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शहरीकरणः एक एकीकृत रूप

शहरी नियोजन केवल भौतिक रूप के कुशल ढ़ांचे को खड़ा करना नहीं है बल्कि इसकी नींव प्रभावी सामाजिक बुनियादी ढ़ांचे के निर्माण में भी निहित है, इसलिए शहरी योजनाकारों को तीनों आयामों को ध्यान में रखना होगा। — डॉ. जया कक्कड़

 

विकास के नाम पर भौतिक संरचना, सामाजिक जटिलता और सामूहिक व्यवहार पर बगैर गौर किए देश में अंधाधुंध हो रहे अनियोजित शहरी विकास नागरिकों के समक्ष एक नई चुनौती का सबब बनता जा रहा है। आवष्यक बुनियादी ढ़ांचे के विकास और विस्तार के बगैर षहरीकरण का फैलाव रोजमर्रा की जिंदगी में समस्याएं अधिक उत्पन्न कर रहा है, समाधान कम।

वर्ष 1925 तक भारतीय आबादी का 90 प्रतिशत हिस्सा गांव में निवास करता था, अब जबकि हमारा आबादी 135 करोड़ से ऊपर हो गई है, का एक तिहाई हिस्सा शहरों और कस्बों में रहने लगा है। 2036 तक यह संख्या बढ़कर 36 प्रतिशत हो जायेगी और सरकारी अध्ययन के मुताबिक 2046 में जब हम देष की आजादी का 100वां साल मना रहे होंगे तो कुल आबादी का आधा हिस्सा यानि 50 प्रतिशत आबादी शहरीकृत हो जायेगी। चूंकि देश में कृषिगत गतिविधियां कम हो रही है इसलिए रोजी-रोजगार के लिए लोगों का पलायन हो रहा है और उसी रफ्तार में षहरीकरण बढ़ रहा है। वर्तमान में 10 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश प्रमुख रूप से षहरी है। सन् 2036 तक ऐसे राज्यों की संख्या बढ़कर 18 होने वाली है। 1970 में भारत में 50 लाख से अधिक लोगों के लिए सिर्फ दो शहरी समूह थे, आज बढ़कर 9 हो गए हैं। देष की राजधानी दिल्ली 2030 तक दुनिया का सबसे बड़ा शहरी फैलाव वाला ठिकाना बन जाएगा।

समाजशास्त्र की भाषा में किसी भी समाज का शहरीकरण सुसंस्कृत रूप में स्वीकार किया जाता है। हमारे यहां उल्टा है। क्योंकि अपर्याप्त टूटे-फूटे बुनियादी ढ़ांचे (बिजली, सड़क, पानी) तथा कई बार खतरनाक जोखिम के साथ बगैर दूरगामी परिणामों के अध्ययन के शहरी विकास का क्रम जारी है। इसी बेतरतीब बढ़ोतरी के चलते सामाजिक, आर्थिक अथवा धार्मिक आधार पर विभिन्न क्षेत्रों के बीच विषमता भी बढ़ी है। कई बार सामाजिक या धार्मिक आधार पर विरोध के भी स्वर उभरते रहे हैं। जिन षहरों में अनियोजित फैलाव हो रहा है, वहां बिजली साझा करने के लिए कोई इलेक्ट्रिक ग्रिड नहीं है, कुषल परिवहन नेटवर्क नहीं है, जल आपूर्ति या जल निकासी का कोई मॉडल नहीं है। इस तरह की भिन्न-भिन्न समस्याएं हैं, लेकिन समाधान या तो है ही नहीं या है भी तो उल्टा-पुल्टा या ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ जैसा है। जैसे- सड़क पर भीड़ कम करने के लिए सम-विषम योजना या पार्किंग चार्ज में ऊंची वृद्धि। दरअसल षहरी क्षेत्रों को विकसित करने के लिए सभी बुनियादी ढ़ाचे को एकीकृत करने की आवष्यकता है और सामूहिक जीवन को नियोजन के दौरान सबसे ऊंची प्राथमिकता दी जानी चाहिए। षहरी क्षेत्रों के लिए आवास, परिवहन, बिजली, पानी के साथ जलवायु से जुड़ी चुनौतियों के समाधान की जरूरत है, क्योंकि 2030 तक भारत की षहरी आबादी 65 करोड़ के आस-पास होगी और भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 70 प्रतिषत योगदान यहीं से होगा। वर्तमान में आधे से अधिक आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है लेकिन इनका योगदान केवल 18 प्रतिषत है।

हालाँकि, शहरी नियोजन को एक आर्थिक मुद्दे के रूप में देखने का अर्थ यह है कि शहरी क्षेत्रों का विकास कैसे होना चाहिए, इसका एक बहुत ही अदूरदर्षी दृष्टिकोण है। वास्तव में शहरी स्थान गतिषील संस्थाएं हैं, जो राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी, पर्यावरण और भू-स्थानिक विचारों के संयोजन से आकार लेती हैं। इस प्रकार प्रत्येक शहरी क्षेत्र अपनी जरूरतों और विकास की आकांक्षाओं के साथ अद्वितीय है। दुर्भाग्य से अंग्रेजों ने हमें एक राष्ट्रीय स्तर पर केंद्रीकृत संरचना सौंपी जिसे हमारे संविधान ने और मजबूत किया। इस योजना के तहत स्थानीय सरकारों को सषक्त बनाना एक पक्ष के रूप में देखा जाता है न कि एक वैध अधिकार के रूप में। शहरों पर या तो नौकरषाहों का शासन होता है जिनके पास लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं होता है या स्थानीय प्रतिनिधियों के पास सीमित शक्ति होती है। हमारे लोकतंत्र ने उन राज्यों के लिए स्थानीय सरकारों के साथ बॉटम-अप दृष्टिकोण का पालन नहीं किया, जो संविधान बनाते समय प्रमुखता से चिन्हित किया गया था। शासन का यह विरासत में मिला मॉडल केंद्रीकृत हुक्मरान को मजबूत करता है और स्थानीय नियोजन के लिए प्रतिकूल है जो उस क्षेत्र की जरूरतों को अधिक प्रभावी ढंग से संबोधित कर सकता है।

शहरी चुनौतियां केवल स्वच्छ, हरित और बेहतर भौतिक बुनियादी ढांचे के लिए बेहतर योजना में तब्दील नहीं होती हैं। ऐसा नहीं है कि ये महत्वपूर्ण नहीं हैं। लेकिन यह शहरी विकास के बारे में एक बहुत ही अदूरदर्षी दृष्टिकोण है। सभी शहरी स्थानों में ऐसे लोग रहते हैं जो एक ही समय में विषमता और एकरूपता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों में खुद को बनाए रखते हैं। यह आवष्यक है कि सभी हितधारकों को एक साथ लाया जाए ताकि जलवायु को आगे प्रकृति आधारित और (सामाजिक और आर्थिक रूप से) समावेषी शहरी स्थान के रूप में बढ़ाया जा सके। जिस चीज की जरूरत है वह है सहयोग की, टकराव की नहीं। उदाहरण के लिए, किसी भी प्रस्तावित विकास से किसी समुदाय के अधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। एक तरफ राष्ट्रीय और निर्मित पर्यावरण और दूसरी तरफ निवासियों की जरूरतों और आकांक्षाओं के बीच एक सामंजस्यपूर्ण संतुलन होना चाहिए। हमेषा की तरह हमारा गौरवषाली अतीत हमें सीखने के लिए सबक प्रदान करता है।

बार-बार दोहराया जाता रहा है कि षहरी जीवन एक मिश्रित जीवन षैलियों का समूह है जिनमें काम के बेहतर अवसर वस्तुओं या संस्कारों के विनिमय तथा बेहतर नागरिक सुविधाओं जैसी चीजें विषेषाधिकार की तरह षामिल है। लेकिन अनियोजित षहरीकरण के कारण लोग छोटे-छोटे दड़बों में रहने के लिए बाध्य है, खुले स्थानों पार्क, खेल के मैदान आदि की कमी है, खुले में षौच से भी पूरी तरह मुक्ति नहीं मिली है और रोजी-रोटी की भागदौड़ में सामाजिक एकता की भी कमी बनी हुई है। अमरीका समाजषास्त्री लुई विर्थ के अनुसार भौतिक संरचना, सामाजिक संगठन और सामुहिक व्यवहार एक-दूसरे को प्रभावित करते है। षहरी जनसंख्या एक निष्चित स्थान तक सीमित होती है, जिसमें छोट-छोटे परिवार और छोटे कार्यसमूह होते है, जिसे हम कई बार आर्थिक अथवा व्यवसायिक आधार पर पहचान रखते है। प्रत्येक षहरी निवासी से एक सामुहिक व्यवहार की संहिता का पालन करने की उम्मीद की जाती है, भले ही वह उसे पसंद हो या ना पसंद हो। क्योंकि वह उस षहर विषेष की विषेष पहचान से जुड़ी है। उदाहरण के लिए- दिल्ली, मुंबई, कोलकता और चैन्नई की तुलना करें तो हम सहज ही यह कह सकते है कि इन सभी षहरों में एक सामान्य बात है कि ये सभी षहर गैर कृषि बस्तियों वाले है, लेकिन फिर भी इन षहरां की अपनी एक अनूठी सामूहिक संस्कृति भी है। षहरीकरण से उस मूल संस्कृति को नुकसान होने के कारण ही सामाजिक एकता का भाव कम होता जा रहा है।     

ऐतिहासिक दृष्टि से भारत नगरवाद की अवधारणा से अपरिचित नहीं है। हमारे प्राचीन अतीत से शुरू होकर अंग्रेजों के देष में आने तक शहरी क्षेत्रों का विकास हुआ है। इन स्थानों का अध्ययन आज के समय में शहर और देष के योजनाकारों के लिए महत्वपूर्ण सबक है। हम अपने मामले को चुनिंदा उदाहरणों की मदद से आसानी से समझ सकते है।

मोहनजोदड़ो सिंधु नदी से लगभग 5 किमी दूर स्थित था। इसलिए यह व्यापार और विनिमय के लिए एक आदर्ष स्थल बन गया। इसके अलावा, इसका समर्थन करने के लिए कृषि के साथ एक समृद्ध आंतरिक भूमि थी। उस समय के पुरातात्विक अवषेषों के प्रमाण के रूप में इसमें भौतिक समृद्धि थी। सामाजिक संगठन को बस्तियों के रूप में देखा जाता है जिन्हें श्रेणीबद्ध रूप से व्यवस्थित किया गया था। समाज में महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक जटिलता थी। शहर ने निर्माण और प्रषासनिक केंद्र के रूप में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संक्षेप में, शहर ने कई कारकों पर खुद को कायम रखा। अपषिष्ट जल को प्रवाहित करने के लिए नलिकाओं वाली अच्छी सड़कें थीं। स्वच्छता पर विषेष ध्यान देने वाले लगभग 700 कुएं थे। इस प्रकार शहर तीन आयामों - भौतिक संरचना, सामाजिक जटिलता और सामूहिक व्यवहार के अनुरूप था।

दूसरी ओर, फतेहपुर सीकरी को अकबर द्वारा सभी भौतिक बुनियादी ढांचे के साथ बनाया गया था। एक कृत्रिम झील के निर्माण के बावजूद, पानी की आपूर्ति अपर्याप्त साबित हुई। शहर एक महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग नहीं बन सका। संक्षेप में, एक समृद्ध और पूर्ण जीवन पाने के लिए आपको टिकाऊ कारकों के एक विविध सेट की उपस्थिति की आवष्यकता होती है, भौतिक संरचना उनमें से एक है। एक शहर को समय की चुनौतियों का हल ढूंढने की जरूरत है।

मुगल साम्राज्य की राजधानी शाहजहानाबाद में उत्कृष्ट नगर नियोजन था। यह लाभकारी रूप से बारहमासी नदी यमुना के किनारे पर स्थित था, जिससे पानी की प्रचुर आपूर्ति और व्यापार मार्गों की आवाजाही थी। इसके पास एक विषाल कृषि क्षेत्र था। दीवारों की परिधि, सुनियोजित सड़कों, सार्वजनिक स्थानों, बाजारों, यहां तक कि अस्पताल और मदरसा के कारण इसका एक सीमित क्षेत्र था। धीरे-धीरे कई अन्य इलाके और सार्वजनिक स्थान जैसे विभिन्न अनुनय के पूजा स्थल, मनोरंजन के स्थान आदि सामने आए। दूसरे शब्दों में, शहर आवास, आत्मसात, अवषोषण, संघर्ष, समाधान और संवाद की महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं को अपनाने के कारण विकसित हुआ। उदाहरण के लिए, रिक्त स्थान, सामाजिक संपर्क को तीव्र करने के लिए डिज़ाइन किए गए थे। राज्य रिक्त स्थान को श्रेणीबद्ध क्षेत्रों में अलग करने से दूर रहा। एक विषिष्ट सांस्कृतिक पहचान समय के साथ विकसित हुई। शहर की पहचान सांस्कृतिक गतिविधियों में उत्कृष्टता के साथ हुई - साहित्य कविता, संगीत, नृत्य, सार्टोरियल शैली और व्यंजन। सांस्कृतिक अंतरंगता हावी होने के दौरान धार्मिक विविधता पर मोह नहीं था। शहर ने बढ़ती आबादी, विविध सामाजिक, धार्मिक, जातीय, और अपने निवासियों के व्यावसायिक प्रोफाइल और उनकी कई आकांक्षाओं की चुनौतियों पर बातचीत की और प्रचलित शहरी स्थानों के भीतर सामाजिक और स्थानिक पदानुक्रम बनाने के लिए सामाजिक बातचीत पर जोर दिया।

मोटे तौर पर ग्रामीण इलाकों से जो लोग षहरों में जाते हैं वे विविध पृष्ठभूमि वाले होते हैं, अपने साथ वे जिन इलाकों से चलकर आए होते है, वहां की आदतें, षौक और संस्कृति भी लाते हैं, लेकिन षहर में एक सीमित जगह में बिल्कुल नए वातावरण में रहने लगते है। गांव से षहरों की और होने वाली आवाजाही जल्दी ही उन्हें सांस्कृतिक अलगाव तथा बेमेल रहन-सहन, खान-पान के लिए बाध्य करने लगती हैं। हालांकि इस तरह की विषमता साझा स्थानों, संसाधनों, समारोहो, परिवहन आदि जैसे स्थानों पर सीधे दिखती है, लेकिन समय के साथ इसे ठीक किया जाता रहा है। कई बार भाषा या वेषभूषा के जुड़ाव के भी ऐसे छोटे-मोटे मतभेदों पर एकजुटता बनने लगती है। समस्या आर्थिक जटिलताओं को लेकर होती है। सामाजिक जटिलताओं को संभालने के लिए भौतिक पहलूओं की बेहतरीन रूपरेखा तैयार की जाए तो चीजे संभल सकती है।। दूसरों के लिए सहानूभुति या इसके विपरीत सवामित्व की सामूहिक भावना भी कारगर होती है जो सामूहिक व्यवहार द्वारा पोषित होती है जिसमें संघर्ष की कम संभावना होती है। आषय यह है कि षहरी नियोजन केवल भौतिक रूप के कुषल ढ़ांचे को खड़ा करना नहीं है बल्कि इसकी नींव प्रभावी सामाजिक बुनियादी ढ़ांचे के निर्माण में भी निहित है, इसलिए षहरी योजनाकारों को तीनों आयामों को ध्यान में रखना होगा। 

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