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पुरानी दिल्लीः मिटना एक सुनहरे अतीत का

पुरानी दिल्ली के चांदनी चैक के बुनियादी ढ़ांचे के उन्नयन के दौरान भी वास्तुकला की प्रमाणिकता को अक्षुण्य बनाये रखने की आवश्यकता है। अन्यथा अतीत हमेशा के लिए मिट जायेगा। — डाॅ. जया कक्कड़

 

प्राचीन और नवीन का विवाद हमेशा रहा है। ‘ओल्ड इज गोल्ड’ कहने वाले बहुत हैं तो नयेपन पर जां निसार करने वालों की भी कमी नहीं है। लेकिन इन पक्ष-विपक्ष की दो धाराओं के बीच एक ऐसी जमात भी है जो नये और पुराने के बीच सामंजस्य बिठाकर चलने वाली जीवन संस्कृति की वकालत करती है। यह जमात पुरानी दिल्ली के चांदनी चैक के सौन्दर्यीकरण के कारण हुए परिवर्तनों पर राय रखते हुए बेझिझक मानती है कि हमारे गौरवशाली अतीत को समकालीन धारा के सामने आत्मसमर्पण की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इनका मानना है कि सरल सोच के साथ कुछ और कल्पनाशील होकर नये और पुराने के बीच सहवास की गुंजाईश बनानी चाहिए। 

ज्ञात हो कि आज के चांदनी चैक में कुछ स्थल ऐसे है जो हमें पुराने दिनों की ओर ले जाते हैं। हजरत चितली का सूफी दरगाह इनमें से एक है। बादशाह शाहजहां ने जब अपनी नई राजधानी शाहजहानाबाद की स्थापना की थी, उसी समय यह अस्तित्व में आया था। वर्तमान में सौन्दर्यीकरण के दौरान इस जगह का नाम ट्रैफिक चैराहा रख दिया गया। लाल किले से फतेहपुरी तक पैदल चलने वाले शौकीनों के लिए यह जगह मनमाफिक लगने लगा है। इसी तरह इस इलाके कई स्थलों को आने जाने लायक बनाने के क्रम में उसके मूल स्वभाव में थोड़ा परिवर्तन हुआ है। इन बदलावों से कुछ लोगों को जोकि खरीददारी करने या खाने-पीने के लिए पुराने दिल्ली आते है, उनमें एक तरफ लाल किला तो दूसरी तरफ फतेहपुरी मस्जिद के दृश्य बरबस रमणीय लगते है। 

वास्तव में पुरानी दिल्ली सतत् विकास देख रही है। इसकी तंग गलियों में एक तरफ आधुनिक स्थापत्य कला का विकास हो रहा है तो वहीं दूसरी ओर पुराने खानदानी कच्चे-पक्के मकान भी खड़े है। इनके सामने बने कटरों में पिज्जा, पार्लर, एक्सप्रेसों काॅफी का संसार भी फल-फूल रहा है। मीना बाजार की सुन्दरता नेताजी मार्ग से जामा मस्जिद तक फैली हुई है। यह स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के मकबरे के बगीचे से होकर गुजरती है। यहां का बाजार शुद्ध और स्वादिष्ट व्यंजनों से अंटा पड़ा है। 

हाल के वर्षों में देश में दो राजधानी परिसरों का निर्माण किया गया। पहला, देश की राजधानी दिल्ली का तथा दूसरा, हरियाणा और पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ का। जब लूटियन ने नई दिल्ली का निर्माण किया तो उन्होंने भारतीय शब्दावली से कई चीजें लेकर इमारतें बनायी। दूसरी तरफ करबूजिये ने जब चंडीगढ़ का निर्माण किया तो उन्होंने इस पहलू की ओर ध्यान ही नहीं दिया। अब सापेक्ष दृष्टि से हम दोनों को देखते है तो सहज ही अंतर मालूम हो जाता है। दिल्ली सिर चढ़कर बोलती है, जबकि चंडीगढ़ भारत के दिल में जगह पाने में विफल ही रहा है। 

चांदनी चैक पर्यटकों की नजर में बड़ा स्थान रखता है। यहां के पुरुष 50-60 साल पहले तक कुर्ता-पाजामा पहनते थे और महिलाएं सलवार समीज अथवा साड़ी बांधती थी। लोगों में जल्दी नहीं थी। वे बेकार की गप्प-शप्प में भी काफी समय बिताते थे। संयुक्त परिवार का चलन था। आज की फ्लैट संस्कृति से वे दूर थे। पुराने समय के लोग आज भी बेडमी पूरी, दौलत की चाट और बिरयानी के बारे में चटखारे लेकर बाते करते हैं। विभाजन के बाद शरणार्थियों की आमद के साथ बाजारों में वृद्धि हुई। चावड़ी बाजार, दरीबा कलां, किनारी बाजार जैसे कई व्यापारिक केंद्र उभरे। भीड-भाड के बावजूद हवा सांस लेने लायक बनी रही और रात में आसमान भी साफ-साफ नीला दिखाई देता रहा। कहने का तात्पर्य यह है कि पुरानी दिल्ली का हर कौना अपने भीतर एक समुचा इतिहास समेटे हुए था। लेकिन अब इसका हर इंच हवेलियों की वजाए नई वास्तुकला की धुन पर निर्मित दुकानों, घरों को रास्ता दे रहा है। सच मानिये यह कोई काल्पनिक भय नहीं है। अतिक्रमण करने वाले आधुनिकता के नाम पर कुछ ऐसा परोसते जा रह है कि आने वाले दिनों में इस इलाके की महिमा को लोग इतिहास की किताबों में ही खोज सकेंगे। 

पुरानी दिल्ली, जिसे शाहजनाबाद भी कहा जाता था, का निर्माण 1639 में सम्राट शाहजहां द्वारा कराया गया था।  यह एक चाहरदीवारी वाला शहर था। 1500 एकड़ जमीन पर फैले इस नगर के 14 द्वार थे। अब यह वह शहर नहीं है जिसे कभी मुगलों ने बनाया था। हालांकि ताजदार कोरमा और कुल्हड की चाय अभी गायब नहीं हुई है लेकिन नये सौन्दर्यशास्त्र के चक्कर में पुरानी सांस्कृतिक विरासत को बहुत नुकसान पहुंचा है। यह एक अपरिहार्य परिणाम है। क्योंकि यह इलाका अब दो विपरीत दुनियाओं का घर है। एक, अपने शानदार अतीत में उलझा हुआ है तो दूसरा, नये के लिए भुखा है, लेकिन परिणामी नुकसान से पूरी तरह बेखबर है। 

क्या हमें कोई ऐसा रास्ता नहीं खोजना चाहिए जिसमें पुराने और नये दोनों के लिए जगह हो? पुरानी दिल्ली हारती नहीं है तो नई दिल्ली उसे पछाड़ती भी नहीं है। रात में नहर के बहते पानी में तारों की चांदनी चमक देखे जाने के कारण इसका नाम चांदनी चैक पड़ा। नई संस्कृति में अगर इसे फिर से बनाने की कोशिश भी की जाये तो उसे ‘मून साईन स्क्वायर’ नहीं कहा जा सकेगा, क्योंकि अब रात में वहां का चांद शायद की देखने योग्य हो। 

विभाजन के बाद इस क्षेत्र का नये तरीके से परिवर्तन हुआ। चांदनी चैक और आस-पास के क्षेत्रों का व्यवसायीकरण होने लगा। परित्यक्त हवेलियों को कटरा या दुकान में बदल दिया गया। चांदनी चैक के मुहाने पर स्थित लाला लाजपत राय मार्किट इलैक्ट्रानिक्स का हब बन गया। एक भरापूरा इलाका धीरे-धीरे छोटी जगह में सिमट गया और इसे लेकर जानबूझकर एक गलत धारणा भी बनायी गयी। यहां तक कहा जा रहा है कि यह एक मुस्लिम यहूदी बस्ती है। 

पुनर्निर्माण के नाम पर काम हो रहा है, पर बहुत कुछ छूटता भी जा रहा है। क्या आधुनिक डिजाईनों को समायोजित करते हुए स्वदेशी वास्तुकला को बनाये रखना संभव नहीं होना चाहिए? पुडुचेरी इसका जीता जागता उदाहरण है। विरासत स्थल के पुनर्निर्माण के लिए सावधानीपूर्वक योजना, निस्पादन, निगरानी और प्रबंधन की आवश्यकता होती है। सुरक्षा, स्वच्छता, सीवेज, पार्किंग आदि की भी जरूरत होती है। हालांकि कुछ ऐसे लोग है जो पुराने लुक के दीवाने नहीं है, उनका मानना है कि परिर्वतन और पुनर्विकास से युवा पर्यटकों में आकर्षण बढ़ा है। कुछ ऐसे भी है जो मानते है कि नागरिक प्राधिकरण पूरी तरह से इतिहास और जगह के बुनियादी ढांचे के लिए जिम्मेदार है। लेकिन यह थोड़ा सच है। नये को देसी बनने देने के बजाए अतीत को वर्तमान में लाने का प्रयास होना चाहिए ताकि इसे भविष्य की ओर भी ले जाया जा सके। सरकार को सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि बुनियादी ढ़ांचे के उन्नयन के दौरान भी वास्तुकला की प्रमाणिकता को अक्षुण्य बनाये रखा गया है। अन्यथा अतीत हमेशा के लिए मिट जायेगा।  

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