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बढ़ता विदेशी मुद्रा भंडारः संतोष कम-चिंता ज्यादा

इतिहास गवाह है कि जब जब इन विदेशी निवेशकों पर कर लगाने के प्रयास हुए हैं, इन्होंने सरकार और देश को ‘ब्लैक्मेल’ कर इन प्रयासों को धत्ता दिखाया है। — डॉ. अश्वनी महाजन

 

नीति निर्माता हों अथवा गुलाबी (आर्थिक) समाचार पत्र या विदेशी निवेश समर्थक अर्थशास्त्री, सभी भारत में बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडारों से अभीभूत हैं। इस बाबत, सरकार अपनी पीठ थपथपाती दिखती है कि देश में निवेश वातावरण बेहतर हुआ है। गुलाबी समाचार पत्र बढ़ते विदेशी निवेशों के कारण उफनते विदेशी मुद्रा भंडारों को अर्थव्यवस्था की उत्तम स्थिति का बैरोमीटर मानते दिखाई देते हैं।

हालांकि पिछले तीन दशकों से लगातार हमारे विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ते रहे हैं, लेकिन पिछले 18 माह में यह वृद्धि पहले से कहीं ज्यादा तेज हो गई है। गौरतलब है कि 3 जनवरी 2020 में 431 अरब डालर से बढ़ते हुए 30 जुलाई 2021 तक विदेशी मुद्रा भंडार 620.57 अरब डालर तक पहुंच गए हैं। जहां 1991 में भारत ने एक ऐसी स्थिति का सामना किया हो कि हमारे पास मात्र 7 दिनों के आयातों के भुगतान के लिए भी विदेषी मुद्रा भंडार नहीं थे, आज यह स्थिति है कि हमारे विदेशी मुद्रा भंडार 15 महीने के आयातों के भुगतान के लिए भी सक्षम हैं, बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडार एक संतुष्टि का भाव अवश्य देते हैं। यह सही भी है कि यदि विदेशी मुद्रा भंडार पर्याप्त मात्रा में न हो तो विदेशी ऋणों के ब्याज और मूल को पुनर्भुगतान में कोताही का खतरा बना रहता है। 1991 में तो हमने इस खतरे को महसूस भी किया था, जब हमें बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास अपना सोना गिरवी रखने की नौबत भी आ गई थी।

उसी इतिहास का हवाला देते हुए कुछ अर्थशास्त्री वर्तमान में बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडारों को मंगलकारी मानते हैं। उनका कहना है कि विदेशी मुद्रा भंडार, देश के लिए एक बीमा का काम करते हैं, ताकि कभी ऐसी स्थिति न आने पाए कि देश को किसी के सामने हाथ पसारने की नौबत आए। वे चीन के विदेशी मुद्रा भंडारों के साथ भी भारत की तुलना भी करते हैं। गौरतलब है कि चीन के विदेशी मुद्रा भंडार, भारत के भंडारों से 5 गुणा ज्यादा हैं। हमें समझना होगा कि यदि चीन से हम तुलना करें तो चीन के विदेशी मुद्रा भंडार अधिकांषतः वस्तुओं और सेवाओं के भारी निर्यात और अत्यंत कम आयात और उसके कारण भुगतान शेष में अतिरेक के कारण बढ़े। कुछ हद तक वे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कारण भी बढ़े। जबकि भारत के विदेशी मुद्रा भंडारों में वृद्धि मुख्यतः प्रत्यक्ष और पोर्टफोलियो निवेश के कारण है, क्योंकि सामान्यतः हमारा भुगतान शेष तो भारी घाटे में ही रहता है।

ऐसे में विदेशी मुद्रा भंडारों की मात्रा से ज्यादा, हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि विदेशी मुद्रा भंडारों के बढ़ने के स्रोत क्या हैं? यह भी ध्यान रखना होगा कि इन स्रोतों से प्राप्त विदेशी मुद्रा के दूरगामी परिणाम क्या होंगे? अर्थशास्त्रियों का इस बात पर मतैक्य है कि विदेशी मुद्रा के स्रोत के नाते सबसे बेहतर विकल्प भुगतान शेष का अतिरेक है। यदि हमारे निर्यात आयातों से ज्यादा हों, और इस प्रकार से अर्जित विदेशी मुद्रा सबसे बेहतर विकल्प है। ऐसा चीन में भी हुआ है। लेकिन यदि यह विदेशी मुद्रा उधार लेकर प्राप्त की गई हो, तो वह सबसे निष्कृष्ट विकल्प है। यदि विदेशी मुद्रा शेयर बाजारों में निवेश के माध्यम से प्राप्त हुई हो, तो उसके भी कई दुष्परिणाम होते हैं। सबसे पहला दुष्परिणाम यह है कि इससे शेयर बाजारों में ही नहीं, विनिमय दर में भी उथल-पुथल होती है। इसका परिणाम देश के लिए अमंगलकारी होता है। इसका दूसरा दुष्परिणाम यह है कि विदेशी मुद्रा की इस आवक की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ती है, क्योंकि ये निवेशक भारी मात्रा में लाभ अर्जित कर अपने देशों को ले जाते हैं और साथ ही साथ उनकी परिसंपत्तियों का मूल्य बढ़ता जाता है। गौरतलब है कि जहां विदेशी संस्थागत निवेशकों ने कुल 281 अरब डालर का भारत में निवेश किया है, 31 मार्च 2021 तक उनकी परिसंपत्तियों का कुल मूल्यांकन 607 अरब डालर तक पहुंच चुका है। इसके अलावा वे 64.28 अरब डालर के डिविडेंड भी कमा चुके हैं। वे 607 अरब डालर के अपने शेयर और बांड किसी भी क्षण बेचकर वापिस जा सकते हैं और हमारा सारा विदेशी मुद्रा भंडार क्षण भर में उड़नछू हो सकता है। इसीलिए पोर्टफोलियो निवेश को ‘हॉट मनी’ भी कहा जाता है।

हालांकि विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने में विदेशी निवेश, निजी कंपनियों द्वारा लिए गए विदेशी कर्ज और भारतीयों द्वारा स्वदेश को भेजी गई राशियां, सभी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन इन स्रोतों में सभी का प्रभाव एक जैसा नहीं होता। जहां भारतीयों द्वारा भेजी गई राशियों में बहुत कम ऐसी राशियां होती हैं, जिनकी आय का बर्हिगमन होता है, ये सभी राशियां सदैव के लिए भारत में ही रहती हैं। लेकिन विदेशी निवेशक चाहे वे प्रत्यक्ष विदेशी निवेशक हों अथवा पोर्टफोलियो निवेशक, सभी भारी मात्रा में पैसा बाहर ले जाते हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेशक आमदनी के रूप में डिविडेंड रॉयल्टी, टैक्निकल फीस, ब्याज, वेतन इत्यादि ले ही जाते हैं, साथ ही साथ ये विदेशी कंपनियां अपने यहां जो उत्पादन करती हैं, उनमें आयात का हिस्सा काफी ज्यादा होता है, जिसके चलते भारी मात्रा में विदेषी मुद्रा का बर्हिगमन हो जाता है। आयातों को छोड़ भी दिया जाए तो भी रायल्टी, डिविडेंड, टैक्नीकल फीस, ब्याज और वेतन इत्यादि के रूप में विदेशों में भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा जाती है, जो इस कारण से है कि पूर्व में हमारे यहां वे विदेशी पूंजी लाए थे। पिछले दस सालों (2010-11 से 2019-20) का लेखा-जोखा लें तो ये विदेषी निवेषक 390 अरब डालर वापिस ले जा चुके हैं, और यह राशि हर साल बढ़ती जा रही है। गौरतलब है कि वर्ष 2000 से लेकर 2021 तक कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 763. 6 अरब डालर रहा है।

दूसरी ओर यदि पोर्टफोलियो निवेश की बात करें तो वे और अधिक खतरनाक रूप से परिणामकारी है। समझना होगा कि पोर्टफोलियो में स्थिरता नहीं होती। पोर्टफोलियो निवेशक कब कितनी विदेशी मुद्रा लाएंगे और कब वापिस ले जाएंगे, इसका आकलन संभव ही नहीं है। उनकी इस अस्थिरता का असर हमारी विदेशी मुद्रा भंडार की विनिमय दर पर पड़ता है, जिसका भारी नुकसान होता है। यही नहीं ये निवेशक शेयर बाजारों में भारी उथल-पुथल का कारण बनते हैं। हम देखते हैं कि जैसे-जैसे सरकार पोर्टफोलियो निवेशकों के लिए निवेश की सीमा बढ़ाती है, वैसे-वैसे ये निवेशक भारत के शेयर बाजारों में काबिज होते जाते हैं।

आज जब भारत का विदेशी मुद्रा भंडार काफी हद तक बढ़ चुका है। हमें विचार करना होगा कि इस बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडारों के लिए देश को क्या कीमत चुकानी पड़ रही है। क्योंकि विदेशी निवेशक तो भारत से भरपूर लाभ कमा कर ले जा रहे हैं, लेकिन इन विदेशी मुद्रा भंडारों से देश को होने वाली प्राप्ति नगण्य ही है। एक सीमा के बाद विदेशी मुद्रा भंडारों के लाभकारी तौर पर इस्तेमाल के बारे में भी रास्ते खोजने होंगे।

इतिहास गवाह है कि जब जब इन विदेशी निवेशकों पर कर लगाने के प्रयास हुए हैं, इन्होंने सरकार और देश को ‘ब्लैक्मेल’ कर इन प्रयासों को धत्ता दिखाया है। चूँकि यह डर हमेशा बना रहता है कि ये विदेशी संस्थागत निवेषक अपनी ‘हाटमनी’ के साथ कभी भी उड़न छू हो सकते हैं, इनको नियमित करते हुए इनपर अंकुश लगाना नितांत जरूरी है। इस सम्बंध में इन पर एक ‘लॉक इन पीरियड’ का प्रावधान रखा जा सकता है। साथ ही साथ यदि ये अपना धन वापिस ले जाना चाहें तो उन पर कर लगाने का भी प्रावधान भी रखा जा सकता है। टोबिन नाम के अर्थशास्त्री ने इस कर का सुझाव दिया था, इसलिए इसे टोबिन टैक्स भी कहा जाता है। आज चूँकि हमारे विदेषी मुद्रा भंडार सुविधापूर्ण स्थिति में हैं, यह सही समय है कि इन उपायों का उपयोग कर विदेशी संस्थागत निवेशकों को अनुशासित किया जाए।       

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