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नलकूपों से भी बढ़ रहा है जल संकट

जरूरी है कि अंधाधुंध नलकूपों की गहरी खुदाई पर तत्काल नियंत्रण लगाकर इसके वैकल्पिक उपाय तलाशे जाने चाहिए, नहीं तो आने वाले दिनों में जल संकट कई गुना अधिक रफ्तार से बढ़ेगा। - डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्रा

 

संयुक्त राष्ट्र के विश्वविद्यालय पर्यावरण और मानव सुरक्षा संस्थान द्वारा प्रकाशित अंतर संबंध आपदा संकट रिपोर्ट 2023 में कहा गया है कि सिंधु और गंगा के इलाकों में भूजल का स्तर खतरनाक बिंदु पर पहुंच गया है। पंजाब के 80 प्रतिशत क्षेत्र अति दोहन का शिकार है और इसके चलते उत्तर पश्चिम क्षेत्र में भू-जल का गंभीर संकट पैदा होने की संभावना है। भारत का यही वह क्षेत्र है, जहां सबसे ज्यादा धान, गेहूं और दालों का उत्पादन होता है। स्पष्ट है कि इन क्षेत्रों में अगर भू-जल तेजी से घट जाएगा, तो खाद्यान्न उत्पादन भी बुरी तरह प्रभावित होगा। यह स्थिति भूख, बेरोजगारी और उद्योगों के लिए बड़े संकट का कारण बन सकती है।

जिस तेज रफ्तार के साथ कृत्रिम, भौतिक और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है, उतनी ही तेज गति से प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण हुआ और उनकी उपलब्धता लगातार घटती ही जा रही है। ऐसे प्राकृतिक संसाधनों में बहुत ही महत्वपूर्ण है, पानी। जल ही जीवन है की वास्तविकता से अवगत होने के बावजूद पानी की उपलब्धता भूमि के नीचे और ऊपर निरंतर कम होती जा रही है। फलस्वरुप भारत तेजी से भूजल की कमी के चरम बिंदु की ओर बढ़ रहा है। देश के कई इलाके पहले से ही इस मोर्चे पर चिंताजनक स्थिति का सामना कर रहे हैं। वहीं कुछ अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि 2025 तक इसका असर अन्य इलाकों में भी दिखना शुरू हो जाएगा। यह संकट पेयजल और खाद्यान्न दोनों की उपलब्धता को प्रभावित कर सकता है।

भू-जल दोहन के आसान तरीकों में नलकूप है, जो घरों व गलियों से लेकर खेतों के लिए पानी खींच रहे हैं। नलकूप की सुविधा मिलने के बाद बहुत सारे किस्म की बेमौसम की फसलें लोग बोने लगे हैं जिनमें से कई फसलों के लिए अधिक पानी की जरूरत पड़ती है। धान की फसल भी उनमें से एक है। हालांकि पंजाब और हरियाणा की सरकारें किसानों से लगातार अपील करती रही हैं कि वह वर्षा से पहले धान की खेती न करें और भू-जल दोहन को नियंत्रित रखें। जल के अतिरिक्त दोहन के लिए दंड के प्रावधान भी किए गए हैं। जब इसका असर नहीं दिखा, तो किसानों को प्रोत्साहन राशि की घोषणा भी की गई, लेकिन परिणाम ‘ढाक के तीन पात’ ही रहे।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार जमीन से खींचे जाने वाले 70 प्रतिशत जल का उपयोग खेती किसानी के लिए ही होता है। दुनिया की 6 पर्यावरणीय प्रणालियां जल का स्तर नीचे गिरने और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते संकट के चरम बिंदु पर है। अगर हालात नहीं बदले तो जीव-जंतु विलुप्त होंगे, भूजल घटेगा, हिमखंड पिघलेंगे और असहनीय गर्मी पड़ेगी। प्राकृतिक संपदा का दोहन और उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप विनाशकारी बदलाव ला सकते हैं। इसका परिस्थितिकी तंत्र, जलवायु पद्धति और समग्र पर्यावरण पर गंभीर असर दिखेगा। रिपोर्ट के मुताबिक सऊदी अरब में पहले से ही भूजल अधिकतम निचले स्तर पर है। अब भारत भी उन देशों में शामिल हो सकता है, जो जल्दी ही इस चरम बिंदु की सीमा लांघ सकते हैं।

भारत दुनिया में सबसे अधिक भू-जल का प्रयोग करता है। अमेरिका और चीन दोनों देशों के कुल प्रयोग से भारत का भूजल प्रयोग अधिक है। भारत का उत्तर पश्चिमी इलाका देश की खाद्य जरूरत को पूरा करने के लिए आज से महत्वपूर्ण है लेकिन यहां तेजी से भूजल का स्तर नीचे गिर रहा है। आजादी के समय तक प्रति व्यक्ति सालाना दर के हिसाब से पानी की उपलब्धता 6000 घन मीटर थी जो अब घटकर डेढ़ हजार घन मीटर रह गई है। जिस तेजी से पानी के इस्तेमाल के लिए दबाव बढ़ रहा है और जिस बेरहमी से भूमि के नीचे के जल का दोहन नलकूपों से किया जा रहा है उसे यह निश्चित हो चला है कि अगले कुछ साल बाद जल की उपलब्धता घटकर 1600 की जगह 1100 घन मीटर ही रह पाएगी। टाटा रिसर्च इंस्टीट्यूट के अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि भूमिगत जल के आवश्यकता से अधिक प्रयोग से भावी पीढ़ी को कालांतर में जबरदस्त जल संकट का सामना करना पड़ेगा नलकूपों के उत्खनन संबंधी जिन आंकड़ों को हमने क्रांति की संज्ञा दी थी दरअसल वहीं तबाही की पूर्व सूचना थी, जिसे हम नजर अंदाज करते चले आ रहे हैं।

यह ठीक है कि आजादी के अमृत वर्ष आते-आते देश में खाद्यान्न सुलभता सुनिश्चित हुई है लेकिन इसके लिए जी हरित क्रांति प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है उसके कारण नलकूपों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है, फलस्वरुप उतनी ही तेजी से भूमिगत जल की उपलब्धता भी घटी है। केंद्रीय भू-जल बोर्ड के अनुसार नलकूप खुदाई की आमतौर पर प्रचलित तकनीक गलत है। इसके लिए जमीन के भीतर 30 मीटर तक विधिवत पाबंदी होनी चाहिए ताकि जमीन की इस गहराई वाले हिस्से का पानी अपने क्षेत्र में सुरक्षित रहे। इसके बाद नीचे की खुदाई जारी रखनी चाहिए। यह तकनीक अपनाने से खर्चे में 30,000 रू. की वृद्धि जरूर होती है लेकिन भूजल स्तर में गिरावट नहीं आती।

एक अध्ययन के अनुसार 1947 में देश में 1000 के करीब नलकूप थे जिनकी संख्या बढ़कर अब कई करोड़ हो गई है। सस्ती या मुफ्त बिजली देने से नलकूपों की संख्या में और भी वृद्धि हुई। पंजाब और मध्य प्रदेश की सरकारों ने किसानों को मुफ्त बिजली देकर नलकूप खनन को बेवजह प्रोत्साहित किया है। पंजाब के 12 हरियाणा के तीन और मध्य प्रदेश के 15 जिलों में पानी ज्यादा निकाला  जा रहा है जबकि वर्षा जल से उसकी भरपाई ना के बराबर है। गुजरात के मेहसाणा और तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिलों में तो भूमिगत जल लगभग खत्म ही हो गया है। जल स्तर नीचे जाने से पानी खींचने में ज्यादा बिजली खर्च हो रही है। जिन क्षेत्रों में पानी का अत्यधिक दोहन हो चुका है वहां पानी खींचने के खर्चे में 5000 करोड रुपए का  इजाफा हुआ है। नलकूपों के बड़ी मात्रा में खनन से जमीन और कुओं के जल स्तर पर जबरदस्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। हालत यह है कि 75 प्रतिशत कुंआ हर वर्ष दिसंबर माह में 10 फीसद जनवरी में और 10 प्रतिशत अप्रैल में सुख जाते हैं। एक नलकूप 5 से 10 कुओं का पानी सोख लेता है। जल विशेषज्ञ और पर्यावरणविद् मानने लगे हैं कि जल स्तर को नष्ट करने में और जल धाराओं की गति अवरुद्ध करने में नलकूपों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। भूमि संरक्षण विभाग के अधिकारियों का इस बारे में कहना है की भूमि में 210 से लेकर 300 फीट तक छेद कर देने से धरती की परतों में बह रही जलधाराएं नीचे चली जाती है, जिसके चलते जल स्तर भी नीचे चला जाता है।

ऐसे में जरूरी है कि अंधाधुंध नलकूपों की गहरी खुदाई पर तत्काल नियंत्रण लगाकर इसके वैकल्पिक उपाय तलाशे जाने चाहिए, नहीं तो आने वाले दिनों में जल संकट कई गुना अधिक रफ्तार से बढ़ेगा। इस समस्या का समाधान बड़ी मात्रा में पारंपरिक जल ग्रहण क्षेत्र तैयार करना है। पारंपरिक मानते हुए जलग्रहण की तकनीक की हमने पूर्व में घोर उपेक्षा की है, जिसका खामियाजा देश के कई हिस्सों में लोग उठा रहे हैं। हमें पुरानी पारंपरिक और स्वदेशी तकनीक से जल भंडारण की दिशा में अब ठोस पहल करने की जरूरत है।      

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