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रूस-यूक्रेन युद्धः संतुलित भारतीय रवैया

भारत का अब तक का स्टैंड सभी हितधारकों के हितों का त्याग किये बिना अपने राष्ट्रीय हितों के लिए कार्य करने की परीक्षा में अब तक सफलतापूर्वक उत्तीर्ण  हुआ है। आशा की जानी चाहिए कि आगे भी यह तासीर कायम रहेगी। — केके श्रीवास्तव

 

कहते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। बदलती देशकाल परिस्थिति में वर्तमान की एकध्रुवीय दुनिया एक बार फिर बहुध्रुवीय व्यवस्था की ऐतिहासिक विरासत की ओर बढ़ रही है। सवाल है कि बागडोर किसके हाथ में होगी? हाल के वर्षों में चीन की बढ़ती आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी ताकत के सामने क्या अमेरिका दुनिया की मुखतारी  करने का जोखिम उठा सकता है? इस पर संदेह है, क्योंकि रोज-रोज आगे बढ़ते लंबे खींचते यूक्रेन युद्ध से रूस के साथ-साथ अमेरिका का रूतवा भी छलनी हुआ है। विश्व की अधिकांश शक्तियां इस पार या उस पार के खेमे में बट गई हैं। ऐसे में भारत संतुलित रवैया अपनाकर अशांत की दुनिया की धूरी और शांति की उम्मीदों का केंद्र बन गया है। भारत का किरदार अहम हो गया है। मानवता को विनाश से बचाने के लिए दुनिया का हर देश आज भारत की ओर देख रहा है। खासकर इस संकट को लेकर भारत जिस तरह अमेरिकी दबाव को भी दरकिनार कर खुद अपने लिए हितकारी जिस स्वतंत्र नीति पर अटल खड़ा है, उसने बाकी दुनिया को भी प्रेरित किया है। पूरे घटनाक्रम में भारत ने न तो रूसी हमले की निंदा की है और न ही रूस से संबंधित संयुक्त राष्ट्र की किसी वोटिंग में हिस्सा लिया है, लेकिन साथ ही यह भी लगातार कहता रहा है कि कूटनीति का रास्ता अपनाकर युद्ध को जल्द से जल्द खत्म किया जाना चाहिए। यही नहीं भारत ने यूक्रेन को मानवीय मदद भी भेजी है। इन सबके बीच रूस पर अमेरिका के 5000 से ज्यादा छोटे बड़े प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए रूस से किफायती दामों पर कच्चे तेल का करार भी किया है, वह भी डालर के बदले रूबल में। हालांकि भारत का यह कदम अमेरिकी कूटनीति के लिए बड़ा झटका है लेकिन भारत अपने नागरिकों के हितों के सापेक्ष संतुलन बनाकर चलने की नीति पर आगे बढ़ रहा है।

इसमें कोई शक नहीं कि यूक्रेन के युद्ध ने वैश्विक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है। अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने दुश्मन के खिलाफ आर्थिक युद्ध की घोषणा कर दी है। यह प्रतिबंध न केवल रूस बल्कि भारत सहित अन्य देशों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं। तेल के साथ-साथ आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं। भुगतान चैनल बाधित हो गए हैं। भोजन की कमी और मुद्रास्फीति के दबाव की गिरफ्त में धीरे-धीरे दुनिया के हर देश आ रहे हैं। पश्चिमी देश रूस के खिलाफ वित्त और व्यापार प्रणाली को हथियार बनाए हुए हैं, लेकिन भारत ने अपनी संतुलित कूटनीति से सबके साथ संबंधों में मानवीय पुट बनाए रखा है।

आयातित ऊर्जा पर 70 प्रतिशत निर्भरता के साथ भारत एक निम्न मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्था है। बढ़ती ऊर्जा की कीमतें हमारे लिए दुष्कर है, क्योंकि कोविड-19 के दौरान देश में मुद्रास्फीति की दर 12 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। सरकार ईंधन करों को कम करने का जोखिम नहीं उठा सकती, क्योंकि यह हमारे वित्तीय संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। ऐसी स्थिति में अगर भारत रियायती मूल्य पर तेल की आपूर्ति के रूसी प्रस्ताव को मंजूरी देता है तो इसमें दोष नहीं दिया जा सकता है।

यूक्रेनियन संघर्ष, सोवियत संघ के पतन, यूरोप में न्याय संगत सुरक्षा, स्थापित करने में विफलता, पूर्व की ओर नाटो के विस्तार और दोनों देश के बीच किसी भी रचनात्मक वार्ता के टूटने के साथ-साथ यूएस व रूसी संबंधों के लगातार गिरावट का एक उत्पाद है। रूस को तब उकसाया गया जब अमेरिका ने यूक्रेन और जॉर्जिया को कवर करने के लिए नाटो का विस्तार करने की मांग की। रूस ने इसे तत्काल खतरा तथा अस्तित्व का संकट करार दिया। हालांकि सैद्धांतिक रूप से भारत को यूक्रेन पर आक्रमण का विरोध करना चाहिए था, पर वास्तविक और व्यावहारिक राजनीति यही कहती है कि भारत को रूस से रक्षा संबंधों सहित अपने रणनीतिक हितों की रक्षा करनी चाहिए। क्या भारत पश्चिमी देशों की उस चुप्पी को भूल जाए, जब चीनी सेना ने भारतीय क्षेत्र में प्रवेश किया था।

निश्चित रूप से अगर भारत को एक तरफ अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नियंत्रित करने वाले अमूर्त और अलग-अलग सिद्धांतों का पालन करने तथा दूसरी तरफ अपने हितों की रक्षा करने के बीच चयन करना है तो विवेक की मांग है कि हम दूसरे की और झुके। इस तरह तार्किक रूप से भी भारत को बिना किसी भय के अमेरिका सहित पश्चिम की नैतिक भव्यता और परोक्ष चेतावनियों की अनदेखी करनी ही चाहिए। ऐसा हो सकता है कि चीनी आक्रमण की स्थिति में रूस भारत का पक्ष न ले क्योंकि यह ‘चीन-रूस की कोई सीमा नहीं’, मित्रता में कनिष्ठ साझेदार हैं। लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि विदेश नीति की आपनी अनिवार्यताए  हैं, विचलन के बिंदु तो बने रहेंगे। चीन और रूस के संबंध अमेरिका के प्रति साझा शत्रुता पर आधारित है। 

उल्लेखनीय तथ्य है कि पिछले दो दशकों में जहां अमेरिका के साथ भारत के सामरिक और आर्थिक संबंध गहरे हुए हैं उसी समय काल में चीनी साम्राज्य के साथ हमारे संबंध बिल्कुल ही अच्छे नहीं हैं और अमेरिका के वे दिन लद गए जब पूरी दुनिया पर एक तरह से उनका बोलबाला था।

वित्तीय और व्यापार प्रतिबंधों के कारण रूस निश्चित रूप से कम शक्ति के साथ एक सिकुडती  अर्थव्यवस्था के रूप में रह जाएगा, लेकिन भारत यूरोपीय देशों द्वारा प्रतिबंध के बावजूद रूस से आयात करने के पाखंड को नजरअंदाज नहीं कर सकता है। चीन के लगातार विस्तार के कारण दुनिया तेजी से बदल रही है। डालर का प्रभुत्व खतरे में है। राष्ट्र अपने स्वयं के डिजिटल आर्किटेक्चर का निर्माण कर रहे हैं और स्विफ्ट जैसे वित्तीय प्लेटफार्म सहित पश्चिम आधारित संस्थानों को तिरस्कार के साथ देखा जा रहा है। ऐसे में भारत को अपनी ऊर्जा और सैन्य जरूरतों को देखते हुए पुरानी दोस्ती का त्याग किए बगैर नई दोस्ती की खेती हेतु एक नाजुक संतुलन बनाए रखने की जरूरत है, क्योंकि राजनीति तेजी से महत्वपूर्ण होती जा रही है। भारत को आत्म संतुष्ट नहीं होना चाहिए। उसे अपनी आंतरिक नियमों और आयोजनों को लगातार जांचना चाहिए, अपनी बाहरी पहुंच को बनाए रखना चाहिए और अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपनी क्षमताओं के अनुरूप आगे कार्य व्यवहार करना चाहिए। एक सच्ची रणनीतिक साझेदारी मूल हितों की पारस्परिकता पर आधारित होनी चाहिए। 

उल्लेखनीय है कि पश्चिम से परहेज हमारे हितों पर प्रभाव नहीं डालते, लेकिन रूस के खिलाफ मतदान करना हमारे लिए संकट का सबब बन सकता है। इसलिए भारत अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करते हुए हिंसा की पूर्ण समाप्ति, बातचीत के माध्यम से मतभेदों का समाधान और राष्ट्र राज्यों की क्षेत्रीय अखंडता की मान्यता और संरक्षण का बार-बार आवाज उठाना एक बेहतर कदम है।

लेकिन साथ ही साथ हमें 1991 के बाद से भारत के आर्थिक सुधारों और अंततः अमेरिका भारत परमाणु समझौते के लिए अमेरिका के मजबूत समर्थन को भी नहीं भूलना चाहिए। हाल के वर्षों में भारत और अमेरिका के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध रहे हैं। अमेरिकी कंपनियों ने भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का नेतृत्व किया है तथा अमेरिका के साथ हमारे संबंधों की कसौटी यूक्रेन पर हमारे द्वारा लिए गए रूप से कहीं अधिक व्यापक होनी चाहिए।

भारत को अपने संतुलनकारी नीतियों के साथ बने रहने की जरूरत है। भारत रूस संबंध एक बहुत ही तरल भू-राजनीतिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर सकते हैं। भारत ने रूसी आक्रमण के खिलाफ अब तक तटस्थ रूख अपनाया है, लेकिन इसे लगातार मूल्यांकन करना चाहिए कि क्या और विशुद्ध रूप से राष्ट्रीय हित की गणना के संदर्भ में निरंतर तटस्थता लाभकारी होगी? भारत को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत-रूसी  सैन्य  सामानों का सबसे बड़े खरीददार के रूप में है। सैद्धांतिक रूप से चाहे बातें जो भी हैं। रूस हथियारों की आपूर्ति को कम करने का जोखिम नहीं उठा सकता है क्योंकि हालिया प्रतिबंधों को देखते हुए रूस को भारतीय धन की और अधिक जरूरत है। इसलिए भी भारत को रूस और अमेरिका के बीच चल रही तनातनी के बीच एक बेहतर संतुलन की जरूरत है क्योंकि भारत अमेरिका से भी एकबारगी अलग नहीं हो सकता। 

अमेरिका बड़ा व्यापारिक भागीदार है। अन्य देशों की तुलना में भारतीय कंपनियों का और बैंकों का एक्सपोजर अमेरिका में अधिक है। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की अमेरिका में अच्छी पहुंच है। साथ ही साथ बड़े पैमाने पर छात्र समुदाय भी अमेरिका में मौजूद हैं। आज की तारीख में भारत को अमेरिका की जितनी जरूरत है उतनी ही जरूरत अमेरिका को भारत की भी है। बीजिंग की हालिया तेजी को ब्रेक देने के लिए क्वाड का गठन किया गया है।

बहरहाल भारत का अब तक का स्टैंड सभी हितधारकों के हितों का त्याग किये बिना अपने राष्ट्रीय हितों के लिए कार्य करने की परीक्षा में अब तक सफलतापूर्वक उत्तीर्ण  हुआ है। आशा की जानी चाहिए कि आगे भी यह तासीर कायम रहेगी।

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