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अंकों के खेल से बाहर निकलने का समय

लंबे अरसे से शिक्षक और विद्यार्थी परीक्षा परिणाम की प्रचलित व्यवस्था तथा मूल्यांकन की पद्धति को बदलने की आवश्यकता महसूस करते आ रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में बच्चों के मूल्यांकन के बेहतरीन सुझाव भी दिए गए हैं, जिनका क्रियान्वयन शेष है। — निरंजन सिंह

 

देश के प्रायः सभी राज्यों में कोरोना का ग्राफ तेजी से नीचे गिर रहा है। इसके साथ ही ऑक्सीजन सहित अन्य चिकित्सा सुविधाओं के अभाव को लेकर शोर भी अब थमने लगा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कैमरे चीखते, चिल्लाते और दम तोड़ते मरीजों पर अब फोकस करने के बजाए महामारी से प्रभावित दूसरे आयामों की ओर रुख कर रहे हैं। अखबारों में भी कोरोना से जान गंवाने वाले लोगों की चिताओं की वीभत्स तस्वीरें अब नहीं छप रही हैं। वॉशिंगटन पोस्ट और बीबीसी ने भारत के संपेरो के देश वाली छवि को दुनियां के सामने फिर से प्रतिस्थापित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अकेले बीबीसी ने ही 250 से अधिक भारत विरोधी रिपोर्टें प्रकाशित और प्रसारित की हैं।

अभी तीसरे लहर के आने को लेकर संभावनाएं प्रकट की जा रही है, किंतु इसके लिए कोई वैज्ञानिक आधार मौजूद नहीं है। यह भी कहा जा रहा है कि इस बार बच्चे ज्यादा प्रभावित होंगे, किंतु इसके पीछे भी कोई वैज्ञानिक तथ्य नहीं है। यह भी सिर्फ अनुमान पर आधारित है। हम यहां कोरोना संकट से हुए जानमाल के नुकसान की चर्चा नहीं कर रहे हैं, बल्कि देश के करोड़ों बच्चों के भविष्य पर इस महामारी ने जो असर डाला है, उसे लेकर चिंतित हैं। यह विषय मीडिया के लिए टीआरपी बढ़ाने वाला नहीं हो सकता, लिहाजा इस पर जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, वह अभी तक नहीं हुई है। समाचार माध्यमों ने सिर्फ हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षाओं के निरस्त होने की खबरें प्रमुखता से छापी हैं और चैनलों पर दिखाई हैं। औपचारिकता के लिए कुछ चर्चा-परिचर्चा भी देखने सुनने को मिली, किंतु उससे शिक्षक और विद्यार्थी गायब दिखे। संभव है, उन्हें इसके लिए उपयुक्त नहीं समझा गया होगा। चैनलों में देखने को मिला कि पैनल में कुछ ऐसे महानुभाव नजर आए, जो शिक्षा को कारपोरेट सेक्टर की भांति चलाने में विश्वास रखते हैं। इनके लिए फैक्ट्री सरीखे शिक्षण संस्थानों में छात्र और शिक्षक एक ’रॉ मैटेरियल’ से अधिक अहमियत नहीं रखते हैं, जिनकी न तो अपनी कोई सोच होती है और न हीं समाज को देने के लिए अपना कोई चिंत्तन।

देश में स्कूली शिक्षा को संचालित करने वाले छह दर्जन से अधिक बोर्ड हैं, जिनमें से भेंड़ चाल चलने के आदि रहे अधिकांश ने सीबीएसई के तर्ज पर अपनी बोर्ड परीक्षाएं निरस्त कर दी हैं। इनमें यूपी बोर्ड भी है, जो दुनियां की सबसे बड़ी परीक्षा संस्था मानी जाती है। हाल के वर्षों में इस बोर्ड को उत्तर प्रदेश में नकलविहीन परीक्षा कराने का श्रेय भी जाता है, किंतु पाठ्यक्रम, परीक्षा और आधुनिक तरीके से शिक्षा देने के मामले में यह आज भी सीबीएसई का नकल करने से पीछे नहीं है।

प्रायः सभी बोर्डों के परीक्षाओं के निरस्त होने के बाद इस बात पर चर्चा हो रही है कि अब परीक्षाफल कैसे तैयार किया जाए। उत्तर भारत के गावों में ’भोज के दिन कोहड़ा रोपने’ की एक प्रचलित कहावत है, जो आज के परिप्रेक्ष्य में चरितार्थ हो रही है। कहने के लिए परीक्षा संस्थाएं एक स्वतंत्र नियामक के रूप में कार्य करती हैं, किंतु वास्तविकता यह है कि सरकारें राजनीतिक निहितार्थ के लिए भी इन संस्थाओं का भरपूर इस्तेमाल करती हैं। परीक्षाओं के निरस्त होने के संदर्भ में भी इसे देखा जा सकता है। यहां समझने  वाली बात यह है कि आखिरकार सीबीएसई बोर्ड की परीक्षा निरस्त करने की घोषणा प्रधानमंत्री क्यों करते हैं और इसका निर्णय कैबिनेट क्यों लेता है? या फिर राज्यों में परीक्षा निरस्त करने की घोषणा मुख्यमंत्री अथवा संबंधित शिक्षा मंत्री द्वारा क्यों की जाती है? क्या परीक्षा संस्थाओं के निर्णय लेने की स्वायतता का यह मज़ाक नहीं है? यदि सरकारें परीक्षा निरस्त करने का निर्णय ले सकती हैं, तो फिर परिणाम घोषित करने का मानक भी कैबिनेट को ही तय करना चाहिए। सच्चाई यह है कि करोड़ों बच्चों के हित से जुड़े इतने गंभीर विषय पर शिक्षाविदों और शिक्षकों की राय लेने के बजाय ब्यूरोक्रेट्स राजनीतिक दबाव में और आनन-फानन में निर्णय ले लेते हैं, जिन्हें आगे का रास्ता पता नहीं होता, कि परिणाम कैसा होगा? केंद्र और राज्यों में परीक्षाएं निरस्त होने के पश्चात परिणाम को लेकर प्रायः विशेषज्ञों की समितियां गठित की जा रही हैं, जिनसे तीन दिन से लेकर एक सप्ताह में रिपोर्ट देने को कहा जा रहा है। कोरोना संकट के इस भयावह दौर में मानसिक तनाव झेल रहे देश के करोड़ों बच्चों के भविष्य के साथ यह मजाक नहीं तो और क्या है? बेहतर होता कि जब परीक्षाएं कराने की संभावनाएं नजर नहीं आ रही थी, उसी समय राष्ट्रीय स्तर पर और प्रदेश स्तर पर परीक्षाएं निरस्त करने और परीक्षाफल तैयार करने के लिए एक सर्वमान्य मानक तैयार करने के हेतु विशेषज्ञों की समिति गठित की जाती तथा स्कूल स्तर से शिक्षकों और विद्यार्थियों के साथ-साथ अभिभावकों के सुझाव भी आमंत्रित किए जाते, तत्पश्चात ऐसा कोई निर्णय निकल कर आता, जिसकी घोषणा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में की जानी चाहिए थी। वर्तमान में आनन-फानन में लिया जाने वाला निर्णय घातक हो सकता है।

लंबे अरसे से शिक्षक और विद्यार्थी परीक्षा परिणाम की प्रचलित व्यवस्था तथा मूल्यांकन की पद्धति को बदलने की आवश्यकता महसूस करते आ रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में बच्चों के मूल्यांकन के बेहतरीन सुझाव भी दिए गए हैं, जिनका क्रियान्वयन शेष है। इस बात से शायद ही कोई सहमत हो कि सिर्फ हाईस्कूल और इंटरमीडिएट के परीक्षाफल के आधार पर किसी छात्र को हमें मेधावी मान लेना चाहिए। अंकों के इस खेल ने माध्यमिक शिक्षा को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है। कोई विद्यार्थी मेधावी है, यह मान लेने के लिए सिर्फ उसका एक परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर लेना पर्याप्त आधार नहीं हो सकता, बल्कि इसके लिए जरूरी है कि उसके अंदर की तार्किक, विश्लेषण, शोधपरक ज्ञान, शारीरिक दक्षता और चारित्रिक गुणों का सतत मूल्यांकन किया जाना चाहिए। समाज के प्रति उसकी संवेदना और राष्ट्रीयता की भावना सहित अन्य मानकों को भी मूल्यांकन का आधार बनाया जा सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मूल्यांकन की प्रचलित पद्धति से बाहर निकलने की बात कही गई है।

सतत, समग्र और तार्किक मूल्यांकन की व्यवस्था को अमल में लाने से पहले हमें शिक्षा व्यवस्था को भी और अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। वास्तविकता के धरातल पर देखें तो अधिकांश माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों और प्रधानाचार्यों के पद वर्षों से रिक्त चले आ रहे हैं, जिन्हें भरने का प्रयास सरकारों द्वारा गंभीरतापूर्वक नहीं किया जाता। बुनियादी सुविधाओं का रोना अलग है। दशकों से शिक्षण सहित अन्य मद में लिए जानेवाले शुल्कों में नहीं के बराबर वृद्धि के चलते बुनियादी सुविधाओं का टोटा है। भवन से लेकर फर्नीचर तथा पुस्तकालय से लेकर प्रयोगशाला तक में जरूरी सामग्री मौजूद नहीं है। स्कूलों में खेल के मैदान या तो है ही नहीं या फिर प्रबंध तंत्रों द्वारा उनका व्यावसायिक इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे हालात में हम सतत और समग्र मूल्यांकन की बात आखिरकार कैसे कर सकते हैं।

आज जब हाईस्कूल और इंटरमीडिएट के परिणाम तैयार करने की बात सामने आ रही है, तो बोर्ड के अधिकारी और विशेषज्ञ इस उधेड़ बुन में हैं कि आखिरकार पूर्व की किन परीक्षाओं पर भरोसा किया जाए। संदेह के दायरे में पूर्व की परीक्षाओं के सिर्फ अंक नहीं हैं, बल्कि उन अंकों के प्रदाता शिक्षक भी हैं, जिन पर न तो आज का ’सिस्टम’ और न हीं समाज भरोसा करने को तैयार है। यह समझने के लिए कोई भी तैयार नहीं होगा कि किन परिस्थितियों में आज का शिक्षक बच्चों को शिक्षित कर रहा है। शिक्षक और छात्र का मानक कहीं भी सम्यक रूप से देखने को नहीं मिलेगा। राजकीय और सहायता प्राप्त स्कूलों को यदि छोड़ दें तो वित्तविहीन स्कूलों की दशा अत्यंत दयनीय हैं। जब उत्तर प्रदेश में ठेके पर नकल होता था उस समय हजारों की संख्या में वित्त विहीन स्कूल अस्तित्व में आए, जो मानक पर किसी भी तरह से खरे नहीं उतरते हैं। ऐसे स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की योग्यता ही संदेह के घेरे में रहती है, जिनसे मूल्यांकन की शुचिता की उम्मीद नहीं की जा सकती है। बावजूद इसके हमें संकट के दौर में त्वरित निर्णय लेने की आवश्यकता है। इस समय मूल्यांकन का सटीक पैमाना हाईस्कूल के लिए यही हो सकता है कि कक्षा नौ की वार्षिक परीक्षा, कक्षा दस के मासिक टेस्ट तथा प्री बोर्ड की परीक्षा के अंकों का औसत निकालकर अंतिम परिणाम तैयार किए जाएं। इसी प्रकार इंटरमीडिएट के लिए हाईस्कूल परीक्षा के अंक, ग्यारहवीं वार्षिक परीक्षा तथा बारहवीं प्री बोर्ड के अंकों का औसत निकालकर परिणाम तैयार किए जाएं। इससे छात्रों के साथ किसी भी प्रकार का अन्याय नहीं होगा, किंतु यहां ध्यान रखने योग्य बात यह है कि परीक्षाफल तैयार करने का मानक सभी बोर्डों का एक जैसा हो, ताकि अंकों का ग्राफ ज्यादा ऊपर नीचे न हो सके, क्योंकि कुछ राज्य अपने विद्यार्थियों को अधिक लाभ देने के लिए अंकों का खेल, खेल सकते हैं।   

(लेखक रामगोपाल त्रिपाठी इंटर कालेज विजयीपुर फतेहपुर में प्रिंसिपल हैं।)

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