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क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की रेटिंग पक्षपात पूर्ण

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट रेटिंग एजेंसियों द्वारा निडरतापूर्वक की जा रही पक्षपात पूर्ण अनुचित औरदोस्त पूर्ण मूल्यांकन के खिलाफ जोरदार आवाज उठाने की तत्काल आवष्यकता है। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के ऐसे घटिया व्यवहार के प्रति ज़ीरो टालरेंस होना ही चाहिए। - के.के. श्रीवास्तव

 

भारत आज सबसे अधिक और सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और अगले कुछ वर्षों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की दिषा में अग्रसर है। विपरीत परिस्थितियों में भी भारत ने ऋण पुनर्भुगतान में कभी कोई चूक नहीं की है, लेकिन व्यवहार में भेड़ चाल की अभ्यस्त अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने मनमानी करते हुए पक्षपात पूर्ण तरीके से भारत की स्थिति को कमतर आंकने की हरकत की है। भारत को ऐसे दोषपूर्ण मूल्यांकन के खिलाफ तेज आवाज उठाने के साथ-साथ ऐसे घटिया व्यवहार के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति अपनानी चाहिए।

मालूम हो कि संप्रभु क्रेडिट रेटिंग किसी देष या संप्रभु संस्था की साख का एक स्वतंत्र मूल्यांकन है। यह निवेषकों को राजनीतिक जोखिम सहित किसी विषेष देष के ऋण में निवेष से जुड़े जोखिम के स्तर के संबंध में अंतर दृष्टि प्रदान करती है। संप्रभु क्रेडिट रेटिंग की भूमिका विदेषी ऋण बाजरों में बांड जारी करने के अलावा प्रत्यक्ष विदेषी निवेष को आकर्षित करने में भी महत्वपूर्ण है। संप्रभु रेटिंग सरकारों की साख को उजागर करने का प्रयास करती है। ऋणदाताओं को यह निर्धारित करने में मदद करती है कि उधार लेने वाली सरकार अपनी ऋण चुकौती प्रतिबद्धताओं का सम्मान करेगी या नहीं? यदि किसी संप्रभु को दी गई रेटिंग कम है तो डिफॉल्ट का जोखिम अधिक है, क्योंकि सरकार को अधिक लागत पर तब ऋण लेना पड़ेगा। ऐसी रेटिंग्स देष के सभी व्यवसायियों के लिए मायने रखती है ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी देष की सरकार को उस देष के सभी उधारकरताओं में सबसे कम जोखिम भरा माना जाता है।

भारत अन्य विकासषील देषों की तरह पूंजी की कमी से ग्रस्त है। ऐसे में खराब रेटिंग के कारण ऋणदाताओं से उधार लेना और मुष्किल हो जाएगा। एक ओर यह आर्थिक विकास के लिए अपने अन्य संसाधनों का उपयोग करने में विफल रहेगा तो दूसरी ओर उत्पादकता प्रभावित होगी और गरीबी निरंतर बनी रहेगी।

यही कारण है कि तीनों अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां मूडीज, स्टैंडर्ड एंड पुअर्स और फिंच द्वारा की गई संप्रभु क्रेडिट रेटिंग न केवल किसी राष्ट्र की उधार लेने की क्षमता बल्कि आर्थिक प्रगति का मार्ग भी निर्धारित करने में महत्वपूर्ण हो जाती है। भारत लंबे समय से इन एजेंसियों द्वारा दी गई रेटिंग को लेकर चर्चा में रहा है। भारत सरकार की हमेषा षिकायत रही है कि इन एजेंसियों ने भारत की रेटिंग तय करते समय उचित व्यवहार नहीं किया है। एजेंसियों के अनुचित व्यवहार को लेकर भारत ने मोटे तौर पर तीन गंभीर मुद्दे उठाए हैं।

एक-ये रेटिंग एजेंसियां संदिग्ध कार्य प्रणाली अपनाती है जो स्वाभाविक रूप से विकासषील देषों के खिलाफ काम करती प्रतीत होती है। उदाहरण के लिए रेटिंग एजेंसी फिंच विदेषी स्वामित्व वाले बैंकों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में अधिक महत्व देती है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का दबदबा है इसके अलावा मूल्यांकन का ऐसा आधार कल्याण और विकास को नजर अंदाज करता है क्योंकि हमारे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक कल्याण को आगे कर वित्तीय समावेषन की पहल प्राथमिकता के आधार पर करते हैं। (जैसे कि जनधन खाते को लेकर वित्तीय संस्थानों की भूमिका।)

दो-मूल्यांकन परामर्ष के लिए विषेषज्ञों का चयन गैर पारदर्षी तरीके से किया जाता है, जिससे मूल्यांकन की प्रक्रिया और अधिक संदिग्ध हो जाती है।

तीन-ये एजेंसियां विचार किए गए प्रत्येक पैरामीटर के लिए निर्धारित भार निर्दिष्ट नहीं करती हैं। भले ही ऐसे मापदंडों को कुछ संख्यात्मक भार दिए गए हो (उदाहरण के लिए फिंज 4 कारकों पर विचार करता है- संरचनात्मक विषेषताएं, बाहरी वित्त, सार्वजनिक वित्त और व्यापक आर्थिक दृष्टिकोण, नीतियां और संभावनाएं संबंधित सांकेतिक भार के साथ)। किसी भी स्थिति में यह सांकेतिक वजन गणना गलत आधार पर ही आधारित है। इनमें से अधिकांष भार कठिन वास्तविक डाटा पर आधारित नहीं है बल्कि वह व्यक्तिपरक मूल्यांकन पर अत्यधिक निर्भर हैं।

इन भारों पर पहुंचने के लिए कठिन आर्थिक डाटा का उपयोग नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यह भार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मीडिया की स्वतंत्रता, कानून का शासन, भ्रष्टाचार, विनिर्माण की गुणवत्ता, इतिहास जैसे मानदंडों पर आधारित हो सकता है। एजेंसियों के मूल्यांकन तरीकों में पारदर्षिता की कमी के कारण प्रभाव की मात्रा तय करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। आधे से अधिक क्रेडिट रेटिंग गुणात्मक घटक द्वारा निर्धारित की जाती है। इनमें से अधिकांष घटक वास्तव में संप्रभु की भुगतान करने की इच्छा का प्रतिनिधित्व भी नहीं कर सकते हैं।

यदि किसी को वित्तीय मापदंडों पर भारत की वित्तीय ताकत और स्थिरता का आकलन करना है तो भारत निष्चित रूप से इन तीन एजेंसियों द्वारा हाल ही में भारत को दी गई रेटिंग से बेहतर रेटिंग का हकदार है। अंतर-अस्थाई और अंतर-क्षेत्रीय दोनों स्तरों पर भारत के शानदार आर्थिक प्रदर्षन की पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि भारत एक बड़े उन्नयन का प्रबल हकदार है। उदाहरण के लिए मोदी जी ने भारत के राजकोषीय समेकन पर सीमित प्रगति के नाते चिंता व्यक्त की है। हालांकि भारत का राजकोषीय घाटा लक्षित स्तर पर नियंत्रित नहीं किया जा सका है लेकिन इसके नियंत्रण से बाहर होने का खतरा बहुत ही कम दिखाई देता है। भारत सरकार वित्तीय वर्ष 2026 तक 4.5 प्रतिषत घाटे का लक्ष्य रख रही है जो चालू वर्ष में 5.9 प्रतिषत से थोड़ा कम है। भारत अपना लक्ष्य हासिल करता हुआ दिखता है क्योंकि हाल के महीना में राजस्व में भारी उछाल आया है। इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के आकलन के अनुसार वित्त वर्ष 28 तक देष का ऋण स्तर सकल घरेलू उत्पाद के 100 प्रतिशत को पार कर सकता है। लेकिन हमें यहां ठहर कर देखना होगा कि इसी समय अवधि में अमेरिका, ब्रिटेन और चीन के लिए ऋण का स्तर क्रमषः 160 प्रतिषत, 140 प्रतिषत और 200 प्रतिषत आंका गया है। केंद्र और राज्यों को मिलाकर संयुक्त रूप से भारत का सामान्य सरकारी ऋण 88 प्रतिशत से घटकर 81 प्रतिशत तक आ गया है। बांड बाजार के माध्यम से विदेषी निवेष प्रवाह में उत्साहजनक रुझानों के कारण सरकारी उधारी में और भी कमी आने की उम्मीद है। ऐसे में रेटिंग एजेंसियों को विदेषी मुद्रा भंडार और भुगतान के आरामदायक संतुलन सहित वित्तीय मापदंडों को दिए गए भार को काफी हद तक संषोधित करने की जरूरत है।

अतीत में कई मौको परयह निर्णायक रूप से स्थापित हो चुका है की रेटिंग एजेंसियां समय से काफी पीछे रहती हैं और खासकर तनाव के समय में भेड़ चाल का व्यवहार प्रदर्षित करती हैं।

सुषासन, लोकतंत्र, नागरिकों की आवाज और जवाबदेही सुनिष्चित करना, कानून का शासन, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण यह सभी अपने आप में लक्ष्य हैं लेकिन ऋण चुकाने की क्षमता अंतत देष के व्यापक आर्थिक बुनियादी सिद्धांतों का एक महत्वपूर्ण कार्य है।

भारत के लिए सुधार की गुंजाइष है लेकिन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को भी अपनी रेटिंग में अधिक उद्देष्यपूर्ण मात्रात्मक और पारदर्षी होने की आवष्यकता है। क्योंकि बिना ऐसा किये उनकी विश्वसनीयता हमेषा शक के दायरे में होगी। लेकिन हमें कुछ प्रष्नों का भी समाधान करना होगा। पहला मुद्दा डाटा गुणवत्ता से संबंधित है जिस पर वर्तमान में बहस चल रही है। जनगणना डेटा के साथ-साथ घरेलू उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण डेटा को प्राथमिकता के आधार पर लिया जाना चाहिए।

कुल मिलाकर वैश्विक पूंजी के कुषल आवंटन के लिए निष्चित रूप से रेटिंग का खेल एक समान मैदान पर खेले जाने की आवष्यकता है ताकि निष्पक्ष रेटिंग सुनिष्चित की जा सके। भारत हर तरह की निष्पक्षता का हमेषा पक्षधर रहा है।         

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