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परिवारवाद की आग में झुलसता श्रीलंका

अब यह कहने में कोई संकोच नहीं कि श्रीलंका अपनी इस भयावह स्थिति के लिए स्वयं ही जिम्मेदार है। अलबत्ता इस संकट ने श्रीलंका के आवाम को एकजुट कर दिया है और यह एकजुटता कोई 70 साल पहले ब्रिटिश हुकूमत के शिकंजे से निकलने के संघर्ष के दौरान दिखी एकजुटता से भी ज्यादा प्रगाढ़ है।  —  अनिल तिवारी

 

भीषण आर्थिक संकट से गुजर रहे श्रीलंका में रोज-रोज खराब हो रही हालात को संभालने की गरज से प्रधानमंत्री महेंद्रा राजपक्षे ने पद से इस्तीफा तो दे दिया है लेकिन इससे लगता नहीं है कि स्थितियां सामान्य होने में कोई खास मदद मिलेगी। उनके इस्तीफा देने से पहले ही वहां विरोध प्रदर्शन हिंसक रूप ले चुके हैं। हिंसा में एक सत्तारूढ़ दल के सांसद सहित 5 लोगों के मारे जाने और सैकड़ों लोगों के गंभीर रूप से घायल होने की खबर है। प्रदर्शनकारी जगह-जगह सत्तारूढ़ दल के नेताओं के घरों को निशाना बना रहे हैं।

भारत का पड़ोसी देश श्रीलंका अपनी आजादी के बाद के सबसे गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। वहां की हताश जनता हिंसक विरोध प्रदर्शनों पर उतर आई है। भारत की आजादी से 1 साल बाद 1948 में ब्रिटेन की गुलामी से आजाद हुए श्रीलंका की कुल आबादी सवा दो करोड़ से कुछ अधिक है। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था आयात पर बहुत ज्यादा आश्रित रही है और आर्थिक संकट के पीछे भी आयात ही कारण है। लेकिन इससे बड़ा कारण है, चीन के कर्ज जाल में श्रीलंका का फंस जाना। दरअसल श्रीलंका के कर जाल में फंसने की शुरुआत बीआरआई (बेल्ट एंड रोड योजना) चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड परियोजना से हुई। बीआरआई के हिस्से के रूप में श्रीलंका को भारी निवेश और ऋण मिला, जिससे वह कर्ज जाल में लगातार डूबता ही गया। एक दूसरा कारण वहां की राजनीति में परिवारवाद भी महत्वपूर्ण है। श्रीलंका के आर्थिक संकट में गिरने की शुरुआत गोटबाया राजपक्षे के राष्ट्रपति निर्वाचन होने के बाद से शुरू हुई। गोटबाया राजपक्षे ने राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद अपने भाई महिंद्रा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बनाया अन्य भाई बासिल राजपक्षे को वित्तमंत्री और बाकी सदस्यों को भी देश के महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिया। देखते ही देखते राजपक्षे परिवार के 5 सदस्य सत्ता में सिर्फ पदों पर काबिज हो गए। राजपक्षे परिवार ने एक के बाद एक मनमाने फैसले किए तथा अपनों के बीच मोतिया लुटाई। चीन की ओर से जो उधार की राशि मिल रही थी उसका इस परिवार ने जमकर दुरुपयोग किया। विपक्ष के कमजोर होने से राजपक्षे परिवार निरंकुश होता चला गया। वहां का कोई भी राजनीतिक दल इस सत्ताधारी परिवार के लोगों से सवाल पूछने की हैसियत में नहीं रह गया था, लेकिन जनता के बीच इस परिवारवादी तानाशाही के खिलाफ गुस्सा शुरू होने लगा था। राष्ट्रपति चुनाव से पूर्व गोटबाया राजपक्षे ने तमाम सुविधाएं और सेवाएं मुफ्त देने का वादा किया था। लोगों को धर्म पंथ के आधार पर बांटकर वोटों की फसल काटी थी। चुने जाने के उपरांत उसने करों में भारी कटौती कर दी, जिससे सरकारी खजाना खाली होने लगा। जीएसटी की दर जो पहले 15 प्रतिशत थी उसे घटाकर 8 फ़ीसदी कर दी और 2 प्रतिशत का ‘नेशन बिल्डिंग टैक्स’ हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कर्ज माफी और सब्सिडी से सरकारी खजाना तेजी से खाली हुआ। वहीं जैविक खेती के प्रयोग ने रही सही कसर निकाल दी। रासायनिक खाद और कीटनाशकों के प्रतिबंध लगा देने के कारण पूरी खेती चौपट हो गई। नतीजतन उत्पादन घटा, खाद्यानों के दाम आसमान छूने लगे।

संकट का एक कारण प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में कमी का होना भी है, जिसके चलते श्रीलंका के सामने दोहरी चुनौती खड़ी हो गई। एकतरफ उसे अपनी जनता को मुश्किल से उबारने था, तो दूसरी तरफ विदेशी कर्ज का भुगतान भी करना। जब वहां खाने पीने की चीजों की किल्लत शुरू हुई तो जमाखोरों ने इस कमी को और विकराल बना दिया। ऐसे में श्रीलंका के सामने अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से उधार और मदद लेने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं बचा। श्रीलंका में नवंबर 2021 में महंगाई दर 9.9 प्रतिशत थी जो दिसंबर में 12.1 प्रतिशत तथा मार्च महीने तक यह 24 प्रतिशत के आसपास आ गई। श्रीलंका की आय का एक बड़ा हिस्सा पर्यटन उद्योग से आता था। अप्रैल 2019 में चर्च पर आतंकी हमले हुए, जिसमें 200 से ज्यादा लोग मारे गए थे। उसके बाद विदेशी पर्यटक श्रीलंका आने कम हो गए। पर्यटन का रोजगार भी बैठने लगा। श्रीलंका की जीडीपी में पर्यटन का योगदान 10 प्रतिशत से अधिक का है। यह एकाएक रुक गया। कोरोना महामारी के दौरान श्रीलंका के वस्त्र क्षेत्र से होने वाले निर्यात पर ब्रेक लग गया था कि रूस यूक्रेन युद्ध के बाद चाय के निर्यात में भी भारी गिरावट आई। मार्च आते-आते श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार दो अरब से भी नीचे आ गया।

श्रीलंका पर चीन का कर्ज इस तरह बढ़ा कि उसका हंबनटोटा जैसा महत्वपूर्ण बंदरगाह लीज पर चीन के हाथों में चला गया। श्रीलंका में चीनी फ़र्टिलाइज़र कंपनी के भुगतान को खारिज करने पर उसके पीपुल्स बैंक को भी ब्लैक लिस्ट में डाल दिया गया। इस तरह चीन के कर जाल में फंसकर श्रीलंका ने ‘आ बैल मुझे मार’ की कहानी ही चरितार्थ की। श्रीलंका कंगाली के कगार पर नहीं, बल्कि शिखर पर पहुंच गया है। महंगाई आसमान छू रही है। पूरे देश में बिजली का उत्पादन बंद है। बिजली की कमी से हालात इस तरह खराब हो गए हैं कि अस्पतालों में आवश्यक सर्जरी तक नहीं हो पा रही है। कारखानों में कामकाज बंद है। कागज की किल्लत के कारण परीक्षाएं रद्द की जा रही है। तेल की कमी से रेल और बस यातायात बंद हो चुका है। आपूर्ति व्यवस्था बंद होने से घरों के चूल्हे जलने बंद हो गए हैं। लोगों को खाने पीने की चीजें नहीं मिल पा रही है। इन सभी हालात के लिए वहां की जनता सरकार को दोषी ठहरा रही है।

भारत की पड़ोसी सहायता की नीति रही है और श्रीलंका में संकट का अंदाजा लगते ही भारत ने जनवरी महीने से ही श्रीलंका के लिए सहायता भेजनी शुरू कर दी है। लेकिन श्रीलंका के हालात भारत को भी प्रभावित करेंगे। भारत के लिए तमिल शरणार्थियों की समस्या पैदा हो सकती है। श्रीलंका में तमिलों की संख्या है और वे भारत की शरण लेने के लिए धीरे-धीरे भारत की ओर आ रहे हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने नई दिल्ली को संभावित स्थिति से अवगत कराया है। विदेश मंत्री जयशंकर ने श्रीलंका की सरकार के सामने यह मुद्दा उठाया है और भारतीय मछुआरों की पुरानी समस्या के हल की बात भी कही है।

अब यह कहने में कोई संकोच नहीं कि श्रीलंका अपनी इस भयावह स्थिति के लिए स्वयं ही जिम्मेदार है। अलबत्ता इस संकट ने श्रीलंका के आवाम को एकजुट कर दिया है और यह एकजुटता कोई 70 साल पहले ब्रिटिश हुकूमत के शिकंजे से निकलने के संघर्ष के दौरान दिखी एकजुटता से भी ज्यादा प्रगाढ़ है। आवाम सड़क पर उतर आया है और उसकी एक ही मांग है कि परिवारवादी राष्ट्रपति पद छोड़ें। आवाम को समझ आ गया है कि मुफ्त की सुविधाओं और सेवाओं के चक्कर में वह अपने देश का अहित कर रहे हैं और केवल परिवार को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं।

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