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पेंशन सुधार व्युत्क्रम? एनपीएस देश के लिए लाभकारी

पुरानी पेंशन स्कीम (ओपीएस) के चलते सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ रहा था इसलिए भारत पुरानी पेंशन प्रणाली को दोबारा अपनाने का जोखिम नहीं उठा सकता। सरकारी कर्मचारियों से जुड़ा यह मुद्दा राजनीतिक रूप से भी संवेदनशील है इसलिए नई पेंशन योजना को कर्मचारियों के लिए और अधिक आकर्षक बनाना होगा।  - के.के. श्रीवास्तव

 

भारतीय रिजर्व बैंक के एक हालिया अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि यदि पूरे भारत में पुरानी पेंशन योजना (ऑपीएस) को वापस लाया जाता हैतो सरकारों पर संचयी राजकोषीय बोझ मौजूदा राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली पर किए जा रहे खर्च से साढे चार गुना ज्यादा होगा। यह सरकारी खजाने के साथ एक गंभीर समझौता होगा। स्मरण रहे की हाल के दिनों में गैर भाजपा शासित पांच राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, पंजाब और हिमाचल प्रदेश ने सरकारी कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना वापस लागू करने के फैसले की घोषणा की है। महाराष्ट्र ने भी पुरानी योजना के बारे में पुनर्विचार का संकेत दिया है।

गैर भाजपा शासित राज्यों द्वारा उलटफेर करते हुए पुरानी पेंशन योजना की घोषणा के बाद केंद्र की सरकार ने नई पेंशन योजना को पर्याप्त आकर्षक बनाने के तरीकों पर गौर करने के लिए एक समिति का गठन किया है। समिति को यह देखना है की राजकोष पर अधिक भार न डालते हुए नई पेंशन योजना को किस तरह और अधिक आकर्षक बनाया जा सकता है। दुनिया भर के देश परिभाषित योगदान योजनाओं की ओर बढ़ रहे हैं ऐसे में भारत के पुरानी पेंशन योजना पर लौटने से भावी पीढ़ी के हितों से समझौता होगा। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुमान के मुताबिक वर्ष 2022-23 में 16 प्रतिशत की वृद्धि के साथ पेंशन में खर्च चार लाख करोड़ से ऊपर हो जाएगा जबकि पिछले वर्ष यह 3.9 लाख करोड रुपए था। वर्ष 2050 तक भारत की आबादी 164 करोड़ होगी तब सरकार को ओपीएस पर और अधिक  खर्च करने होंगे। वर्ष 2060 तक ओपीएस के तहत सरकारी खजाने पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक प्रतिशत का बोझ होगा। दरअसल ब्याज भुगतान वेतन और पेंशन भुगतान को प्रतिबद्ध व्यय माना जाता है क्योंकि इन मदों में हर महीने खर्च का होना निश्चित है। इन मदों में वित्त वर्ष 2021 तक औसतन 56 प्रतिशत ब्यय राज्यों के राजस्व से किया जा रहा था, अब राज्यों के खर्चे आमदनी के हिसाब से बहुत अधिक बढ़ते जा रहे हैं। राज्यों का पेंशन देय उनके प्रतिबद्ध ब्याज का लगभग 38 प्रतिशत है।

भारत जैसे बड़े और विविधतापूर्ण देश में विशेष रूप से सीमित सामाजिक सुरक्षा उपायों के साथ सरकार को आर्थिक सुधारो को आगे बढ़ाने में कठिनाई होती है। कम लागत वाली वैसी योजनाएं जो दीर्घकालिक लाभ दे सकती हैं उनके लिए भी कठिनाइयाँ खड़ी होती हैं। हाल के बरसों में जीवन स्तर में सुधार तथा गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा उपलब्ध होने के कारण हमारी औसत आयु में भी वृद्धि हुई है। वर्ष 2050 तक हमारे देश में बुजुर्गों की संख्या 32 करोड़ से अधिक होगी। ऐसे में हमें सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे जैसी पूंजीगत संपत्तियों के निर्माण में अधिक धनराशि की जरूरत होगी। यदि देश पुरानी पेंशन की ओर लौटेगा तो पेंशन मद इतना बढ़ जाएगा कि आधारभूत बुनियादी जरूरत के लिए सरकार के पास धनराशि ही नहीं होगी।

आज दुनिया के कई देश परिभाषित लाभ व्यवस्था से दूर परिभाषित योगदान पेंशन योजनाओं की ओर बढ़ रहे हैं। राजकोषीय बोझ कम करने के लिए अन्य तरह के कदम भी उठाए जा रहे हैं इनमें पेंशन लाभ कम करना, सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाना और सरकारी खजाने पर बोझ कम करने के लिए योगदान दरें बढ़ाना भी शामिल है। भारत में पेंशन पर व्यय 1990 के दशक के दौरान सकल घरेलू उत्पाद के 0.6 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2022-23 में सकल घरेलू उत्पाद के 0.7 प्रतिशत पर लगभग तीन गुना बढ़ गया है। एसबीआई के चलते एक और राजकोषीय संतुलन बिगड़ता जा रहा है वहीं दूसरी ओर वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक परियोजनाओं में कंजूसी की जाती है।

पेंशन का भुगतान सरकार के वर्तमान राजस्व से किया जाता है। विशेष रूप से पेंशन देनदारी में वृद्धि की गति राजस्व वृद्धि की तुलना में अधिक तेज है। जाहिर तौर पर इसे लंबे समय तक कायम नहीं रखा जा सकता। यही कारण है कि अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और जापान जैसे देश लाभार्थी पर अपने स्वयं के सेवानिवृत्ति सुरक्षा जाल प्रदान करने के लिए अधिक जिम्मेवारी डाल रहे हैं। इससे सेवानिवृत व्यक्ति को अपनी सेवानिवृत्ति के बाद की संपत्ति पर नियंत्रण भी अधिक मिलता है।

सरकारी नौकरी में पेंशन योजना कार्मिक और उसके परिवार के जीवन तथा विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पेंशन के बारे में कार्मिक का मानस होता है कि यह आय का स्थिर स्रोत प्रदान करती है। पुरानी पेंशन योजना में व्यक्ति को किसी तरह के निवेश का जोखिम नहीं होता है, उसे बाजार के उतार-चढ़ाव से कोई फर्क नहीं पड़ता। 30-40 साल तक नौकरी करने के बाद हर कार्मिक चाहता है कि अपने सूर्यास्त के वर्षों में वह एक स्थिर आय का हकदार हो और बचे-खुचे जीवन का आनंद ले सके। पुरानी पेंशन योजना से पूरे परिवार के हितों की गारंटी मिलती है। जैसे पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा को आजीवन इसका लाभ दिया जाता है, पेंशन के लिए वेतन से कोई कटौती नहीं होती। यह सुरक्षित पेंशन योजना है, इसका भुगतान सरकार की ट्रेजरी से किया जाता है। लेकिन यह भी तय है कि पुरानी पेंशन व्यवस्था के तहत जिन लोगों को लाभ दिया जा रहा है वे देश की समस्त जनता के विकास संसाधनों पर ही आधारित है। रिजर्व बैंक का यह भी कहना है कि एनपीएस के तहत सेवानिवृत्ति कोष में राज्यों का वार्षिक योगदान 2039 तक सकल घरेलू उत्पाद के 0.1 प्रतिशत से बढ़कर 0.2 प्रतिशत होने की संभावना है, लेकिन उसके बाद इसमें गिरावट शुरू हो जाएगी। दूसरी तरफ यदि राज्य पुरानी पेंशन स्कीम का विकल्प चुनते हैं और एनपीएस को छोड़ देते हैं तो तत्काल योगदान शून्य हो जाएगा, जिससे भविष्य में पेंशन खाते पर व्यय अधिक महंगा साबित होगा।

देश में जब भी कोई चुनाव नजदीक आता है तो चुनावी राजनीति को आगे कर कर्मचारी पुरानी पेंशन को लेकर सरकारों पर दबाव बढ़ाते हैं। कई बार सरकारें वास्तविक जोखिम को दरकिनार कर चुनाव के दबाव में उनकी मांगे मान लेती है। लेकिन सामान्य तौर पर भी राज्यों को राजनीतिक लाभ का विकल्प चुनने से बचना चाहिए क्योंकि ऐसे सभी लाभों पर दीर्घकालिक ग्रहण लगने की संभावना अधिक है। आज यदि सभी राज्य ओपीएस को अपनाते हैं तो अतिरिक्त व्यय 2030 के दशक के मध्य तक एनपीएस के तहत होने वाली राशि के बराबर होगा और 2040 तक इससे अधिक हो जाएगा इसके बाद अतिरिक्त बोझ और तेजी से बढ़ेगा और 2060 के दशक की शुरुआत तक सालाना सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत तक पहुंच जाएगा।

बहरहाल पुरानी पेंशन बहाली की बढ़ती मांग के मद्देनजर सरकार एनपीएस में बदलाव की तैयारी कर रही है जिससे लोगों के पेंशन राशि में कुछ और वृद्धि हो सके। हिमाचल प्रदेश में भाजपा की हार के कारण इस बात को और अधिक बल मिला है।

देश में कुल भारतीय कार्य बल के पांच प्रतिशत हिस्सा सरकारी कर्मचारियों का है, और उनकी हिस्सेदारी लगातार कम हो रही है। ऐसे में गिनती के कर्मचारियों के दबाव के आगे देश की मुकम्मल आबादी के विकास और बेहतरीन जीवन की प्रत्याशा के साथ समझौता करना कहीं से भी न्याय संगत नहीं है। सरकार को आम मतदाताओं को यह शिक्षित करने की जरूरत है कि केवल सरकारी कर्मचारी ही देश में नहीं रहते हैं। ठीक है कि उन्हें पेंशन का लाभ मिलना चाहिए लेकिन कुल मिलाकर यह जन समर्थक फैसला नहीं हो सकता क्योंकि देश की एक बहुत बड़ी आबादी इस तरह के लाभों से प्रायः वंचित है। ओपीएस का बोझ अगर सरकार पर ना पड़े तो उसी धनराशि से ऐसे लोगों के कल्याण के लिए कई योजनाएं प्रारंभ की जा सकती हैं। भारत का 80 प्रतिशत से अधिक कार्य बल आज अनौपचारिक क्षेत्र में है। जिसे रोजगार का कोई लाभ नहीं मिलता और न ही वृद्धावस्था में पेंशन जैसी कोई सुरक्षा व्यवस्था ही मिल पाती है। ऐसे में सबका ध्यान रखते हुए यह तय किया जाना चाहिए कि देश पुरानी पेंशन व्यवस्था की ओर लौटने की बजाय एक अधिक स्वीकार प्रणाली विकसित करें जो भविष्य में सेवानिवृत्त लोगों के साथ-साथ अनौपचारिक क्षेत्र में भी काम करने वालों की पर्याप्त देखभाल कर सके।               

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