उच्च शिक्षा में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा लागू सेमेस्टर प्रणाली को ध्यान में रखकर हम भी हाईस्कूल और इंटरमीडिएट के लिए नवीन मूल्यांकन और परीक्षा पद्धति विकसित कर सकते हैं, जो कोरोना जैसी वैश्विक आपदा की घड़ी में भी हर चुनौती के लिए हमें कारगर बना सकती है। — डॉ. निरंजन सिंह
कोरोना जैसी महामारी ने पूरी दुनिया की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक ढांचे को परंपरागत तौर पर चलाने की प्रचलित व्यवस्था से बाहर निकलने के लिए विवश कर दिया है। हर कोई सामाजिक और आर्थिक बदलाओं को थोड़ा-अधिक महसूस कर रहा है, किंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिक्षा को लेकर उत्पन्न चुनौतियां और चिंताएं हैं, जो सभी आम और खास को खाए जा रही हैं।
मुझे एक अभिभावक ने फोन किया कि उसका कक्षा दस में पढ़ने वाला बेटा रात-दिन स्मार्ट फोन खरीदने की जिद कर रहा है। उसका कहना है कि ऐसा करने के लिए उसके शिक्षक द्वारा लगातार उस पर दबाव डाला जा रहा है। विद्यार्थी स्वयं भी इस बात को लेकर चिंतित है कि वह और बच्चों से पढ़ाई के मामले में कहीं पीछे न रह जाए। अभिभावक के समक्ष आर्थिक संकट है और वह किसी भी स्थिति में अपने पाल्य को स्मार्ट फोन नहीं दिला सकता है, लिहाजा उसने प्रिंसिपल को फोन किया। मैंने उस अभिभावक को समझाया कि उसे परेशान होने की आवश्यकता नहीं है और वह अपने बेटे को कहे कि आस-पास अपने दोस्तों के साथ उनके मोबाइल से ऑनलाइन कक्षा ज्वाइन करने का प्रयास करे। मैंने तत्काल अपने शिक्षक को भी समझाया कि वह किसी विद्यार्थी को स्मार्ट फोन खरीदने के लिए बाध्य न करे, क्योंकि आर्थिक रूप से दबाव का सामना कर रहे परिवारों में ऐसे बच्चे असामान्य कदम भी उठा सकते हैं, जिसका खामियाजा हम सब को भी भुगतना पड़ सकता है।
हम दुनिया के सबसे बड़ी शिक्षा और परीक्षा प्रणाली संचालित करने वाली उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद से मान्य और पोषित शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा हैं, जिसमें हाईस्कूल के लगभग 29 लाख और इंटरमीडिएट के 26 लाख से अधिक बच्चे अध्ययन करते हैं। आबादी के लिहाज से सबसे बड़े प्रदेश में शिक्षा और स्वास्थ्य सरकारों की प्रमुखता में कभी भी नहीं रही है। ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ते कोरोना मरीजों और श्मशानों व कब्रगाहों में अंतिम क्रिया के लिए लगने वाली कतारों को सारी दुनियां ने देखी है। हालांकि हम इसके लिए सिर्फ वर्तमान सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं। वास्तविकता यह है कि हर पांच साल में सरकारें तो बदल जाती हैं, किंतु उनका चरित्र नहीं बदलता।
प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था का बुनियादी ढांचा पहले से ही जर्जर है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक भौतिक और प्रशिक्षित मानव संसाधन के अभाव में समाज और सरकार के लिए यह व्यवस्था निरंतर बोझ बनती जा रही है। ऊपर से दोहरी शिक्षा नीति ने सामाजिक और आर्थिक विषमता की खाई को और गहरा बना दिया है। यही कारण है कि आरक्षण का लाभ पाकर भी समाज का एक तबका ऊपर नहीं उठ पा रहा है। जब संभावित आपदा और महामारी से निपटने के लिए हमारे पास आपदा प्रबंधन की पहले से कोई ठोस नीति नहीं रही है तो भला शिक्षा को लेकर कौन सोचता है, जो हमारी प्राथमिकता में कभी रही ही नहीं।
कोरोना से निपटने के लिए केंद्र ने सिर्फ वैक्सीन के लिए पैंतीस हजार करोड़ रुपए का बजट में प्राविधान किया। राज्य सरकार भी तिज़ोरी खोलकर स्वास्थ्य सुविधाओं पर धन खर्च कर रही हैं, किंतु शिक्षा व्यवस्था को इस संकट से उबारने का सबसे सस्ता और सरल उपाय केंद्र और राज्य सरकार को सिर्फ यही सुझा कि शिक्षण संस्थानों में अनिश्चित काल के लिए ताले लगा दो और विद्यार्थियों को घर बैठे अगली कक्षाओं में प्रमोट करते जाओ। यह संकट भी शिक्षा को लेकर सरकार की सोच को समझने का सबसे अच्छा अवसर है।
शैक्षिक सत्र 2020-21 में कोरोना की पहली लहर के बाद जब शिक्षण संस्थाएं लंबे समय के लिए बंद हो गई तो सरकार ने छात्रों के हित को देखते हुए ऑनलाईन कक्षाएं संचालित करने की आधी अधूरी योजना बनाई। हम लोगों से शिक्षा अधिकारियों द्वारा ऐसे सुझाव मांगे गए, जिसमें सरकार को एक धेला भी खर्च नहीं करना पड़े और ऑनलाईन कक्षाएं भी चलती रहे। बहरहाल पूरे सत्र में जैसे-तैसे कक्षाओं का संचालन हुआ, जिससे औसतन दस फीसदी बच्चे ही जुड़ पाए। गनीमत है कि उन बच्चों को परीक्षा की बालिवेदी पर नहीं चढ़ना पड़ा, अन्यथा जो परिणाम होता उसकी भयावहता देखने लायक होती। आम इंसान को ऑक्सीजन के बिना तड़पते हुए देखकर कर तो सारी दुनियां आंसू बहा रही थी, किंतु शिक्षा व्यवस्था को ऑक्सीजन सपोर्ट की जरूरत को केंद्र ने भी कभी महसूस नहीं किया। शुरू में हमने जिस अभिभावक के दर्द को सामने रखा, क्या वह किसी कोरोना संक्रमित मरीज के दर्द से कम है? बस फर्क यही है कि मरीज का दर्द तात्कालिक पीड़ा पहुचाने वाला होता है, जबकि अभिभावक का दर्द पीढ़ियों तक महसूस करनेवाला है। स्कूली शिक्षा के अभाव में जिन बच्चों की नीव कमजोर होगी वह आगे चलकर अपने जीवन और समाज की चुनौतियों का किस तरह से मुक़ाबला करेंगे, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। प्रश्न यह है कि क्या केंद्र और राज्य सरकार इस वैश्विक महामारी के दौर में शिक्षा के समक्ष आने वाली चुनौतियों का मिलकर मुकाबला नहीं कर सकती थी? जिस तरह से करोड़ों बच्चों को मिड डे मील के अलावा जूते, मोजे,बैग और पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती हैं। छात्रवृत्ति की एकमुश्त धनराशि दी जाती रही, उसी प्रकार ऑनलाइन शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए बच्चों को स्मार्टफोन और लैपटॉप नहीं दिए जा सकते थे? आज देश 5 जी टेक्नोलॉजी की ओर बढ़ रहा है, किंतु देश और प्रदेश के बहुत सारे गांव ऐसे हैं जहां 3जी और 4जी की भी सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। ऐसे में हम ऑनलाइन कक्षाओं की परिकल्पना आखिर कैसे कर सकते हैं? यह भी सरकार के लिए सोचने का विषय है।
ऑनलाईन कक्षाओं के संचालन की चुनौती सिर्फ भौतिक सुविधाओं का अभाव भर नहीं है, बल्कि शिक्षकों के तकनीकी जानकारी और प्रशिक्षण भी एक बड़ा सवाल है। मैंने पिछले सत्र में फतेहपुर जनपद में ऑनलाईन कक्षाओं के लिए नामित नोडल अधिकारी और खुद एक कालेज के प्रधानाचार्य के रूप में महसूस किया है कि अधिकांश शिक्षक तकनीकी रूप से ऑनलाईन कक्षाओं के संचालन के लिए दक्ष नहीं हैं। बहुतों को स्मार्टफोन चलाना नहीं आता। अगर शिक्षा विभाग और सरकार जागरूक होती तो ऐसे शिक्षकों को पिछले एक साल में प्रशिक्षित किया जा सकता था, किंतु ऐसा नहीं किया गया। जब पचास फीसदी बच्चों को कुछ महीने के लिए स्कूलों में आने की अनुमति दी गई थी उसी समय आने वाली चुनौतियों के लिए उन्हें भी तैयार किया जा सकता था। शिक्षकों और छात्रों को ऑनलाईन कक्षाओं के लिए प्रशिक्षित करने का यह उपयुक्त अवसर था। हमारे प्रधानमंत्री भी सिर्फ बच्चों को परीक्षा का मंत्र देते रह गए, किंतु यह भूल गए कि शिक्षा का मंत्र तो इन्हें मिला ही नहीं, फिर परीक्षा का मंत्र किस काम का।
संकट की इस घड़ी में परीक्षा प्रणाली में बदलाव की चर्चा भी तब शुरू की गई है, जब पिछले डेढ़ साल से घरों में एक तरह से मानसिक यंत्रणा झेल रहे छात्र-छात्राओं को बिना परीक्षा के प्रोन्नत करने का सरकार ने आनन फानन में निर्णय ले लिया। नेताओं को घोषणा की जल्दी इतनी होती है कि शिक्षाविदों, शिक्षकों व प्राचार्यों से परामर्श तक का भी इंतज़ार नहीं करते। बेहतर होता कि पहले से प्रचलित परंपरागत परीक्षा प्रणाली को बदलने की एक ठोस नीति तैयार कर उसका क्रियान्वयन इस परिणाम के साथ ही होता। वैसे भी हम केंद्रीय और राज्य के शिक्षा बोर्डों द्वारा आयोजित हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षाओं को अव्यवहारिक और अवैज्ञानिक ही मानते हैं, जिसके द्वारा बच्चों के संपूर्ण व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। मेरी राय में कक्षा नौ और दस दोनों वर्षों में सेमेस्टर पर आधारित मूल्यांकन, जिसमें बच्चे के बौद्धिक, मानसिक और शारीरिक क्षमताओं का सही आकलन शामिल हो, को आधार बनाकर किया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा लागू सेमेस्टर प्रणाली को ध्यान में रखकर हम भी हाईस्कूल और इंटरमीडिएट के लिए नवीन मूल्यांकन और परीक्षा पद्धति विकसित कर सकते हैं, जो कोरोना जैसी वैश्विक आपदा की घड़ी में भी हर चुनौती के लिए हमें कारगर बना सकती है। संकट की इस अंतहीन घड़ी में कोरोना से दम घूंट रहे शिक्षा भी ऑक्सीजन की दरकार है।
लेखक उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद में श्री रामगोपाल त्रिपाठी इंटर कालेज में प्रिंसिपल है।