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लोकलुभावन बनाम लोककल्याण: महंगी ना पड़ जाए मुफ्त की मिठाई

मुफ्तखोरी न केवल लालची नागरिक तैयार करती है बल्कि लोकतंत्र पर भी कुठाराघात करती है। — अनिल तिवारी

 

भारत की इस प्राचीन अवधारणा कि “दुनिया में भगवान की कृपा के अलावा कुछ भी मुफ्त नहीं होता“ पर बीसवीं शताब्दी में मुहर लगाते हुए ’नो सच थिंग ऐज फ्री लंच’ कहने वाले मौद्रिक अर्थशास्त्र के पितामह, नोबेल विजेता, मिल्टन फ्रीडमैन ने मुफ्त नीति पर एक पुस्तक लिखी थी जिसमें लोक नीति पर उन्हीं के निबंध संकलित थे। वैसे तो विश्व के सभी देश अपनी आर्थिक नीति अपने नागरिकों की जरूरतों उपलब्ध संसाधनों और आर्थिक एवं राजनीतिक विचारधारा को ध्यान में रखकर अपनाते हैं, परंतु लोकतांत्रिक देशों में देखा गया है कि जनता द्वारा चुनी गई सरकार लोक कल्याण को प्राथमिकता देते हुए अक्सर लोकलुभावन नीतियों को अपना लेती है, जिससे उसका पुनर्निर्वाचन सुनिश्चित हो सके। ऐसी नीतियों में बहुलता मुफ्त में दी जाने वाली उन वस्तुओं और सुविधाओं की होती है जिससे अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की जा सके।

पिछले दिनों देश को बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे की सौगात देते हुए प्रधानमंत्री ने’ मुफ्त की रेवड़ी कल्चर’ का जिक्र करके एक नई बहस छेड़ दी है। प्रधानमंत्री ने राजनीति में एक तरह से लोकलुभावन बनाम लोक कल्याण पर नए सिरे से गौर करने की बात कही है, वे चाहते हैं कि आवाम मुफ्त की सुविधाओं के नाम पर वोटों की सौदागरी करने वाले राजनीतिक दलों के प्रति सचेत रहे। वैसे मुफ्त जैसा कुछ नहीं होता, यदि किसी वर्ग को मुफ्त में कुछ मिल रहा है तो यकीन मानिए वह उसकी कोई अन्य कीमत दे रहा होता है। इसीलिए प्रधानमंत्री को लगता है कि आवाम को जागरूक किया जाना जरूरी है कि मुफ्त की रेवड़ियों के फेर में अपने वोट का अपमान न होने दें। दरअसल फ्री सेवाएं और सुविधाएं देश में बड़ी योजनाओं, जिनमें आधारभूत ढांचा तैयार करने वाली योजनाएं भी शामिल होती है, के लिए संसाधनों के अभाव के हालात पैदा कर देती हैं। फलस्वरूप देश में आर्थिक विकास की राह सहज नहीं होने पर भी आर्थिक दृष्टि से भी खासे संसाधन जुटाकर तैयार सुविधाएं और सेवाएं मुफ्त में लुटाया जाना अनुचित है। कुल मिलाकर मुफ्तखोरी न केवल लालची नागरिक तैयार करती है बल्कि लोकतंत्र पर भी कुठाराघात करती है।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में स्थापित भारत देश जहां हर वर्ष कोई न कोई चुनाव होता ही रहता है, इससे अछूता नहीं है। यहां चुनाव के पहले मुफ्त बिजली, पानी, साइकिल, टेलीविजन, लैपटॉप कर्जमाफी धर्म स्थलों की यात्राएं आदि आज विभिन्न प्रकार के लोकलुभावन मुद्दे उठते हैं और जनता अपनी सुविधा के अनुसार तीन मुफ्त घोषणाओं के बदले जन्म देकर सरकार के निर्वाचन में अपना योगदान देती है। जब ऐसे मुद्दे और नीतियां सत्ता साधने का माध्यम बन जाए तो हर राजनीतिक दल इन प्रश्नों पर चर्चा करने से परहेज करता है। भारी राजकोषीय घाटे के बावजूद पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार ने मुफ्त बिजली की घोषणा की है। आम आदमी पार्टी अन्य प्रदेशों में भी अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए सब कुछ फ्री की घोषणा करती जा रही है। बीते सोमवार (8 अगस्त 2022) को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने किसी पार्टी, सरकार या नेता विशेष का नाम लिए बिना इशारों में ही केंद्र सरकार पर हमला बोला है और फ्री सुविधाओं को मुफ्त की रेवड़ी कहे जाने की कड़ी आलोचना करते हुए राष्ट्रवाद की नई परिभाषा गढ़ने की भी कोशिश की है।

ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि जिसे प्रधानमंत्री फ्री की रेवाड़िया कह रहे हैं उससे अरविंद केजरीवाल जैसे नेतागण जनकल्याणकारी बताकर लोगों की गोलबंदी करने में जुटे हुए हैं। दरअसल फ्री की रेवड़ियां और जनकल्याणकारी योजनाओं और लोकलुभावन नीतियों के बीच एक बहुत हल्की सी पतली सी लकीर है। दूसरी तरफ पारदर्शिता व जवाबदेही की कमी जनकेंद्रित नीतियों के अभाव, सामुदायिक भागीदारी का न होना और इमानदारी से समीक्षा या निगरानी न किए जाने के कारण कल्याणकारी योजनाएं देश में कारगर ढंग से लागू नहीं हो पा रही है। जिस तरह से योजनाएं बनाई जा रही है उसके पीछे सरकार का इरादा क्या है और इन्हें लागू करने में वह कितनी गंभीर है, इसकी पड़ताल भी बहुत जरूर होनी चाहिए। अधिकतर योजनाएं चुनाव के दौरान लोगों को खुश करने के लिए घोषित की जाती है, लेकिन उनके लिए वित्तीय आवंटन निहायत का नाकाफी रहता है, जिससे योजना सफल होने से पहले ही दम तोड़ देती है। चाहे केंद्र सरकार हो अथवा राज्य सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए साधन आवंटित करते समय इस बात पर फोकस जरूर करना चाहिए कि संबंध जनसमूह को मदद की जरूरत है भी की नहीं। यह भी देखना अपरिहार्य है कि कम से कम कितनी राशि उपयुक्त रहेगी। भारत में केंद्र और राज्य सरकारें आज पूर्ति आधारित नीति पर चल रही है। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार की किसान सम्मान निधि की अनुपालन में प्रत्येक किसान परिवार को 6000 रू. प्रति सालाना किस प्रयोजन से दिए जा रहे हैं तथा किसान इसका किस प्रकार से उपयोग कर रहा है, देश को इसकी जानकारी अभी तक नहीं है। प्रतिवर्ष 36000 करोड रुपए तय करने के बाद भी सीमांत और लघु कृषकों की आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है, यह चिंता की बात है। देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों के मतानुसार मुफ्त में सामान से वाया मुद्रा देना एक प्रकार का वायरस है। राजनीतिक दलों को इस बात की भी परवाह नहीं है कि इससे बैंकिंग व्यवस्था किस प्रकार से प्रभावित होगी। भारत की जनता को भी समझना होगा कि खुशहाली मुफ्तखोरी में नहीं आती, निर्भर बनने में है।

स्वदेशी जागरण मंच ने देश भर में स्वावलंबी योजना की शुरुआत कर सब को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाया है। भारत एक सामाजिक कल्याण की सोच वाला देश है। लोकतंत्र के नाते जनता के प्रति सरकार के भी अपने दायित्व है। असम, बिहार, पंजाब, कर्नाटक, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों की वित्तीय स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, क्योंकि इन राज्यों ने ऋण का भार अधिक होने पर भी लोकप्रिय बनने के लिए अरबों रुपय मुफ्त योजनाओं पर खर्च किए हैं। सवाल यह है कि ऐसी मुफ्तखोरी से जनकल्याण कैसे होगा? इस तरह चलने से तो राज्य ही दिवालिया होने की कगार पर आ जाएंगे। यही कारण है कि सर्वोच्च अदालत ने भी रेवडियां की सियासत पर अपनी चिंता और सरोकार जताए हैं। शुरू में मुफ्त की रेवड़ियों का चलन देश के दक्षिणी हिस्सों में दिखता था, अब वह धीरे-धीरे उत्तर भारत में भी घर कर गया है।

स्टेट फाइनेंस रिस्क एनालिसिस नाम से आई एक रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इन राज्यों की सेहत अत्यधिक कर्ज लेने के कारण बिगड़ रही है। हालात यह है कि राज्य अपनी आमदनी का 10 प्रतिशत तो ब्याज चुकाने पर ही खर्च कर रहे हैं। पंजाब और पश्चिम बंगाल में तो यह आंकड़ा 20 प्रतिशत के पार है। यानी कि राज्यों की आमदनी का पांचवा हिस्सा केवल ब्याज चुकाने में ही खर्च हो रहा है। ऐसे में सतत् विकास की उम्मीद कैसे साकार की जा सकती है। हालांकि इसकी तुलना हाल ही में दिवालिया हो चुके श्रीलंका या उसी दिशा में तेजी से बढ़ रहे पाकिस्तान से बिल्कुल नहीं की जा सकती। लेकिन वहां की घटनाओं से सबक सीखने और सतर्क हो जाने में कोई हर्ज नहीं है। मुफ्तखोरी किस तरह से हालात में तबाह करती है यह देखना हो तो उन राज्यों की बिजली व्यवस्था देखी जानी चाहिए, जहां चुनाव सस्ती और मुफ्त बिजली के वादे पर लड़े जाते हैं। आज देश में बिजली अब मांग से ज्यादा बन रही है यानी कि जितनी बिजली चाहिए, उतनी बिजली उपलब्ध है। परंतु कई राज्य सरकारों के पास पैसे ही नहीं है कि उस बिजली को खरीद सके, क्योंकि तमाम राज्यों के बिजली बोर्ड कंगाली की स्थिति में पहुंच चुके हैं। कोप्रबंधन, मुफ्तखोरी और राजनीतिक हस्तक्षेप इसके लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं।

इसलिए भी लोकलुभावनवाद पर प्रधानमंत्री की चेतावनी को सुधार की मंशा से देखे जाने की जरूरत है। स्वदेशी जागरण मंच ने इसी गरज से आत्मनिर्भर भारत की मशाल को गांव-गांव तक पहुंचाने और हर हाथ को काम और हर काम का उचित दाम के लिए स्वावलंबी भारत अभियान के तहत दीर्घकालीन नीतियों पर जोर दिया है। स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह संयोजक डॉ. अश्वनी महाजन का कहना है कि आत्मनिर्भरता की पहल सही दिशा में उठाया गया कदम है, जो स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा देता है और कई आर्थिक क्षेत्रों के लिए उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन कार्यक्रमों की जमीन तैयार कर रहा है। इस पृष्ठभूमि में लोगों के प्रति अपने न्यूनतम जिम्मेदारी तक पूरी करने में नाकामी से ध्यान हटाने के लिए राजनेता जिस तरह मुफ्त की चीजें बांट रहे हैं, वह किसी कल्याणकारी पहल से किस तरह अलग है इसे लेकर मतदाताओं को जागरूक किए जाने की जरूरत है इससे हम निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को अधिक जवाबदेह जनकल्याण के लिए सरकारों की प्रतिबद्धता बढ़ाकर लोगों का जीवन बेहतर कर सकते हैं। डॉक्टर महाजन कहते हैं कि यही लोकतंत्र का मूल मंत्र भी है।                

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