाओं की तलाश पर ही होगी। खास बात यह है कि भारतीय हित वही है जो उसके संवैधानिक मूल्य है। भारत धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के अधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी जैसे विषयों पर जरूर बात करेगा। कहने के लिए कोई भी यह कह सकता है कि तालिबान इस्लाम परस्त है, तो ऐसे लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान एक इस्लामिक राज्य है। क्या पाकिस्तान के साथ भारत के दौत्य संबंध नहीं है?
अफगानिस्तान की आंतरिक स्थिति और भू राजनीतिक परिदृश्य पर गौर करें तो तालिबान को भी भारत की उतनी ही जरूरत है जितनी भारत को कभी अफगानिस्तान की हुआ करती थी। शायद यही कारण है कि सरकार के गठन के बाद से ही तालिबान भारत की ओर सकारात्मक दृष्टि से देख रहा है। यह किसी से नहीं छुपा है कि अफगानिस्तान एक बहुभाषी, बहुनस्ली समाज है, जहां पश्तुन, ताजिक, उजबेक और हाजरा समुदाय की अधिकता है। वहां तालिबान विरोधी अहमद मसूद, मोहम्मद अख्तानूर, अब्दुल रशीद दोस्तम जैसे कई क्षत्रप है जो वहां की राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं और यह सभी ऐसे नाम है जो भारत के प्रति हितेषी भाव रखने वाले हैं। ऐसे में तालिबान दबाव में होगा। वस्तु स्थिति यह है कि अफगानिस्तान में भारत की उपस्थिति मात्र से पाकिस्तान तनाव में आ जाता है। चीन भी अपनी परियोजनाओं के जरिए अफगानिस्तान में अपना रणनीतिक विस्तार चाहता है।
यहां गौरतलब बात यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में आतंकवाद के लिए तालिबान नहीं, बल्कि पाकिस्तान जिम्मेदार रहा है। इस नाते प्रत्यक्ष तौर पर भारत और तालिबान के बीच दूरी का कोई कारण नहीं दिखता। अगर तालिबान भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देना भी चाहेगा तो उसकी अपनी सीमाएं होगी, क्योंकि भारत और अफगान की सीमा एक दूसरे से नहीं सटती है। उसे ऐसा करने के लिए उकसाने वाला और जगह देने वाला पाकिस्तान ही होगा।
इन सबके बीच सवाल है कि क्या भारत को तालिबान के साथ संवाद आगे बढ़ाना चाहिए। संकट यह है कि भारत हमेशा से आतंकवाद के खिलाफ रहा है। ऐसे में अगर सरकार आगे बढ़ती है तो देश के भीतर घरेलू राजनीति प्रभावित होगी और विरोधी दल मुद्दा बना सकते हैं। लेकिन असली तस्वीर तो यह है कि भारत को तालिबान से नहीं, बल्कि अफगानिस्तान से संबंध रखना है, इसमें जल्दबाजी की जरूरत नहीं है। भारत अगर रणनीतिक रूप से आगे नहीं बढ़ता है तो भारत के अफगानिस्तान से बाहर हो जाने का खतरा पैदा हो जाएगा। अपनी लाभकारी परियोजनाओं के जरिए भारत ने अफगानियों का जो सद्भाव प्रारंभ में जो हासिल किया था उसे धीरे-धीरे खो देगा। अफगान के जरिए व्यापार की संभावना क्षीण पड़ जाएगी और चाबहार परियोजना भी खटाई में पड़ सकती है।
दरअसल भारत को असली खतरा तालिबान से नहीं, बल्कि उस तालिबानी सोच से है जिसका अफगानिस्तान के बाहर फैलाव होने की आशंका है। दूसरा, इस बात की कोई गारंटी नहीं कि तालिबान और पाकिस्तान के संबंध आगे भी मधुर ही रहेंगे। पाकिस्तान विरोधी तहरीक-ए-तालिबान-पाकिस्तान को लेकर तालिबान पहले ही कह चुका है कि यह पाकिस्तान का मुद्दा है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच सीमा का भी विवाद है। हालांकि तालिबान, सरकार के गठन के बाद पाकिस्तान के खिलाफ अभी खुलकर बोल नहीं रहा है, लेकिन एक राष्ट्र के रूप में उसे देर-सवेर बोलना ही होगा वरना कोई राष्ट्रवादी तत्व मौजूदा तालिबानी सत्ता को बेदखल करने के लिए अपने संघर्ष का आधार बना सकता है। ऐसे में भारत को आगे भी कूटनीतिक समन्वय के साथ रणनीतिक प्रयास संजीदा रखने होंगे। उम्मीद है कि संयुक्त राष्ट्र की बैठक में भारत अपने प्रयास में और अधिक सफल होगा।
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