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आजादी का अमृत कालः उत्तर पूर्व भारत के गुमनाम शहीद (भाग-2)

स्वदेशी पत्रिका के पिछले अंक में उत्तर पूर्व के सात गुमनाम स्वातंत्र्य वीरों के विषय में संक्षिप्त परिचय दिया गया था। प्रस्तुत अंक में कुछ अन्य प्रमुख गुमनाम स्वातंत्र्य वीरों के विषय में वर्णन किया गया है। — विनोद जौहरी

 

आजादी का अमृत काल एक पावन अवसर है, जब हम उन सभी गुमनाम स्वतन्त्रता सैनानियों को याद करें, जिन्होंने देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में असम, मेघालय, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड, औरसिक्किम जैसे राज्यों के स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है। स्वदेशी पत्रिका के पिछले अंक में उत्तर पूर्व के सात गुमनाम स्वातंत्र्य वीरों के विषय में संक्षिप्त परिचय दिया गया था। प्रस्तुत अंक में कुछ अन्य प्रमुख गुमनाम स्वातंत्र्य वीरों के विषय में वर्णन किया गया है। 

पा तोगन संगमा

थोगन नेगमेइया संगमा का जन्म आज के पूर्व गारो पहाड़, जिला केन्द्र विलियम नगर (जिसका मूल नाम सिंगसान गिरी था) से 10 किमी दूर छिद्दुलिबरा ग्राम में हुआ था। 1857 के बाद अंग्रेज संपूर्ण देश पर अपना राज जमाने के लिए दमन चक्र चला रहे थे, उसी के अंतर्गत अंग्रेजों ने मेघालय और गारो पहाड़ को अपना निशाना बनाया था। अंग्रेजों ने गारो पहाड़ पर मैमेन सिंह जिले (आजकल बंगलादेश में) की ओर से आक्रमण किया था। दूसरा आक्रमण ग्वालापाड़ा की ओर से, और तीसरा बर्मा (म्यांमार) क्षेत्र से हुआ था। इस आक्रमण के बाद कैप्टन केरी और केप्टन विलियम ने गारो पहाड़ के तूरा क्षेत्र पर अधिकार कर लिया और तूरा ब्रिटिश अधिकारियों का केन्द्र बन गया। थोगन नेगमेइया संगमा ने घोषणा की- “अंग्रेजों को अपने क्षेत्र पर राज नहीं करने देंगे। लोगों को उनका गुलाम नहीं बनने देंगे।“ उसने क्षेत्र के युवकों की एक सेना बनायी, युवकों को प्रेरणा दी कि अपनी मातृभूमि की रक्षा करनी है तो बलिदान देना होगा। उसने गांव-गांव जाकर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध प्रचार किया और आजादी की लौ प्रज्वलित की। इधर 8 दिसम्बर, 1872 को ब्रिटिश सेना ने तूरा की ओर कूच करके अपना शिविर स्थापित कर लिया। सेना की एक टुकड़ी को ग्वालापाड़ा की ओर से तूरा भेजा गया था। थोगन नेगमेइया संगमा और उनके सहयोगियों के पास पारम्परिक ढाल, तलवार, भाला, धनुष-बाण आदि के अलावा कुछ नहीं था। थोगन और उनके सैनिक बन्दूकों से परिचित नहीं थे। अतः थोगन ने एक नया तरीका खोजा। उसने आग में एक लोहा गर्म करके लाल किया और उसको केले के तने में ढांपकर ढाल और कवच बनाए। 11 दिसम्बर, 1872 को थोगन और उनके साथियों ने अंग्रेजों के शिविर पर हमला किया और उसमें आग लगा दी। इस घटना के बाद ब्रिटिश सैनिक कुछ घबरा गए। थोगन और उनके निकट सहयोगी डालगेटसिरा के नेतृत्व में मातृभूमि की रक्षा के लिए हुए संघर्ष का सूत्रपात हो गया था। 12 दिसम्बर को फिर युद्ध शुरू हुआ तो इन लोगों की केले के तने की ढालें अंग्रेजी हथियारों के सामने टिक नहीं सकीं। ब्रिटिश अधिकारी ने षडंत्रपूर्वक थोगन को बातचीत के लिए बुलाया और गोलियों से भून डाला। थोगन शहीद हो गए। डालगेटसिरा ने स्थानीय ग्रामीणों और बच्चों के साथ युद्ध जारी रखा। लेकिन सभी अंततः शहीद हुए। अंग्रेजों ने तब संपूर्ण गारो पहाड़ पर अपना अधिकार कर लिया।

बीर टिकेंद्रजीत सिंह

मणिपुर राज्य की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं और  प्राकृतिक सौन्दर्य भारतवासियों के लिए गौरव के विषय हैं, तो उसका शौर्य, साहस एवं त्याग-बलिदान से परिपूर्ण इतिहास भारतवासियों के लिए प्रेरणास्रोत है। टिकेन्द्रजीत सिंह (29 दिसंबर, 1856 - 13 अगस्त, 1891) स्वतंत्र मणिपुर रियासत के राजकुमार थे। टिकेन्द्रजीत सिंह महाराजा चंद्रप्रकाश सिंह और चोंगथम चानु कूमेश्वरी देवी की चतुर्थ संतान थे। उन्हें वीर टिकेन्द्रजीत और कोइरेंग भी कहते हैं। वे मणिपुरी सेना के कमाण्डर थे। वे महान देशभक्त और ब्रिटिश साम्राज्यवादी योजना के घोर विरोधी तथा देश की एकता-अखंडता के कट्टर समर्थक थे। उनका जीवन वीरता की साक्षात प्रतिमूर्ति था और उनका विश्वास था कि “वीरभोग्या वसुन्धरा” अर्थात् वीर ही इस भूमि को भोगने के सच्चे अधिकारी हैं।

सन् 1891 के एंग्लो-मणिपुर युद्ध में मणिपुर के बहादुर लोगों ने औपनिवेशिक शक्तियों का प्रतिरोध जिस वीरता और साहस के साथ किया; वह इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है जिसके लिए मणिपुर राज्य प्रत्येक वर्ष 13 अगस्त के दिन “देशभक्त दिवस” मनाता है।

उन्होने ’महल-क्रान्ति’ की जिसके फ़लस्वरूप वर्ष 1891 में अंग्रेज़-मणिपुरी युद्ध शुरू हुआ। इसी कारण उन्हें ‘मणिपुर का शेर’ कहा जाता है। यहां तक कि ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सरकार ने उनकी वीरता, निडरता तथा पराक्रम की तुलना एक ‘खतरनाक बाघ’ से की थी। इस परम पराक्रमी और बुद्धिमान सपूत को आमने-सामने के युद्ध में अंग्रेजों द्वारा नहीं हराया जा सका तो छल-बल का सहारा लेकर एक औपनिवेशिक कानून की आड़ में विशेष अदालत द्वारा उन्हें दोषी ठहराया गया। और सन् 1891 में 13 अगस्त के दिन बीर टिकेंद्रजीत को सार्वजनिक रूप से मौत के घाट उतार दिया गया।

यू तिरोत सिंह

1802 में जन्मे यू तिरोत सिंह मेघालय के खासी पहाड़ियों के एक क्षेत्र नोंगखलाव के मूल निवासी थे, जिन्होंने 1829-1833 के एंग्लो-खासी युद्ध के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ अपनी लड़ाई में खासियों का नेतृत्व किया था। 4 अप्रैल 1929 को, उनकी सेना ने नोंगखला में तैनात ब्रिटिश गैरीसन पर हमला किया, जिसमें दो अधिकारी मारे गए। तिरोत और उसके लोगों ने छापामार युद्ध में चार साल तक अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी। 1833 में, जब वह गोली लगने के बाद पहाड़ियों में छिप गए, तो उसके एक आदमी ने उसे धोखा दिया और जल्द ही ब्रिटिश सेना ने उसे पकड़ लिया। उन्हें ढाका भेज दिया गया, जहां 17 जुलाई 1835 को कैद में उनकी मृत्यु हो गई। तिरोत सिंह भारत मां के एक ऐसे सपूत थे जिन्होंने ब्रिटिशों के सामने कभी अपना सिर नहीं झुकाया।

कनकलता बरुआ

22 दिसंबर 1924 को असम में जन्मी कनकलता बरुआ को लोग बीरबाला और असम की रानी लक्ष्मीबाई भी कहते हैं। देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने महज 18 साल की उम्र में जीवन त्याग दिया। कनकलता बरुआ ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अपना नाम बनाया, जब वह केवल 17 वर्ष की उम्र में एक आत्म बलिदानी दस्ते में शामिल हुईं। हालांकि, इससे पहले उन्होंने आजाद हिंद फौज में शामिल होने के लिए आवेदन किया था, लेकिन नाबालिग होने के कारण खारिज कर दिया गया था। भारत छोडो आंदोलन के दौर में असम में 20 सितंबर, 1942 के दिन तेजपुर के एक स्थानीय पुलिस स्टेशन में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का फैसला किया गया था। कनकलता बरुआ ने इस जुलूस का नेतृत्व किया। वह अपने हाथों में तिरंगा थामे हुए आगे बढ़ रही थीं। थाना प्रभारी ने आगे बढ़ने पर जान से मारने की धमकी दी, लेकिन फिर भी कनकलता के कदम पीछे नहीं हटे। कनकलता जैसे ही तिरंगा लेकर आगे बढ़ीं, वैसे ही जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी गई। पहली गोली कनकलता की छाती पर लगी जिसे बोगी कछारी नाम के सिपाही ने चलाई थी। जिसके बाद, तिरंगे को उनके सहयोगी मुकुंद काकोटी ने उठा लिया, उन्हें भी गोली मार दी गई।

पाउना ब्रजबासी

1833 में जन्मे पाउना ब्रजबासी एक मणिपुरी सेनानायक थे। मणिपुर साम्राज्य की सेना में प्रवेश करने के बाद अपनी काबिलियत के दम पर वह 1891 तक मेजर के पद पर पहुंच गए। उसी वर्ष ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध एंग्लो-मणिपुर युद्ध में उन्होंने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। पाओना ने 23 अप्रैल 1891 को भारतीय इतिहास की सबसे भयंकर लड़ाई में से एक में अपने सैनिकों का बहादुरी से नेतृत्व किया। वह जानते थे कि इस युद्ध में उनके लिए लंबे समय तक टिक पाना संभव नहीं है, लेकिन फिर भी वह घबराए नहीं। यहां तक कि उन्होंने मृत्यु से पहले शत्रु पक्ष ने एक प्रस्ताव दिया था कि यदि वह उनकी तरफ से लड़ने को तैयार हों तो उन्हे जीवनदान दिया जा सकता है। लेकिन उन्होंने देशद्रोह से ज्यादा मौत को स्वीकार करना पसंद किया। पाओना ने अपनी टोपी के चारों ओर लिपटे कपड़े को उतार दिया और ब्रिटिश अधिकारी से उसका सिर काटने को कहा।

रानी गाइदिन्ल्यू

रानी गाइदिनल्यू  का जन्म- 26 जनवरी, 1915, मणिपुर, भारत; मृत्यु- 17 फ़रवरी, 1993) भारत की प्रसिद्ध महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं।  उन्होंने देश को आज़ादी दिलाने के लिए नागालैण्ड में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान ही वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए इन्हें ’नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई’ कहा जाता है। 13 वर्ष की उम्र में ही वह नागा नेता जादोनाग के सम्पर्क में आईं। जादोनाग मणिपुर से अंग्रेज़ों को निकाल बाहर करने के प्रयत्न में लगे हुए थे। वे अपने आन्दोलन को क्रियात्मक रूप दे पाते, उससे पहले ही गिरफ्तार करके अंग्रेज़ों ने जादोनाग को 29 अगस्त, 1931 को फ़ाँसी पर लटका दिया। जादोनाग के बाद अब स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन का नेतृत्व बालिका गाइदिनल्यू के हाथों में आ गया। उन्होंने महात्मा गाँधी के आन्दोलन के बारे में सुनकर ब्रिटिश सरकार को किसी भी प्रकार का कर न देने की घोषणा की। नागाओं के कबीलों में एकता स्थापित करके उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए क़दम उठाये। उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और निर्भयता को देखकर जन-जातीय लोग उन्हें सर्वशक्तिशाली देवी मानने लगे थे।   सोलह वर्ष की इस बालिका के साथ केवल चार हज़ार सशस्त्र नागा सिपाही थे। इन्हीं को लेकर भूमिगत गाइदिनल्यू ने अंग्रेज़ों की फ़ौज का सामना किया। वह गुरिल्ला युद्ध और शस्त्र संचालन में अत्यन्त निपुण थीं।  रानी गाइदिनल्यू को अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेज़ों ने गिरफ़्तार कर लिया।  1947 ई. में देश के स्वतंत्र होने पर ही रानी गाइदिनल्यू जेल से बाहर आ सकीं। स्वतंत्रता संग्राम में साहसपूर्ण योगदान के लिए  ’पद्मभूषण’ की मानद उपाधि देकर उन्हें सम्मानित किया गया था।

हाइपौ जादोनांग

हाइपौ जादोनांग मणिपुर के समाज सुधारवादी, आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता थे, जिन्होंने 20 वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों के दौरान ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के चंगुल से नागा लोगों को मुक्त करने की मांग की थी। उन्होंने हेराका नामक आंदोलन भी चलाया। इसके अलावा उन्होंने एक सेना का निर्माण शुरू किया, जिसे उन्होंने ’रिफेन’ कहा, जिसमें 500 पुरुष और महिलाएं शामिल हुईं। जादोनांग ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष की स्तुति गाते हुए गीतों की रचना की, जो उनकी शिष्या रानी गैडिन्ल्यू ने अपने अनुयायियों को प्रदान की। 19 फरवरी 1931 को, उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों ने राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया और बाद में झूठे हत्या के आरोप में उन्हें फांसी दे दी गई। उस समय उनकी उम्र महज 26 वर्ष थी।

मुंगरी उर्फ मालती मेम, लालमती, दरांगी

वह चाय बागानों में अफीम विरोधी अभियान की प्रमुख सदस्यों में से एक थीं। 1921 में, शराबबंदी अभियान में कांग्रेस के स्वयंसेवकों का समर्थन करने के लिए दारांग जिले के लालमती में उनकी हत्या कर दी गई थी।

तिलेश्वरी बरुआ, ढेकियाजुली

वह ढेकियाजुली से भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदार थीं। 20 सितंबर, 1920 को ढेकियाजुली में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की कोशिश के दौरान पुलिस फायरिंग में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। उसी दिन कनकलता बरुआ की भी मृत्यु हो गई।

कुमाली देवी, ढेकियाजुली

वह एक और बहादुर थीं, जिन्हें 20 सितंबर, 1942 को तिलेश्वरी बरुआ और खाहुली देवी के साथ ढेकियाजुली पुलिस फायरिंग में गोली मार दी गई थी।

यह कार्य अभी अधूरा है और अधूरा ही रहेगा। अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में हजारों शहीदों के विषय में तो कहीं उल्लेख भी नहीं मिलता। यह छोटा सा प्रयास एक श्रद्धांजलि है उत्तर पूर्व के गुमनाम शहीदों के लिए। 

विनोद जौहरीः सेवानिवृत्त अपर आयकर आयुक्त

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