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बाढ़ का एक प्रमुख कारण बढ़ता तापमान भी

सरकार के साथ-साथ देश के आम लोगों को भी पर्यावरण के कारण होने वाली क्षति से बचने के लिए सामूहिक भागीदारी के भाव के साथ आगे आना होगा। चुने हुए जनप्रतिनिधियों को भी इसके लिए कार्यक्रम बनाकर रणनीतिक तैयारी करनी होगी। अगर यह नहीं हुआ तो हमारे शहर और गांव आगे भी डूबते रहेंगे। - डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्र

 

प्रकृति अपने मूल में जीवन है। लेकिन उससे छेड़छाड़ का रास्ता अपनाकर मानव ने अपने लिए विपरीत परिस्थितियां ही पैदा की है। यह तब भी हो रहा था जब मानव विकास की प्रक्रिया में था और आज भी हो रहा है जब दुनिया भर में विकास अपने चरम पर है। प्रारंभ का मनुष्य प्रकृति से उतना ही लेता था जितने कि उसे सख्त जरूरत थी लेकिन आज के दौर में मनुष्य इतना स्वार्थी और लालची हो गए हैं कि अपनी बढ़ती आवश्यकताओं पर रोक लगाना, उनके बस की बात नहीं है। अपनी जरूरत के लिए हम प्रकृति से लगातार दुर्व्यवहार कर रहे हैं। इसी लापरवाही का नतीजा है कि तापमान लगातार बढ़ रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, बरसा आदि का चक्र भी गड़बड़ होता जा रहा है। भारत के ही भूगोल में देखें तो एक ही समय पर कुछ हिस्सों में भयावह बाढ़ है तो कुछ हिस्सों में भयंकर सूखा।

इस साल जुलाई में जब भारत में बारिश में कई बड़े शहरों में बाढ़ के हालात पैदा किया ठीक उसी समय यूरोप के लोग भीषण गर्मी से परेशान दिखे।वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में निष्कर्ष निकाला है कि अधिकांश यूरोपीय देशों में इस साल जुलाई के दिनों में तापमान अन्य वर्षो की तुलना में अधिक था। पिछले साल भी वहां बढ़ते हुए तापमान की हालत ऐसी ही थी। राहगीरों को गर्मी से बचने के लिए विशेष उपाय करने पड़े थे। गर्मी से निजात पाने के लिए यूरोपीय और अमेरिकी देशों में जहां एयर कंडीशनर की की खरीद के लिए दुकानों पर भीड़ लगी थी। ठीक उसी समय देश की राजधानी दिल्ली बाढ़ से दो-चार हो रही थी। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के इलाके भी जलमग्न थे।

दुनिया भर के देश जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं जलवायु परिवर्तन का प्रभाव न सिर्फ पर्यावरण पर हो रहा है बल्कि इसका वास्तविक प्रभाव अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है। यूरोपीय का आदमियों की विज्ञान सलाहकार परिषद की मानें तो 1980 के बाद दुनिया भर में बाढ़ की घटनाएं लगभग दोगुने से अधिक बढ़ गई है। इसलिए जरूरी है कि राहत और बचाव के इंतजामों के साथ-साथ बदलते मौसम पर भी शोध होना चाहिए। तापमान बढ़ने से पर्वतों की बर्फ और ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे नदियों का जलस्तर बढ़ रहा है। चक्रवात और तूफान जैसी मौसमी घटनाओं के चलते भारत के तटीय क्षेत्रों में भारी बारिश के हालात बने रहते हैं जिससे इन क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा हमेशा होता है। बाढ़ का एक कारण नदी का अतिप्रवाह है। दरअसल भारी वर्षा होने पर, बर्फ या ग्लेशियर पिघलने पर, चक्रवात या तूफान आने पर, बांध या बैराज से अधिक जल छोड़े जाने या नदियों में अत्यधिक गाद जमा हो जाने के कारण नदियों में अति प्रवाह जैसा उत्पन्न हो जाता है। इसका ताजा उदाहरण दिल्ली की बाढ़ है। जब हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में भारी बारिश के कारण नदियों का जलस्तर बहुत बढ़ गया तब दिल्ली स्थित यमुना बेराज यमुना नदी के इस प्रवाह को नियंत्रित करने में असमर्थ साबित हुआ। नदियों नालों के बहाव क्षेत्र के आसपास भारी संख्या में अवैध निर्माण और अतिक्रमण के कारण बहाव क्षेत्र सिकुड़ते जा रहे हैं। इसलिए अधिक बारिश होने पर पानी का दबाव बढ़ जाता है, आसपास के क्षेत्र में जल प्रवाहित होने लगता है, जिससे वहां जल भराव की स्थिति बन जाती है। कई बार तो बांध और बैराज को बिना सूचना दिए ही अचानक पानी छोड़ दिए जाने के कारण नदियों के तट पर बसे शहरों में बाढ़ की नौबत आ जाती है। पहले की तुलना में अब आबादी बहुत अधिक बढ़ गई है लेकिन हम आज भी बाढ़ नियंत्रण के पुराने इंतजामों पर ही निर्भर हैं। शहरों में बाढ़ का प्रमुख कारण अनियोजित शहरीकरण है। हर साल आने वाली बाढ़ से देश में सैकड़ों लोगों की जाने चली जाती हैं हजारों हजार लोगों को आर्थिक नुकसान होता है, वही भारी मात्रा में पशुओं का जीवन भी संकट में पड़ जाता है। बाढ़ के कारण बिजली की आपूर्ति बाधित होती है, वही बाढ़ के निकलते ही कई तरह की भयानक संक्रामक बीमारियों के खतरे भी बढ़ जाते हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने भारत में बाढ़ को सबसे घातक प्राकृतिक आपदाओं की श्रेणी में रखा है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से बड़ी तादाद में लोगों को विस्थापित होना पड़ता है, उन्हें फिर से जीवन में लौटने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। भारत में आने वाली बाढ़ से हर साल लगभग 75 लाख हेक्टेयर जमीन प्रभावित होती है और करोड़ों रुपए का सीधा नुकसान होता है।आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र के अनुसार वर्ष 2020 में भारत में बाढ़ की वजह से लगभग 54 लाख लोगों को विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा था।

अत्यधिक बारिश होने के कारण शहरों में पानी भरने लगता है। जल निकास प्रणालियों के ठीक ना होने के कारण जल इधर-उधर फैल जाता है। घरों और उद्योग धंधों का कचरा सीवेज प्रणाली से बह कर निकलता है, जबकि वर्षा जल प्रणाली से बारिश का पानी निकलता है। शहरों में आबादी बढ़ने के कारण सिवेज प्रणाली की क्षमता कम हो जाती है और नालों से पानी उफनने लगता है।

पूरे देश में बाढ़ से तबाही के एक जैसे हालात हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो 1952 से लेकर 2018 के 66 सालों में देश में बाढ़ से एक लाख से अधिक लोगों की जान जा चुकी है, 8 करोड़ से अधिक मकानों को नुकसान पहुंचा है, जबकि 4.69 ट्रिलियन से अधिक का आर्थिक नुकसान हुआ है। असम, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य बाढ़ की तबाही हर साल झेलते हैं। अब तो राजस्थान में भी बढ़ आने लगी है। बिहार के 38 में से 28 जिले बाढ़ प्रभावित हैं।देश के कई एक रिवर बेसिन तबाही के इलाके साबित हुए हैं हर साल सूखे दिनों में लोग अपना आशियाना बनाते हैं और बरसात में बाढ़ सब कुछ बाहर ले जाती है। अनियमित मानसूनी पैटर्न और कुछ इलाकों में कम और कुछ इलाकों में अधिक बरसात इस तबाही को कुछ इलाकों में और ज्यादा बढ़ा देती है।

ऐसे में सरकार के साथ-साथ देश के आम लोगों को भी पर्यावरण के कारण होने वाली क्षति से बचने के लिए सामूहिक भागीदारी के भाव के साथ आगे आना होगा। चुने हुए जनप्रतिनिधियों को भी इसके लिए कार्यक्रम बनाकर रणनीतिक तैयारी करनी होगी। अगर यह नहीं हुआ तो हमारे शहर और गांव आगे भी डूबते रहेंगे।             

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