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आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता दवा क्षेत्र

भारत सरकार को सजग रहते हुए एपीआई के क्षेत्र में चीन द्वारा की जा रही डंपिंग को रोकने के लिए हरसंभव प्रयास करने होंगे। यह बात सिर्फ एपीआई के मामले में ही नहीं बल्कि अन्य रसायनों के क्षेत्र में भी लागू होती है। - स्वदेशी संवाद

 

लंबे समय से चीन पर निर्भर भारत के फार्मा क्षेत्र को अब कुछ राहत मिलने लगी है; कारण है आत्मनिर्भर भारत अभियान। गौरतलब है कि वर्ष 2000 तक भारत का दवा निर्माण क्षेत्र लगभग पूरी तरह से आत्मनिर्भर था। दवा निर्माण में जो आवश्यक सामग्री इस्तेमाल होती है, उसे एक्टिव फार्मास्यूटिक्ल इंग्रीडिएंट्स यानि एपीआई के नाम से जाना जाता है। वर्ष 2000 तक दवा निर्माण के क्षेत्र में जिन एपीआई की आवश्यकता होती थी, वे अधिकांशतः भारत में ही निर्मित होते थे। देश में इनके निर्माताओं में आवश्यक प्रतिस्पर्धा भी थी, जिसके कारण दवा निर्माताओं को देश में एपीआई आसानी से और उचित कीमत पर उपलब्ध होते थे। इसके कारण देश का दवा उद्योग न केवल तेजी से आगे बढ़ रहा था, बल्कि दुनिया भर के लोगों को उचित कीमत पर आवश्यक दवाएं उपलब्ध कराने में भी समर्थ था।

चीन ने एक षडयंत्र के तहत भारत के एपीआई क्षेत्र को तबाह करना शुरू किया। चीन से आने वाले एपीआई को अत्यंत ही कम कीमतों पर भारत में भेजा जाने लगा। इसका असर यह हुआ कि भारत का एपीआई उद्योग प्रतिस्पर्धी नहीं रहा और हमारी एपीआई इकाईयां धीरे-धीरे करके बंद होने लगी। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट की जा सकती है। एमोक्सीसाइकिल्न नाम की एंटीबायोटिक दवा, एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रीडिएंट पेनीसिलिन-जी से व्युत्पन्न उत्पाद है। पेनीसिलिन-जी नाम की एपीआई भारत में पर्याप्त मात्रा में बनती थी और उसका अंतर्राष्ट्रीय मूल्य लगभग 22 डॉलर प्रतिकिलोग्राम था। लेकिन चीन ने इस एपीआई की डंपिंग 9 डॉलर प्रतिकिलो से भी कम पर करनी शुरू कर दी। इसके कारण भारत की इस एपीआई को बनाने वाली इकाईयां बंद हो गई। उसके बाद चीन ने इसी एपीआई को पहले दोगुणा और फिर चार गुणा कीमत पर बेचना शुरू कर दिया। किसी विकल्प के अभाव में भारत की दवा कंपनियों को यह एपीआई, चीन द्वारा निर्धारित कीमत पर खरीदना जरूरी हो गया।

लगभग यही स्थिति अन्य एपीआई की भी रही और कई एपीआई पूर्व से 10 से 20 गुणा कीमत पर भी बेचे जाने लगे। उदाहरण के लिए फॉलिक एसिड जो विटामिन की दवा बनाने के काम आता है, की कीमत 13 गुणा से भी ज्यादा बढ़ा दी गई थी। ऐसी स्थिति दवाओं के लगभग सभी एपीआई के संदर्भ में थी। कीमतों में सबसे अधिक वृद्धि कोरोना काल में देखी गई और यह समझ में आना शुरू हुआ कि देश में एपीआई उद्योग की पुर्नस्थापना, केवल दवा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए या दवाओं की कीमतों को कम करने के लिए ही नहीं, बल्कि देश में स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए भी जरूरी है। यह सर्वविदित ही है कि चीन भारत के साथ शत्रुतापूर्ण संबंध रखता है, इसलिए दवा के लिए आवश्यक सामग्री हेतु चीन पर निर्भर नहीं किया जा सकता।

एपीआई में आत्मनिर्भरता

मई 2020 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन सभी वस्तुओं, जिनका उत्पादन चीन और अन्य देशों द्वारा डंपिंग के कारण बाधित हो गया था, के उद्योगों को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से और देश में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने और विदेशों पर निर्भरता को समाप्त करने के उद्देश्य से, आत्मनिर्भर भारत अभियान की शुरूआत की। प्रारंभिक तौर पर इसके लिए जिन वस्तुओं की 13 श्रेणियों को चिन्हित किया गया, उनमें एपीआई भी शामिल थे। आत्मनिर्भरता हेतु अपनाए गए उपायों में से एक महत्वपूर्ण उपाय को उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन यानि प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) के रूप में जाना जाता है। 

हर्ष का विषय यह है कि यह योजना अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने लगी है और देश दवा उद्योग के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो रहा है। उदाहरण के लिए पेनिसिलिन-जी जिसका भारत में उत्पादन बंद हो गया था, जिसके कारण भारतीय उद्योगों से इस एपीआई की ऊंची कीमत वसूली जा रही थी, अब उसके उत्पादन हेतु ऑरविन्दो फार्मा लिमिटेड, टोरेंट फार्मास्यूटिकल आदि कंपनियों ने इसकी उत्पादन इकाईयां शुरू कर दी है और माना जा रहा है कि ऑरविन्दो फार्मा इस पेनिसिलिन-जी एपीआई का उत्पादन अप्रैल, 2024 में और टोरेंट जून-जुलाई, 2024 में शुरू कर देगा। स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया का यह कहना है कि पीएलआई योजना और अन्य प्रयासों के कारण आज भारत अधिकांश एपीआई में आत्मनिर्भरता हासिल कर चुका है, जिसके कारण चीन पर निर्भरता कम हुई है। सितंबर 2023 तक पीएलआई स्कीम के तहत फार्मा कंपनियों को 4000 करोड़ रूपए और मेडिकल उपकरणों के लिए 2000 करोड़ रूप्ए के निवेश की अनुमति दी जा चुकी थी। इसके अलावा केन्द्र ने 3000 करोड़ रूप्ए की लागत से तीन बल्क (थोक) ड्रग पार्कों का निर्माण किया है।

घटने लगी है कीमतें

जैसे-जैसे एपीआई के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के सुपरिणाम आने लगे हैं, वैसे-वैसे एपीआई की कीमतें भी घटने लगी हैं। फार्मा उद्योग के जानकार बता रहे हैं कि एपीआई की कीमतों में कोविड के समय से अभी तक 50 प्रतिशत की कमी आई है, इसमें से सबसे तेज गति से कमी पिछले दो महीनों में ही आई है। समझा जा सकता है कि कोविड काल में जब एपीआई के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के प्रयास शुरू हुए थे, अब वे फलीभूत होना शुरू हुए हैं। इकॉनोमिक टाइम्स की एक खबर के अनुसार बुखार की दवा पैरासिटामोल के एपीआई की कीमत जो कोविड काल में 900 रूपए प्रतिकिलो पहुंच गई थी, वह घटकर अब मात्र 250 रूपए प्रतिकिलो रह गई है। उसी प्रकार अस्थमा की दवा मॉनटैलूकास्ट सोडियम 45000 रूपए प्रति किलो से घटकर मात्र 28000 रूपए प्रति किलो रह गई है। एंटीबायोटिक मेरोपिनेम की एपीआई की क़ीमत 75000 रूपए प्रतिकिलो से घटकर 45000 रूपए प्रतिकिलो तक पहुंच गई है।

जानकारों का मानना है कि भारत में एपीआई उत्पादन में उठाव के चलते चीन का दवा (एपीआई और मध्यवर्ती उत्पाद समेत) कार्टेल पिछले छः महीने में टूट चुका है। शायद चीन को इस बात का आभास नहीं था कि भारत इतनी बड़ी तादाद में अपने दवा उद्योग को पुनर्जीवित करेगा, इसलिए उसने दुनिया भर के दवा उद्योग पर कब्जा जमाने की दृष्टि से अतिरिक्त क्षमता का निर्माण कर लिया था। अब ऊंच क्षमता के कारण चीन में एपीआई की आपूर्ति बहुत अधिक बढ़ने के कारण कीमतों में कमी स्वभाविक परिणाम है। गौरतलब है कि वर्ष 2021-22 में भारत द्वारा एपीआई के आयात में भारी वृद्धि हुई थी। वर्ष 2022-23 में भी इसमें कुछ वृद्धि देखी गई, लेकिन यह भी सच्चाई है कि जितनी थोक दवाओं का आयात वर्ष 2022-23 में हुआ, उससे लगभग 12300 करोड़ रूपए ज्यादा का निर्यात भारत से किया गया था।

अब चूंकि देश में भारी मात्रा में एपीआई का निर्माण होना शुरू हुआ है, एपीआई की घटती कीमतें उसका द्योतक हैं। लेकिन सरकार को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि जो उद्योग पीएलआई और सतर्क सरकारी नीतियों के कारण पुनर्जीवित हुए हैं, वे चीन द्वारा पुनः डंपिंग का शिकार न बन जाएं। पीएलआई स्कीम के तहत जिन उद्यमियों ने निवेश किया था, उनकी सबसे बड़ी शंका इसी बात को लेकर थी।

भारत सरकार को सजग रहते हुए एपीआई के क्षेत्र में चीन द्वारा की जा रही डंपिंग को रोकने के लिए हरसंभव प्रयास करने होंगे। यह बात सिर्फ एपीआई के मामले में ही नहीं बल्कि अन्य रसायनों के क्षेत्र में भी लागू होती है। रसायन उद्योग के विशेषज्ञों के अनुसार, देश में ‘सोडियम साइनाइड’ के मामले में आत्मनिर्भरता लाने के उद्देश्य से यूनाइटेड फॉस्फोरस लिमिटेड (यूपीएल) और हिंदुस्तान केमिकल लिमिटेड (एचसीएल) नामक दो भारतीय कंपनियों ने 500 करोड़ रुपये की लागत से अपने संयंत्र स्थापित किए हैं। लेकिन इन संयंत्रों के स्थापित होने के बाद से ही चीन, यूरोपीय संघ, जापान और दक्षिण कोरिया ने अपनी उत्पादन लागत में वृद्धि के बावजूद सोडियम साइनाइड की जमीन पर पहुंच कीमत को कम करने के लिए अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल कर डंपिंग करना शुरू कर दिया है। इससे यूपीएल और एचसीएल द्वारा उत्पादन आर्थिक रूप से अलाभकारी हो रहा है। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के व्यापार उपचार महानिदेशक (डीजीटीआर) ने चीन और यूरोपीय संघ से आयात पर डंपिंग रोधी शुल्क लगाने का प्रस्ताव दिया है। लेकिन उद्योग के लिए ऐसी राहत पाने की प्रक्रिया लंबी और थकाऊ है, देश को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में एक विशेषज्ञ खुफिया एजेंसी बनाने की आवश्यकता है ताकि अन्य देशों और उनके व्यवसायों द्वारा अनैतिक व्यापार व्यवहार की ऐसी किसी भी स्थिति से सफलतापूर्वक निपटा जा सके।  

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