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धर्मनिरपेक्षता की पुनर्कल्पना

धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी व्याख्या को भारत की बहुसंख्यक आबादी के साथ कभी स्वीकृति नहीं मिली, इसके कार्यान्वयन से केवल मुस्लिम अल्पसंख्यकों को अनुचित विशेष अधिकार प्रदान किए गए। — के.के. श्रीवास्तव

 

‘सी वोटर’ द्वारा हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण से यह बात उभर कर आई है कि भारत में व्यापक मुस्लिम विरोधी भावना व्याप्त है। हर पांच में से दो गैर मुस्लिम अपने पड़ोसी के रूप में किसी मुस्लिम को नहीं चाहता है। तीन चौथाई से अधिक गैर मुस्लिम का यह मानना है कि भारत में मुस्लिम आबादी उनके लिए उचित नहीं है। इसी तरह गैर मुस्लिमों का एक बड़ा तबका यह भी मान रहा है कि उनकी सुख-सुविधाओं में मुस्लिम आबादी आड़े आ रही है। कुल मिलाकर सर्वेक्षण स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि भारत में मुस्लिम विरोधी तबका मुस्लिम आबादी के प्रति अधिक असहिष्णु हो रहा है। सर्वेक्षण से यह सवाल निकलकर आ रहा है कि क्या मौजूदा शासन सत्ता इस बात को लगातार हवा दे रही है अथवा पहले से पनप रही बात को संज्ञान लेते हुए उसी के अनुरूप अपना राजनीतिक एजेंडा तैयार कर रही है, अथवा दोनों?

इसमें कोई दो राय नहीं कि आज के भारत में भाजपा की विचारधारा हावी है। इसलिए पुरानी धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा आज के भारत के मतदाताओं को कहीं से अपील नहीं करती है। जो लोग बीजेपी के आलोचक हैं वह हिंदुत्व की आलोचना करते हैं, क्योंकि यह भारत के उनके विचार के विरोध में है। उनका तर्क है कि जिस चीज को बढ़ावा दिया जा रहा है वह बहुसंख्यकवादी लोगों के संकीर्ण सोच वाली सांप्रदायिक विचारधारा है। लेकिन कई एक राष्ट्रवादी टिप्पणीकार मुख्य रूप से जो वर्तमान शासकों के पक्ष में खड़े हैं और एक नए भारत के पक्ष में बात करते हैं। उनका स्पष्ट कहना है कि भारत मुसलमानों के रहने के लिए एक अच्छी जगह है। राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत होकर वह साथ-साथ अमन चैन से रह सकते हैं लेकिन उन्हें यहां किसी बड़े आसन पर नहीं बिठाया जा सकता।

एक आम धारणा है कि हमारा संविधान कोई पत्थर की लकीर नहीं है। संविधान के प्रावधानों के बारे में आलोचनात्मक बहस की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। कुछ लोगों का मत है कि बाद के दिनों में प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द को जोड़कर चुपके से बढ़ाया गया और इसके बारे में अब तर्क करने की जरूरत है। इस बात पर कोई बहस नहीं है कि सत्ता में पार्टियां अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाती हैं। वर्तमान सत्ताधारी पार्टी भी चीजों को अपने हिसाब से आगे बढ़ा रही हैं। पार्टी एक ऐसे विचार पेश कर रही है जो आज का भारत चाहता है, जन मन की आकांक्षाओं को देखते हुए पार्टियां अपनी नीतियां तय करती ही हैं।

वैसे भी हमारे संविधान में सौ से अधिक सफलतापूर्वक संशोधन किए गए हैं। आजादी के 75 वर्षों में ऐसे बहुत से समय आए हैं जब हमारे संविधान की पुस्तक में निहित पवित्र सिद्धांतों के प्रति तत्कालीन सरकारों ने और उन सरकारों की पार्टियों ने कोई दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई है। उदाहरण के लिए धर्मनिरपेक्ष भारत में राज्यों ने समाहित सामूहिक रूप से हमारे देश के पूरे भूगोल में स्थित सैकड़ों हजारों मंदिरों के संचालन की निगरानी का निर्णय लिया है।

निश्चित रूप से वर्तमान शासन के कुछ आलोचक हैं जो आरोप लगाते हैं कि भाजपा धारा को मोड़ने का एक सफल प्रयास कर रही है और हिंदू उत्पीड़न का कार्ड राजनीति में खेल रही है। लेकिन लगे हाथ कुछ ऐसे भी हैं जो धर्मनिरपेक्षता के विचार को समान रूप से खारिज करते हैं क्योंकि इससे पहले के शासन के दौरान जो परिभाषित किया गया था और व्यवहार में लाया गया था वह सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए था। ऐसे लोगों का मानना है कि धर्मनिरपेक्षता शब्द संविधान के जरिए जोड़ा इसीलिए गया ताकि एक खास तबके के वोट की राजनीति की जा सके। इनका मानना है कि पहले के शासकों ने चतुराई से इस शब्द का इस्तेमाल केवल अल्पसंख्यकों को सूली पर चढ़ाने के लिए ही किया था जिसे अब ठीक करने की जरूरत है। धर्मनिरपेक्षता शब्द के जोड़े जाने से सांप्रदायिक संबंधों में कोई बड़ा सौहार्द नहीं आया, बल्कि स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई और अल्पसंख्यकों में स्थाई अधिकार की भावना पैदा होती गई। अल्पसंख्यक समूह वास्तव में तब बहुत प्रसन्न हुए जब संविधान के अनुच्छेद 25 से लेकर 30 में उनके धार्मिक अधिकारों को एक प्रीमियम दर्जा दिया गया। तीन राष्ट्रीय टिप्पणीकारों के अनुसार वह एक विशेष अधिकार प्राप्त समूह बन गए, जो अब सबके बराबर नहीं रहे।

भाजपा विचारधारा के तौर पर हमेशा से एक स्पष्ट पार्टी रही है। हिंदुओं के हित में खड़ा होने का उसका पुराना ट्रैक रिकॉर्ड रहा है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि पार्टी बहुसंख्यक आबादी को अपने पक्ष में गोलबंद करती रही है और एक पार्टी के तौर पर उसका ऐसा करना लाजमी भी है। कुछ विरोधी लोग भाजपा के इस प्रयास की आलोचना करते हैं तथा उपहास भी उड़ाते हैं। तथ्य यह है कि कांग्रेस ने चुनावी लड़ाई जीतने के लिए मुस्लिम मतदाता पर काम किया। अब अगर भारतीय जनता पार्टी काउंटर कथा बनाने की कोशिश कर रही है तो वह अनैतिक कैसे हो सकता है और सबसे बड़ी बात कि राजनीति कभी-कभी अनैतिक हो सकती है, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यह दांव राजनीति का ऊंचा खेल सबको इकट्ठा करने और जीतने का है।

तो ऐसे में भारतीय मुसलमानों के लिए रास्ता क्या है? एक साल पहले पुणे में ग्लोबल स्टेट जी पॉलिसी फाउंडेशन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परम पूज्य सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने कहा था कि समझदार और मुस्लिम नेताओं को कट्टरपंथी लोगों के विरुद्ध दृढ़ता से खड़ा हो जाना चाहिए। उन्होंने बताया था कि हिंदू शब्द मातृभूमे पूर्वज और भारतीय संस्कृति के बराबर है, यह अन्य विचारों का सम्मान नहीं है। हमें मुस्लिम वर्चस्व के बारे में नहीं, बल्कि भारतीय वर्चस्व के बारे में सोचना चाहिए।

एक उभरते हुए हिंदू राज्य में एक नया बहुमत भरा अल्पसंख्यक समझौता क्यों नहीं? नई वास्तविकता में हिंदुओं के पास अधिकार की भावना है इसलिए मुसलमान उन विशेष अधिकारों के लिए लड़ने की जोखिम नहीं उठा सकते, जिनका उन्होंने अभी कुछ साल पहले तक खूब आनंद लिया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पहले की सरकारों ने शासन सत्ता पर काबिज रहने के लिए तुष्टीकरण का मार्ग अपनाया तथा जरूरत पड़ने पर बहुसंख्यक आबादी को एक तरह से बहुसंख्यक आबादी की अनदेखी की। अब समय मिलने पर वह आबादी अपने आकांक्षा के अनुरूप राजनीतिक व्यवहार कर रही है तो यह एक तरह से जायज भी है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी भारत की विशाल संख्या को नेतृत्व प्रदान कर रही है, इसलिए उसे जन मन के अनुरूप खुद को आगे रखना ही चाहिए। अल्पसंख्यकवाद के नाम पर आखिर तुष्टीकरण की राजनीति कब तक की जाएगी, उसके फलित अर्थ क्या होंगे? यह देश ने पिछले 70 सालों में देखा है और भोगा भी है। अब अगर देश की जनता उससे आगे बढ़ना चाहती है तो उसमें कोई खामी नजर नहीं आती।

वास्तव में हमारा भारतीय समाज हमेशा से धार्मिक रहा है, बावजूद पहले के राजनीतिक दलों द्वारा पश्चिम के धर्मनिरपेक्षता के विचार आरोपित किए गए। लेकिन व्यवहारिक तौर पर इस विचार और विचार के बहाने निरंतर शोषण के कारण हिंदुओं के बीच असंतोष पैदा हुआ और बहुसंख्यक आबादी या मानने के लिए तैयार हो गई कि धर्मनिरपेक्षता वास्तव में गलत है। दरअसल धर्मनिरपेक्षता मुस्लिमों को सशक्त बनाने के लिए ही तो की गई इस छद्म धर्मनिरपेक्षता का उद्देश्य मुसलमानों को बिना फायदा पहुंचाए वोट बैंक के रूप में तो होना था। शिक्षा, सांस्कृतिक, पुनर्जागरण या जागृति उन्नति के किसी अन्य मानदंड के संदर्भ में उस समुदाय की स्थिति को देखने के बाद यह अपने आप स्पष्ट हो जाता है। यही कारण है कि धर्मनिरपेक्षता के विचार को किसी ने अपनाया, किसी ने अपनाया नहीं, न तो बहुसंख्यकों ने और न ही अल्पसंख्यकों ने।

ऐसे में आज की नई वास्तविकता को स्वीकारने का समय है। इस देश में मुसलमान तब भारत में समान नागरिक के रूप में बड़े आराम चैन से रह सकेंगे। 

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