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बचत से आत्मनिर्भरता: ‘खर्चे’ में कटौती का नाम है ‘आमदनी’

आज देश आत्मनिर्भरता के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है, उसके लिए जरूरी है कि हम अधिक से अधिक घरेलू संसाधनों से निवेश को बढ़ाते हुए देश का विकास करें। — स्वदेशी संवाद

 

यूँ तो बचत एक वरदान है। बचत करते हुए हम न केवल अपने लिए संपत्ति और संसाधनों का निर्माण कर सकते हैं, अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह भलीभाँति कर सकते है, बल्कि बुरे दिनों के दौरान विपदा को भी कम कर सकते हैं। भारतीय परंपराओं, स्वभाव और संस्कारों में बचत हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। अक्सर हम अपने द्वारा संचित संसाधनों से अपने जीवन को पहले से बेहतर बनाते हैं।

समाज में चाहे जो भी सोच, स्वभाव अथवा परंपरा रही हो, लेकिन भारत में कभी भी अलग प्रकार के विचार की अभिव्यक्ति पर रूकावट नहीं रही। हमारे ही वांग्मय में एक दार्शनिक ‘चारवाक’ का उल्लेख आता है, जिन्होंने बचत संस्कृति के विपरीत एक सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसे हम ‘चारवाक’ सिद्धांत भी कह सकते हैं। उनका यह सिद्धांत भौतिकवादी विचार पर आधारित है। उन्होंने एक श्लोक के माध्यम से कहा ‘‘यावत् जीवेत सुखम् जीवेत। ऋणं कृत्वा घृतं पिबते। भस्मिभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।’’ जिसका भावात्मक अर्थ यह है कि जब तक जीएं सुख से जीएं। कोई भी मृत्यु से बचा नहीं, एक बार जब शरीर जल जाएगा तो वापिस नहीं आएगा। इसका अभिप्राय यह है कि बचत तो छोड़िए, जीवन को सुखमय बनाने के लिए ऋण भी लें। चाहे चारवाक ऋषि ने यह बात कही हो, लेकिन भारतीय समाज ने कभी भी इस सिद्धांत को अपनाया नहीं।

प्राचीन काल से ही धनाढ्य लोग स्वयं के उपभोग से बची अपनी आय का कुछ भाग बचत के रूप में रखते थे। उस समय बैंक या अन्य वित्तीय संस्थान नहीं होने के कारण वे अपनी बचत को स्वर्ण अथवा अन्य संपत्ति के रूप में रखते थे। चूंकि हमारा समाज कभी भी सरकार की सहायता पर निर्भर नहीं रहा, समाज अपने लिए आवश्यक सुविधाएं स्वयं ही जुटाता रहा है। इसीलिए बुरे दिनों में आपदा से निपटने के लिए आश्वासन एवं बीमा हेतु स्वयं की बचत से बढ़कर कुछ नहीं है। प्राचीन काल से ही हमारे पुरातन मंदिरों में भी धन-धान्य की भरमार रही है। कई मंदिरों में तो वह धन-धान्य अभी भी कम-अधिक मात्रा में मिलता ही है। दक्षिण भारत के केरल प्रांत में पùनाभस्वामी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि वहां कई टन सोने के सिक्के एवं अन्य वस्तुएं सुरक्षित हैं। मंदिर की ये परिसंपत्तियां कई शताब्दियों से लगातार संग्रहित की जाती रही हैं। पùनाभस्वामी मंदिर अकेला ऐसा मंदिर नहीं है, जहां अपार धन संपत्ति एकत्र है, इसके अलावा कई और मंदिर भी हैं, जो हमारे समाज के समर्पण और धन-धान्य के प्रतीक माने जाते रहे हैं। भारतीय समाज में पुरातन काल से ही धन-धान्य से समर्थ लोग स्वयं को धन का न्यासी मानकर, अपने उपभोग से बचाकर धन का उपयोग सराय, शिक्षण संस्थान एवं अन्य सामाजिक सरोकार के लिए भी करते थे।

बैंकों एवं अन्य आधुनिक वित्त संस्थानों के अभाव में लोगों की बचत को एकत्र कर उत्पादन कार्यों में लगाने की तो व्यवस्था नहीं थी, लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं कि वित्तीय लेनदेन की प्रक्रिया उस समय नहीं होती थी। वर्तमान में जैसे धन हस्तांतरित करने में आधुनिक तंत्र का उपयोग होता है, उस समय धन हस्तांतरित करने में हुंडी का उपयोग काफी प्रचलित था। लोग स्वयं की बचत को अपने पास तो रखते ही थे, नगर-सेठ और व्यवसायियों को भी धन देकर उससे लाभ कमाया जाता था। बचत संस्कृति का ही प्रभाव था कि देश के लोग सूखा एवं अन्य विपदाओं के बावजूद काफी हद तक अप्रभावित रहते थे।

हमारे देश में विचारों की स्वतंत्रता तो सदैव ही रही है, जैसे पूर्व में चारवाक ऋषि ने ऋण लेकर उपभोग करने हेतु बचत संस्कृति से इतर विश्वास व्यक्त किया था, उसी प्रकार वर्तमान काल में कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि बचत तो दूर, हमे उधार लेकर भी उपभोग बढ़ाना चाहिए। ऐसे में वे उदाहरण देते हैं कि कार, गृह एवं अन्य प्रकार के ऋणों के आधार पर ईएमआई देते हुए खरीद करने में भी कोई संकोच नहीं करना चाहिए। इस प्रकार ऋणों के आधार पर हम अपनी मांग में वृद्धि कर सकते हैं, जिससे उत्पादन को प्रोत्साहन मिलता है और ग्रोथ संभव होती है।

लेकिन आज भी बचत का है खास महत्व

आजादी से पूर्व विदेशी शासन के कारण, देश के लोगों द्वारा खासी मेहनत के बावजूद हमारा देश प्रगति नहीं कर पाया। यदि पिछली सदी के प्रथम पांच दशकों को देखा जाए तो पता चलता है कि हमारा राष्ट्रीय आय की वार्षिक वृद्धि दर एक प्रतिशत से भी कम थी, जिसके कारण हमारी प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि दर शून्य ही रही। इसका कारण यह था कि अंग्रेजी शासन के दौरान हमारे देश में उद्योगों का ह््रास भी हुआ और किसानों के शोषण और उनके अधिकारों के हनन के कारण, कृषि में भी निवेश की प्रेरणा समाप्त हो गई थी। इसलिए देश के लोगों में बचत संस्कृति के बावजूद, निवेश के पर्याप्त अवसर नहीं होने के कारण उसका सदुपयोग नहीं हो पाया।

लेकिन आजादी के बाद देश में बैंकों एवं अन्य वित्तीय संस्थानों के विकास के कारण लोगों की बचत को हम बेहतर तरीके से एकत्र करने में सफल हो रहे हैं। उधर पूंजी बाजार में भी बचत के निवेश की पर्याप्त संभावनाएं मिलती हैं। उसके बावजूद लोग अपनी बचत का उपयोग अचल संपत्ति निर्माण एवं सोना-चांदी की खरीद में भी करते हैं। आजादी के बाद जैसे-जैसे बचत एकत्रीकरण की सुविधाएं बढ़ी, कुल जीडीपी के प्रतिशत के रूप में बचत का योगदान बढ़ता गया। जहां 1950-51 में कुल घरेलू बचत जीडीपी का मात्र 8.6 प्रतिशत ही थी, 1960-61 में यह बढ़कर 11.2 प्रतिशत, 1970-71 में 14.2 प्रतिशत, 1980-81 में 18.5 प्रतिशत, 1990-91 में 22.8 प्रतिशत और 2004-05 में 32.4 प्रतिशत तक पहुंच गई। देश में अधिकतम बचत दर 2007-08 में 36.8 प्रतिशत थी। लेकिन उसके बाद बचत दर में गिरावट देखने को मिल रही है। और यह वर्ष 2017-18 में 32.07 प्रतिशत और 2019-20 में 31.38 प्रतिशत रही। इसका सीधा-सीधा प्रभाव देश में पूंजी निर्माण पर दिखाई देता है। 1950-51 में सकल घरेलू पूंजी निर्माण जीडीपी का 8.4 प्रतिशत, 1960-61 में 14.0 प्रतिशत, 1970-71 में 15.1 प्रतिशत, 1980-81 में 19.9 प्रतिशत, 1990-91 में 26.0 प्रतिशत और 2007-08 में 38.1 प्रतिशत तक पहुंच गया था। उसके बाद बचत दर में कमी के कारण यह सकल घरेलू पूंजी निर्माण वर्ष 2017-18 में 33.89 प्रतिशत और वर्ष 2019-20 में 32.19 प्रतिशत पहुंच गया।

बचत और पूंजी निर्माण की बढ़ती दरों ने देश में ग्रोथ की बेहतर स्थिति निर्माण की और जीडीपी की ग्रोथ की दर पूंजी निर्माण की दर के अनुपात में बढ़ती गई। 1950 से 1980 के तीन दशकों में हमारी राष्ट्रीय आय की ग्रोथ की दर मात्र 3.5 प्रतिशत ही थी, लेकिन 1980 से 1990 के दशक में यह 5.2 प्रतिशत थी, लेकिन 2001-02 से 2011-12 के बीच में यह 8 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। समझा जा सकता है कि पूंजी निर्माण की बढ़ती दरों ने यह संभव कर दिखाया।

आत्मनिर्भर भारत के लिए जरूरी है घरेलू बचत

कुछ अर्थशास्त्री यह तर्क देते हैं कि पूंजी निर्माण तो विदेशी पूंजी से भी हो सकता है। विदेशी पूंजी से भी व्यवसाय खुल सकते हैं, रोजगार भी निर्माण हो सकता है और जीडीपी भी बढ़ सकती है। लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि विदेशी पूंजी पर निर्भरता से देश पर देनदारियां बढ़ती हैं और विदेशी मुद्रा भंडारों पर दबाव बढ़ता है। चाहे विदेशी यहां अंश पूंजी में भी निवेश करते हैं और देश पर उधार की देनदारियां नहीं बढ़ती, लेकिन विदेशी कंपनियां देश से भारी मात्रा में धन रॉयल्टी, टेक्निकल फीस, डिविडेंड, लाभ एवं वेतन के रूप में अपने मूल देशों में ले जाती है। यह सभी विदेशी मुद्रा में जाता है। गौरतलब है कि आज भारत में जितना विदेशी निवेश आता है, उससे भी ज्यादा मात्रा में इन तरीकों से देश से विदेशी मुद्रा बाहर जाती है। यही नहीं देश के संसाधनों पर विदेशियों का कब्जा बढ़ता जाता है। आज देश आत्मनिर्भरता के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है, उसके लिए जरूरी है कि हम अधिक से अधिक घरेलू संसाधनों से निवेश को बढ़ाते हुए देश का विकास करें। नहीं भूलना चाहिए कि ब्राजील, अर्जेंटीना और लेटिन अमेरिका के अन्य देश ही नहीं श्रीलंका और कई अन्य देशों ने विदेशी पूंजी पर अधिक निर्भर होकर अपने-अपने देशों के लिए मुश्किलें बढ़ाई हैं।     

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