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युगद्रष्टा ढेंगड़ी द्वारा आर्थिक साम्राज्यवाद का विश्लेषण

युगदृष्टा राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ढेंगड़ी जी द्वारा 1993 में ही विश्व स्तर पर आर्थिक साम्राज्यवाद एवं विदेशी निवेश के आर्थिक मकड़जाल का खुलासाा किया गया था। इसी संदर्भ में उनके द्वारा दिये गये व्याख्यानों पर आधारित लेख। – डाॅ. रेखा भट्ट

साम्राज्यवादी देश जिन्होनें उपनिवेश देशों का शोषण करके अपने साम्राज्य को समृद्ध कर लिया, वे सभी देश उत्तरी गोलार्द्ध में थे। दूसरे महायुद्ध के पश्चात् अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के दबाव के कारण उनको अपने उपनिवेशों को स्वतंत्र करने पर विवश होना पड़ा। ऐसे स्वतंत्र किये गये औपनिवेशक विकासशील देश हैं जो विश्व के दक्षिणी भाग में स्थित है और उन्हें तीसरी दुनिया कहा जाता है। साम्राज्यवादी देशों का साम्राज्य स्थापित हो जाने से उन उपनिवेशों के संसाधनों पर से भी उनके अधिकार समाप्त हो गये। इस तरह उनके समृद्धि के स्त्रोत समाप्त हो गये और उनकी अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। इन देशों के आर्थिक स्त्रोतों को किसी प्रकार अपने देश में लाकर अपनी लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने का नया मार्ग इन विकसित देशों ने निकाला। अपना आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने के लिये इन देशों की सरकारों को अपनी ओर झुकाना, इन विकसित देशों का पहला कदम था। इसके लिये उन्होनें विदेशी पूंजी के निवेश को साधन बनाया। समझौते के माध्यम से विदेशी सहभागिता (फाॅरेन कोलेबोरेशन) की नीति अपनाकर, इन तीन विदेशी एजेंसियों ने आर्थिक साम्राज्य की जड़ें जमाने के प्रयास शुरू कर दिये – 1. अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आई.एम.एफ.), 2. विश्व बैंक (वल्र्ड बैंक), 3. बहुराष्ट्रीय कंपनियां (मल्टीनेशनल कंपनियां)।

विकास के लिये सहायता राशि देने के नाम पर इन एजेंसियों द्वारा बड़ी मात्रा में कर्ज दिया जाता है और विदेशी पूंजी का निवेश किया जाता है। इस निवेश से व्यापार में होने वाला भारी मुनाफा विकसित देशों में चला जाता है। गरीब देशों का विकास होना तो दूर उन पर कर्ज का बोझ बढ़ा कर उनकी गरीबी ओर बढ़ा दी जाती है किन्तु इन देशों की सरकारों का झुकाव इन विदेशी ताकतों की ओर बना रहता है। विदेशी पूंजी का बहुत बड़ा हिस्सा उस सरकारी तंत्र की भागीदारी में चला जाता है जो जनता को विकास का लेबल दिखाकर प्रत्येक चुनाव में उनका विश्वास प्राप्त कर लेती है और लगातार सत्ता में बनी रहती है। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विदेशी निवेश द्वारा भी समझौते में सम्मिलित दलो को बड़ी मात्रा में अतिरिक्त आर्थिक लाभ दिया जाता है। इसके उपरांत जो प्रौद्योगिकी आधारित मशीनरी इन विकासशील देशों को उपलब्ध करवायी जाती है वह समय के साथ काल बाह्य (आउट-डेटेड) हो चुकी होती है। ऐसे यंत्र व मशीनरी देकर उपकार दिखाया जाता है जिसका हमारे देश में कोई उपयोग नही होता और वह हमारे लिए सफेद हाथी साबित होती है। रक्षा (डिफेंस) तथा उद्योग (इण्डस्ट्री) जैसे क्षेत्रों में जहाँ हमें नई एवं उच्च प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है वहाँ प्रौद्योगिकी प्रदान नही की जाती वरन् केवल उपभोक्ता सामग्री के बाजार में अधिक मुनाफा प्राप्त करने की नीति से विदेशी निवेश किये जाते हैं।

‘गेट’ (जनरल एग्रीमेंट आॅन ट्रेड एण्ड टैरिफ) ‘शुल्क और व्यापार का सामान्य अनुबंध’ नाम से 1 जनवरी 1948 को एक संस्था स्थापित की गई जिसके डायरेक्टर थे आर्थर डंकेल (इसलिये यह डंकेल प्रस्ताव भी कहलाया)। यह संस्था विकसित देशों की सुविधा के लिये तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में उनके आर्थिक हितों को पूरा करने के लिये स्थापित की गयी।

1973 में विकासशील देशों ने अपने हितों की सुरक्षा की माँग की, किन्तु इस माँग को 1981 में हुई मैक्सिकों वार्ता में सभी विकसित देशों ने एकमत होकर ठुकरा दिया। उपभोक्ता वस्तुओं के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में अमेरिका लगातार पिछड़ने लगा इसलिये 1986 में ‘व्यापार सेवा’ (ट्रेड सर्विस) पर भी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समझौते का प्रस्ताव उसने विकासशील देशों के समक्ष रखा। वस्तुओं पर एग्रीमेंट के बाद व्यापार सेवाओं पर समझौता करवा कर विकासशील देशों के संपूर्ण आर्थिक क्षेत्र पर प्रभुत्व प्राप्त कर लिया गया।

इसके पश्चात् तीन नये क्षेत्रों को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केंद्र बनाया गयाः
1. बौद्धिक संपदा अधिकार संबंधी व्यापार (ट्रेड रिलेट टू इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राईट)
2. निवेश के उपायों का व्यापार (ट्रेड रिलेटेड टू इन्वेस्टमेंट मेजर्स)
3. कृषि (एग्रीकल्चर)

बौद्धिक संपदा अधिकार के अंतर्गत, ‘‘कोई वस्तु या पदार्थ किसी व्यक्ति की बौद्धिक संपदा बन जाती है, यदि वह उसके द्वारा खोजे गये हैं। उस वस्तु या पदार्थ पर उसका एकस्व अधिकार होगा। यही पेटेंट कानून बनाया गया। भारत में पेटेंट कानून 1970 में लागू किया गया और इसके एकस्व अधिकार की अवधि 5-7 वर्ष रखी गई जबकि अमरीका में इस अवधि को 20-25 वर्ष तक रखा गया था। भारत में किसी वस्तु या उत्पाद के पेटेंट करने के स्थान पर उसके उत्पादन की प्रक्रिया का पेटेंट किया जाता है। इससे उत्पाद को प्राप्त करने के लिये कई प्रकार की प्रक्रियाएं अपनाने की स्वतंत्रता बनी रहती है जबकि अमेरीका में किसी वस्तु का पेटेंट होने पर 20-25 वर्षों तक कोई दूसरा व्यक्ति उस उत्पाद का किसी भी प्रक्रिया से उत्पादन नहीं कर सकता।

भारत में उपलब्ध प्राकृतिक जड़ी बुटियों और जटिल उपचार की औषधीय संपत्ति पर नियंत्रण के लिये अमरिका ने प्राकृतिक पेड़ पौधों और जीव जन्तुओं के पेटेंट की भी व्यवस्था कर दी। भारत में निर्मित की गई दवाईयाँ अमेरिकी बाजार में, भारत में निर्मित से भी कम मूल्य पर बेची जाती है। भारतीय कृषि को भी पेटेंट के दायरे में सम्मिलित कर भारत की फसलों के उत्पादन पर भी विकसित देशों ने नियंत्रण करने का प्रयास किया। हमारी फसल के बीजों को उपचारित कर उन बीजों का विकसित देशों ने पेटेंट कर लिया। और भारतीय किसानों को उपचारित बीज ही बोने के लिए बाध्य किया गया। किसानों द्वारा बिना पेटेंट किये गये स्वंय के बीज बोने पर, उसे अपने ही भारतीय कानून से दण्डित करवाने का प्रावधान कर दिया गया। इस कृषि के अन्य साधन जैसे खाद, आवश्यक रसायनों आदि का पेटेंट कर किसान को पूरी तरह अमेरिकी कंपनियों पर निर्भर बनाने का प्रयास किया गया। गेट समझौते के तहत इन फसलों और भारत में पैदा होने वाले सभी अनाजों का समर्थन मूल्य तय करने का प्रावधान भी अमेरिकी कम्पनियों ने अपने हाथ में रखा। अमेरिका में पिछले कई वर्षों से से किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी (सहायता राशि) बढ़ाई जा रही है किन्तु भारतीय किसानों के लिए इसी सब्सिडी को बंद करवाने को बाध्य किया जा रहा है।

गेट समझौते के तहत् मुक्त व्यापार (फ्री ट्रेड) का संरक्षण करने के लिये भारत को अनाज भण्डारण (स्टाॅक भण्डारण) के लिये विश्व बाजार भाव पर ही अनाज खरीदने की बाध्यता तय कर दी गई जबकि भारत में प्रत्येक वर्ष कई क्विंटल अनाज, सुरक्षित भण्डारण व्यवस्था के अभाव में सड़ कर नष्ट हो जाता है। अपने ही देश में अनाज का विपुल मात्रा में उत्पादन होने के बावजूद भारत को 2.2 प्रतिशत से 3.3 प्रतिशत तक अनाज का आयात विकसित देशों से करने को विवश किया जाता है। ‘गेट‘ समझौते की आड़ लेकर विकासशील देशों की कृषि मण्डियों पर कब्जा कर लिया। विकसित देशों के कृषि उत्पादों से इन कृषि मण्डियों को पाट दिया जाये, यह साजिश गेट के माध्यम से पूर्ण नियोजित तरीके से की जा रही है। कच्चे माल के उत्पादन पर विदेशी कम्पनियां अपना नियंत्रण कर लेने के बाद अब खाद्य प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग) को भी अपने हाथ में लेने का उपक्रम चला रही है।

भारत की संपूर्ण व्यवसाय एवं कृषि व्यवस्था को अपने नियंत्रण में करने के बाद विदेशी पूंजी के भारत में मुक्त निवेश का प्रयोजन हमारे लघु उद्योग, कुटीर उद्योग व हथकरघा उद्योगों को नष्ट करने का है। भारत के सभी उत्पादन क्षेत्रों में बड़ी पूंजी निवेश करने वाले निवेशकों को मिली छूट के आगे टाॅमको और गोदरेज जैसे कम्पनियाँ भी नही टिक सकी। धीरे-धीरे हमारी कम्पनियों को किनारे करके सारा औद्योगिक क्षेत्र बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में सौपनें का षड़यंत्र फलीभूत होता जा रहा है। सभी प्राकृतिक वस्तुओं और उत्पादों पर एकस्व अधिकार (पेटेंट) इन मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा ले लिये जाने से भारत में अनुसंधान का कोई क्षेत्र नही बचेगा। यहां की प्रयोगशालाएं, अनुसंधान केंद्र बंद हो जाएँगे। वैज्ञानिकों के साथ-साथ उत्पादन प्रक्रिया ठप्प हो जाने से उद्योग नष्ट हो जायेंगे, रोजगार समाप्त हो जायेंगेे, कृषि उत्पादन एवं उद्योग धंधें बंद होने से देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की आर्थिक गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया जायेगा।

‘गेट’ के अंतर्गत होने वाले अनुबंध (एग्रीमेंट) की एक शर्त जो ‘टर्म एण्ड कण्डीशन’ के तहत गोपनीय रखी जाती है, वह यह है कि पैकेज डील (एक मुश्त समझौता) के रूप में एक बार ‘गेट’ समझौते से अनुबंधित होने के बाद उस देश के किसी भी सत्ता दल द्वारा समझौते को बदला नही जा सकेगा। यदि भविष्य में कोई नई संसद इस अनुबंध को हटाना चाहेगी तो उसे आर्थिक बहिष्कार का सामना करना पड़ेगा अन्यथा महाशक्तियों से युद्ध के लिए तैयार रहना होगा।

प्रसिद्ध उद्योगपति श्री घनश्याम दास बिड़ला ने एक बार कहा था कि ‘‘हमारी प्रतिभावान जनशक्ति और प्राकृतिक संपदा के साधन स्त्रोत इतने हैं कि भारत को स्वंय एक ‘विश्व’ कहा जा सकता है। व्यापारिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय संबंध टूट जाने के बाद भी हम अपना घरेलू बाजार चला सकते हैं।’’

यही बात जापान और जर्मनी जैसे देशों ने अपनी देशभक्ति के बल पर सत्य सिद्ध कर दिखायी। दोनों देश विश्व युद्ध के पश्चात् बुरी तरह से नष्ट हो चुके थे उनके उद्योग आदि सब क्षतिग्रस्त हो गये थे। ऐसे में भी जापान के देशवासियों ने कितने ही अभाव असुविधाएँ झेली, भूखे रहे किन्तु विदेशी वस्तुओं व अनाज को हाथ नही लगाया, अपनी बचत से राष्ट्र की सम्पत्ति में वृद्धि की और अपने परिश्रम से उद्योग तंत्र पुनः खड़े कर लिये। दूसरी ओर जर्मनी में अनेक राष्ट्रों के गुप्तचरों की कड़ी निगरानी किये जाने के बावजूद वहाँ के नागरिकों ने अपनी जान जोखिम में डाल कर गुप्त रूप से खिलौनों की फैक्ट्रियों में राइफलें आदि शस्त्र निर्मित कर लिये। युद्ध के लिये आवश्यक सिद्धता प्राप्त करने के पश्चात् हिटलर ने जर्मनी को दिवालिया घोषित कर दिया और ‘गेट’ समझौते के कारण जिन देशों के कर्ज में जर्मनी दबा हुआ था उन सभी देशों को 1933 में युद्ध के लिए चुनौती दे डाली। इस तरह अपने देश जर्मनी को कर्ज के बोझ से मुक्त करवा लिया।

भारत को भी विश्व में अपने देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए आर्थिक नीति में सुधार करने होंगे। देश की अर्थनीति को सही दिशा देने के लिये चाहे धर्म युद्ध करना पडे, किन्तु ‘‘धर्मादर्थश्च कामश्च’’ अर्थात् धर्म (न्याय) के लिये हमें यह कार्य करना होगा। राजनीतिज्ञ चाहे धर्म को राजनीतिक हस्तक्षेप कह दें, और धर्म दण्ड का अंकुश राजदण्ड पर नही चलने दें किन्तु भारत के सभी मजदूर, किसान उद्यमी एक साथ मिलकर अधर्म के नाश के लिये धर्मयुद्ध सदैव लड़ते रहेंगे।

 

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