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गरीबी मुक्ति से विकसित राष्ट्र बनने का सफर

यह दुनिया के लिए एक सबक है। बहुआयामी गरीबी को भी दूर किया जा सकता है, इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और आवश्यक प्रयासों की जरूरत है। - डॉ. अश्वनी महाजन

 

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में बहुआयामी गरीबी से पीड़ित लोगों की संख्या में अभूतपूर्व कमी आई है। रिपोर्ट के अनुसार 2005-06 में भारत में बहुआयामी गरीबी से पीड़ित लोगों की संख्या 64.5 करोड़ थी, जो 2019-21 के दौरान मात्र 23 करोड़ ही रह गई है, यानि पिछले 15 सालों में 41.5 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी की चंगुल से बाहर आए। यही नहीं भारत का बहुआयामी गरीबी सूचकांक जो 2005-06 में 0.283 था, 2019-21 में मात्र 0.069 तक पहुंच गया है। इस बात के लिए यूएनडीपी ने भारत की खासी तारीफ की है। यूएनडीपी द्वारा प्रकाशित गरीबी और मानव विकास संबंधी रिपोर्टों के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि यूएनडीपी ने भारत की प्रशंसा की हो। यह जानना जरूरी है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि यूएनडीपी को भारत की प्रशंसा करनी पड़ी।

शेष दुनिया से भारत की तेज रफ्तार

यूएनडीपी की रिपोर्ट में जिन 81 देशों के गरीबी संबंधी आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं, उनमें शुरूआती आकड़े अलग-अलग सालों के हैं। जिस समय के भी प्रारंभिक आकड़े थे, सभी देशों के गरीब लोगों की सम्मिलित संख्या 150.8 करोड़ थी। चूंकि भारत के आंकड़े 2005-06 से ही उपलब्ध हैं, भारत में तब 64.5 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से पीड़ित थे। यानि इन 81 देशों के 42.8 फीसदी से ज्यादा गरीब भारत में रह रहे थे। यूएनडीपी के ताजा आंकड़ों के अनुसार इन 81 देशों में गरीबों की कुल संख्या 97.4 करोड़ हो गई है और भारत द्वारा इस संख्या का योगदान मात्र 23 करोड़ का ही है। यानि दुनिया के 81 देशों के गरीबों में अब मात्र 23.7 प्रतिशत ही भारतीय हैं।

इतना ही नहीं, जहां 81 देशों का संयुक्त बहुआयामी गरीबी सूचकांक अब 0.275 से घटकर 0.203 पर आया है, वहीं भारत का सूचकांक 2005-06 में 0.283 से घटकर 2015-16 में 0.122 और 2019-21 में सिर्फ 0.069 पर आ गया है, यानि दुनिया के गरीबी सूचकांक का लगभग एक तिहाई, यह एक बड़ी उपलब्धि है। यह भारत के लिए गर्व की बात है और दुनिया के लिए सोचने का सबब है। दुनिया को इससे सबक लेने की जरूरत है कि उसे भी भारत की तर्ज पर बहुआयामी गरीबी दूर करने के प्रयासों में तेजी लानी चाहिए।

अमृत काल का संकल्प

भारत अपनी आजादी के 75 वर्ष पूर्ण कर, अमृत काल में प्रवेश कर चुका है। पिछले 9 सालों में भारत 2013-14 में दो ट्रिलियन जीडीपी के साथ दसवें स्थान से अब 3.5 ट्रिलियन जीडीपी के साथ पाँचवे स्थान तक पहुँच गया है और प्रति व्यक्ति जीडीपी 1500 डॉलर से बढ़कर लगभग 2500 डॉलर तक तो पहुँची है, लेकिन अमृत काल में भारत का संकल्प है कि 2047 तक हम एक विकसित राष्ट्र बनेंगे। लेकिन विकसित राष्ट्र बनने की कुछ शर्तें होती हैं। आज के विकसित देशों की प्रति व्यक्ति आय 35 हज़ार अमरीकी डालर से लेकर 95 हज़ार अमरीकी डालर की है। इसलिए इन देशों हम बहुत पीछे हैं। इन देशों के लोगों की सामान्यतः जीवन की मूलभूत आवश्कताएं पूर्ण होती हैं। गरीबी का आपात नगण्य होता है। वे देश प्रौद्योगिकी की दृष्टि से भी उन्नत है और इन्फ्रास्ट्रक्चर की दृष्टि से भी।

क्या मात्र ग्रोथ से घट सकती है गरीबी?

अधिकांश अर्थशास्त्री गरीबी उन्मूलन के बारे में जीडीपी में वृद्धि यानि ग्रोथ को काफी अहमियत देते रहे हैं। यदि देखा जाए तो पिछले लंबे समय से भारत की जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती रही है। यदि पिछले 15 सालों का लेखा-जोखा लगाया जाए तो पाते हैं कि भारत की प्रतिव्यक्ति आय में 2003-04 और 2013-14 के दस सालों के दौरान 5.22 प्रतिशत सालाना वृद्धि हुई। 2013-14 से लेकर 2022-23 के दौरान 9 वर्षों में यह वृद्धि 3.76 प्रतिशत वार्षिक रही। यानि चाहे यूपीए का कालखंड हो या एनडीए का, प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि बदस्तूर जारी रही। इससे पहले भी भारत में जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती रही है। मसलन, 1950-51 से 1980-81 के दौरान प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि 1.37 प्रतिशत वार्षिक रही तो 1980-81 से 1990-91 के दौरान 3.0 प्रतिशत। 1990-91 से 2004-05 के दौरान प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि 3.8 प्रतिशत रिकार्ड की गई। आजादी के बाद के कालखंड में हालांकि प्रति व्यक्ति आय और जीडीपी में खासी वृद्धि के बाद भी गरीबी के आपात में कमी तो आती रही लेकिन गरीबी में वह कमी संतोषजनक नहीं रही। इस बीच गरीबी रेखा की परिभाषाएं भी बदलती रही। लेकिन यदि हम देखें तो यदि 2005 में जब हमारी जनसंख्या मात्र 115.46 करोड़ थी, 64.5 करोड़ लोगों (जनसंख्या का 56.4 प्रतिशत) का बहुआयामी गरीबी से पीड़ित होना बताता है कि लगातार ग्रोथ के बावजूद हम गरीबी पर संतोषजनक तरीके से विजय नहीं पा सके। इस बारे में अर्थशास्त्रियों का कहना है कि ग्रोथ के पहले चरण में आय और संपत्ति की असमानतायें भी बढ़ी, जिसके कारण गरीबी दूर करने में कम सफलता हासिल हो सकी। लेकिन यूएनडीपी के आंकड़े दिखाते हैं कि वर्ष 2005-06 से 2015-16 के दौरान, 10 सालों में गरीबों की संख्या 64.5 करोड़ से घटकर 37 करोड़ तक पहुंची और भारत का बहुआयामी गरीबी सूचकांक वर्ष 2005-06 में 0.283 से घटकर 2015-16 में 0.122 तक पहुंचा। लेकिन 2019-21 में यानि मात्र 4-5 सालों में जिसमें करीब एक साल से ज़्यादा कोरोना काल भी था, यह सूचकांक मात्र 0.069 पर आ गया और गरीबों की कुल संख्या इन मात्र 5 सालों में घटकर 23 करोड़ तक पहुंच गई है यानि मात्र 5 सालों में लगभग 38 प्रतिशत की कमी। लेकिन इससे पहले के 10 सालों में यह कमी 42.6 प्रतिशत की थी।

यहां खास बात यह है कि कोविड की त्रासदी के चलते हालांकि पिछले 9 सालों में जीडीपी और प्रतिव्यक्ति आय दोनों में वृद्धि धीमी रही, लेकिन गरीबी उन्मूलन के प्रयास ज्यादा फलीभूत हुए और गरीबी घटने की रफ्तार पहले से ज्यादा तेज हो गई। इसका मतलब यह है कि ग्रोथ गरीबी को घटाने में कम भूमिका निर्वहन करती है और समावेशी नीतियां गरीबी पर ज्यादा गहरी चोट करती है।

यानि देखा जाए तो बाद के 5 सालों में गरीबी घटने की रफ्तार में वृद्धि तो हुई ही है, आज भारत सिर उठा करके कह सकता है कि अब हम दुनिया में गरीबी को कम करने में महती भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।

क्या होती है बहुआयामी गरीबी

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यूएनडीपी द्वारा गरीबी की एक परिभाषा का इस्तेमाल होता है, जिसे बहुआयामी गरीबी कहते हैं। यह परिभाषा सभी देशों के लिए एक समान होती है। दुनिया में अलग-अलग देशों की सरकारों द्वारा गरीबी की अलग-अलग परिभाषाओं का उपयोग करने के कारण, एक ओर तो गरीबी का एक जैसा आकलन संभव नहीं हो पाता और इस कारण दुनिया के विभिन्न मुल्कों के बीच तुलना करना भी कठिन हो जाता है।

गरीबी रेखा की सरकारी परिभाषा हमेशा से ही संदेह के घेरे में रही है और अक्सर उसकी आलोचना भी होती रही है। ग़ौरतलब है कि यूपीए शासन के दौरान, जब उस समय के योजना आयोग द्वारा शहरी क्षेत्रों के लिए 32 रूपए प्रतिदिन और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 26 रूपए प्रतिदिन की गरीबी रेखा बताई गई तो उसकी खासी आलोचना भी हुई थी। इसलिए चाहे सरकार द्वारा घोषित गरीबी रेखा हो या वैश्विक स्तर पर कोई एक राशि (जो यूएनडीपी द्वारा प्रयुक्त क्रय शक्ति समता आधार पर 2.15 डालर है), वास्तविक गरीबी को शायद पूरी तरह से परिलक्षित नहीं कर पाती। इसीलिए यूएनडीपी की बहुआयामी गरीबी की परिभाषा सही मायने में गरीबी को बेहतर तरीके से दिखाने का काम करती है। ऐसे में जब यूएनडीपी यह निष्कर्ष निकालती है कि शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य, रसोई ईंधन, स्वच्छता, पेयजल, बिजली, मकान और परिसंपत्तियां सबको समाहित करती हुई बहुआयामी गरीबी भारत में घटी है, तो इस बावत राजनीतिक या आंकड़ों से हेराफेरी का कोई आरोप लगाना संभव नहीं है।

गरीबी से मुक्ति का भारतीय फार्मूला

रिपोर्ट के विस्तार में जाने पर पता चलता है कि इस बहुआयामी गरीबी के विभिन्न आयामों में भारत का कार्य निष्पादन न केवल अन्य देशों से बेहतर रहा, बल्कि पिछले 10 वर्षों की तुलना में अंतिम 5 वर्षों में और भी बेहतर रहा, और बहुआयामी गरीबी सूचकांक घटने की दर कहीं ज्यादा तीव्र थी, यानि 10 प्रतिशत वार्षिक। यूपीए के दस सालों में यह गति 6.6 प्रतिशत वार्षिक ही थी।

नरेंद्र मोदी सरकार का बहुआयामी गरीबी के निर्धारकों पर विशेष ध्यान रहा। आज भारत में बाल मृत्यु दर घटकर मात्र 1.5 प्रतिशत रह गई है, जो 2015-16 में 2.2 प्रतिशत थी। 2005-06 में यह 4.5 प्रतिशत थी। यह भारतीय बच्चों के पहले से बेहतर स्वास्थ्य का जीता जागता सबूत है। पोषण और कुपोषित बच्चों के प्रतिशत में भी भारी सुधार हुआ है, जो 2005-06 में 44.3 प्रतिशत से घटकर 2015-16 में 21.1 प्रतिशत और 2019-21 में केवल 11.8 प्रतिशत रह गया है। आवास की बात करें तो पिछले 8 वर्षों में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत शहरी और ग्रामीण दोनों मिलाकर लगभग 3 करोड़ घर बनाए गए हैं, जिस पर केंद्र द्वारा 5 लाख करोड़ रुपये की सहायता दी गई है। कोरोना के कारण सबके लिए पक्के आवास का लक्ष्य समय पर पूरा नहीं हो सका, लेकिन अब तक मुश्किल से कुछ लाख लोग ही बचे हैं जिनके पास पक्का घर नहीं है। यूएनडीपी के अनुसार, वर्ष 2015-16 में कुल 23.5 प्रतिशत आबादी पक्के और आरामदायक घरों से वंचित थी और 2019-21 में केवल 13.6 प्रतिशत।

नरेंद्र मोदी सरकार की एक और महत्वाकांक्षी योजना हर घर नल से जल (सभी घरों तक पाइप से पानी) पर तेजी से काम हुआ है और अब यूएनडीपी के अनुसार 2019-21 में केवल 2.7 प्रतिशत आबादी सुरक्षित पेयजल से वंचित थी। स्वच्छता की बात करें तो पिछले 8 वर्षों में 11 करोड़ शौचालयों का निर्माण किया गया है। प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत मार्च 2023 तक गरीब महिलाओं को 9.50 करोड़ गैस कनेक्शन दिए जा चुके हैं और मार्च 2023 तक देश में कुल 31.26 करोड़ एलपीजी गैस कनेक्शन थे। ऐसा माना जाता है कि हमारी आबादी का बहुत कम प्रतिशत बचा है जिसके पास एलपीजी गैस कनेक्शन के रूप में स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन तक पहुंच नहीं है। आज देश के दूर-दराज के गांवों तक भी बिजली पहुंच चुकी है और सरकार का दावा है कि देश के 100 प्रतिशत गांवों में बिजली पहुंच चुकी है।

ये दुनिया के लिए एक सबक है। बहुआयामी गरीबी को भी दूर किया जा सकता है, इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और आवश्यक प्रयासों की जरूरत है।

केन्द्र की मोदी सरकार पर अक्सर विपक्षी दलों द्वारा यह आरोप लगता रहा है कि यह गरीबों पर कम और अमीरों पर ज्यादा ध्यान देती है। लेकिन यूएनडीपी द्वारा प्रकाशित आंकड़े इस आरोप को सिरे से खारिज करते दिखाई दे रहे हैं। इस बात से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि सरकार आवास, पेयजल, बिजली, शौचालय, स्वास्थ्य, शिक्षा, उज्ज्वला गैस कनेक्शन योजना आदि के लक्ष्यों को जल्दी से जल्दी पूर्ण करे और गरीब जनता अपनी रोजमर्रा की मुश्किलों से मुक्त होकर देश के विकास में जुट जाए और आजादी के 100 वर्ष पूर्ण होते-होते हमारा देश विकसित देशों की पंक्ति में खड़ा हो।     

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