उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार देश में दवा उत्पादन में गुणवत्ता मापदंडों के पालन के लिए कठोरता के साथ आगे बढ़ेगी जिससे कि दवाओं की साख को लेकर जो सवाल खड़ा हो रहे हैं उससे निजात पाई जा सके। - अनिल तिवारी
देश में स्वास्थ्य कितना बड़ा मुद्दा है और इससे खिलवाड़ कितना आसान है यह नकली दवाआें के काले कारोबार में लिप्त सिंडीकेट के हालिया पर्दाफाश से पता चलता है। पुलिस ने गिरोह के सरगना सहित दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश से 10 लोगों को गिरफ्तार किया है तथा कई करोड़ कीमत की पेन किलर्स, एंटीबायोटिक, डायबिटीज और माइग्रेन की नकली दवाई जब्त की है।
देश में आए दिन नकली दवाइयों का भंडाफोड़ होना शर्मनाक है। उससे भी दुखद है राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में नकली दवा कंपनी का पकड़े जाना। यह न केवल स्वास्थ्य के साथ अनदेखी है बल्कि देश के साथ शत्रुता के समान है।
भारत की जनसंख्या अधिक है इसलिए उसी अनुपात में यहां बीमारियां और बीमार लोगों की संख्या भी बहुत है। इसी का फायदा लालची लोग उठाते रहे हैं। बताते हैं कि पैसे की हवस में आम नागरिकों की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले नकली दवाइयां के शातिर शिकारियो की सरपरस्ती में देश की राजधानी दिल्ली और आसपास के क्षेत्र में नामी देसी और विदेशी कंपनियों की ब्रांडेड नकली दवाएं कारखानो में बन रही थी, जिसे ट्रांसपोर्ट कंपनी के जरिए कुरियर किया जा रहा था। गिरोह से जुड़े सप्लायर दुकानों तक पहुंचाते थे, जिसे रोग से छुटकारा पाने के लिए जरूरतमंद जनता खरीद रही थी।
नकली दवाइयां का यह मामला केवल एक राज्य क्षेत्र तक सीमित नहीं है। तेलंगाना सरकार ने मेघ लाइफ साइंसेज द्वारा तैयार 33 लाख रुपए से ज्यादा की तीन दवाइयों की जांच की, तो उसमें दवा का कोई भी तत्व नहीं पाया गया। राज्य के औषधि नियंत्रण प्रशासन ने तीनों नकली दावाओं में केवल चाक पाउडर और स्टार्च के मिले होने की बात कही है।पिछले महीने महाराष्ट्र में भी भारी मात्रा में नकली एंटीबायोटिक दवाओं को जब्त किया गया। ऐसी कंपनियां भ्रष्टाचार का सहारा लेकर सरकारी अस्पतालों में भी आपूर्ति करने में कामयाब हो जाती हैं।
एक ऐसे समय में जब भारत का दवा उद्योग दुनिया की ’नई फार्मेसी’ के रूप में रेखांकित हो रहा है, नकली दवाओ का जखीरा भारतीय दवाओं की साख को फिर से कटघरे में खड़ा कर दिया है। पिछले वर्ष भारतीय कंपनियों द्वारा तैयार कुछ दवाओं की गुणवत्ता को लेकर सवाल उठे थे। खासकर जांबिया और उज्बेकिस्तान में बच्चों की मौत को भारत में बनी खांसी की दवा से जोड़ा गया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत में बनी खांसी की दवा डाइथेलेन ग्लाइकोल और इथालेन ग्लाइकोल इंसान के लिए जहर की तरह है। यही कारण था कि भारत से अफ्रीकी देशों को होने वाला दवा निर्यात वित्त वर्ष 2022-23 में 5 प्रतिशत घट गया। सरकार ने दवाओं की गुणवत्ता को गंभीरता से लिया और कहा कि भारत में बनने वाली दवाओं की गुणवत्ता को लेकर कोई समझौता नहीं किया जाएगा। नकली दवाएं बनाने वाली कंपनियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। सभी छोटे और मझौले दवा निर्माताओं के लिए चरणबद्ध तरीके से औषधि एवं प्रसाधन अधिनियम 1940 की अनुसूची ‘एम’ को अनिवार्य बनाने की बात की गई थी। यह अनुसूची भारत की दवा निर्माता इकाइयों की बेहतरीन निर्माण गतिविधियों से जुड़ी है। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार द्वारा दवा बनाने वाली कंपनियों की जांच के लिए विशेष दस्ते का गठन किया गया। दवा उत्पादों की उच्च गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए नियामक प्राधिकारियों ने जोखिम के आधार पर कंपनियों का लेखा-जोखा जांचना शुरू किया। 137 कंपनियों की जांच की गई और 105 के खिलाफ कार्रवाई भी हुई। 31 का उत्पादन रोका गया और 50 के खिलाफ उत्पाद या जारी किए अनुभाग लाइसेंस रद्द करने और निलंबन की कार्रवाई की गई। इसके साथ ही 75 को कारण बताओं नोटिस जारी कर की गई तथा 31 को चेतावनी जारी की गई।
मालूम हो कि वर्तमान में करीब 70 प्रतिशत जेनेरिक दावों का उत्पादन भारत में ही होता है। जेनेरिक दवाओं की अफ्रीका की कुल मांग का 50 प्रतिशत, अमेरिकी मांग का 40 प्रतिशत तथा ब्रिटेन की कुल दवा मांग का 25 प्रतिशत हिस्सा भारत से ही जाता है। दुनिया के कोई 50 प्रतिशत से अधिक विभिन्न टीकों का उत्पादन भी भारत में ही होता है। विभिन्न देशों के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौता की बदौलत फार्मा क्षेत्र का कारोबार 50 अरब डॉलर के आकार से ऊपर का पहुंच गया है।
नकली दवाओं की बिक्री का मामला बेहद गंभीर है लेकिन यह आसानी से पकड़ में नहीं आ पाता। इसकी वजह है कमजोर निगरानी तंत्र। कायदे से ड्रग कंट्रोल डिपार्टमेंट की यह जिम्मेदारी है कि वह नकली दवाओं की खरीद फरोख्त करने वाले को पकड़े, लेकिन अमूमन ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि ताबड़तोड़ छापामारी चल रही हो। अगर नियमित तौर पर यह विभाग जांच पड़ताल करें तो नकली दवाएं बेचने वालों की लगाम कसी जा सकती है। नकली दवाएं बिकना गंभीर मसला है क्योंकि यह मरीज के लिए जानलेवा साबित होती है। मरीज के लिए सबसे जरूरी साल्ट का सही होना और जिस अनुपात में होना चाहिए यानी जो मानक है, उसके अनुसार ही उसे दिया जाना चाहिए। अगर मरीज को लिखा गया है कि 5 एमजी लेनी है तो उसमें 5एमजी साल्ट और वही साल्ट होना चाहिए। अगर साल्ट सही नहीं है तो इसे सबस्टैंडर्ड नकली या फर्जी दवा कहा जाता है। आज कई जगह 80 प्रतिशत तक की छूट पर दवाएं बिक रही हैं। इसलिए क्रेता को सावधान होकर दवा लेनी चाहिए। अगर जरूरतमंद को सही दवा न दी गई अथवा डायबिटीज या ब्लड प्रेशर के मामले में नकली दवाओं का इस्तेमाल करना पड़ा तो यह बीमारियां नियंत्रित होने की जगह और बढ़ती जाएगी और मरीज की जान खतरे में डाल देंगी।
मौजूदा परिस्थितियों में भारतीय दवाओं से संबंधित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर कई सुधार मूलक ज़रूरतें अनुभव की जा रही हैं। नकली दवाओं के जोखिम का विश्लेषण करते हुए सरकार द्वारा शीघ्र स्वनियामक संस्था को अमली जामा पहनाना होगा। सरकार को जरूरी दवाओं की कीमतें कम करने पर भी ध्यान देना होगा। सरकार को देश के करोड़ों लोगों की शिकायत पर भी ध्यान देना होगा की दवा विक्रेता ग्राहकों को 10 से15 टेबलेट या कैप्सूल वाला पूरा पत्ता खरीदने पर जोर देते हैं। एक सर्वे में पता चला कि पूरे पत्ते की खरीदी के कारण बड़ी मात्रा में दवाएं बिना उपयोग के फेंक दी जाती है। सर्वे में यह भी सामने आया था कि लोगों द्वारा पिछले 3 सालों में खरीदी गई दशाओं में से 70 प्रतिशत दवाएं बिना किसी उपयोग के फेंक दी गई और ऐसा हर चार में से तीन घरों में पाया गया। ऐसे में सरकार को दवा ग्राहकों को न्याय संगत मदद के लिए दवाई के पूरे पत्ते की जगह जरूरत के हिसाब से दवाई की बिक्री का आदेश जारी करने चाहिए। इससे नकली दवा विक्रेताओं के लालच पर भी अंकुश लगेगा।
उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार देश में दवा उत्पादन में गुणवत्ता मापदंडों के पालन के लिए कठोरता के साथ आगे बढ़ेगी जिससे कि दवाओं की साख को लेकर जो सवाल खड़ा हो रहे हैं उससे निजात पाई जा सके।
कुलमिलाकर नकली दवाओं के मामले में निशाने पर सीधे-सीधे सरकार है, जो जनहित के दायित्वों को खाना-पूर्ति समझती है, वहीं समाज का चरित्र भी उजागर हुआ है जो बीमार लोगों की मजबूरी का फायदा उठाते हुए अपना उल्लू सीधा करने में लगा हुआ है। यह एक ऐसा घिनौना कृत्य है जिसके लिए कठोर से कठोर सजा का प्रावधान समाज और शासन द्वारा किया जाना चाहिए। सेज से लेकर सेंसेक्स तक को विकास का मानक बताने वाली सरकार नकली दवाओं की काली करतूतों को लेकर कड़े कदम उठाने से क्यों कतराती है। विभिन्न तरह के रोगों से त्रस्त इंसान दवा के नाम पर जहर खाने को मजबूर है। यह मजबूरी ’कुदरती’ नहीं बल्कि ’कुछ सरकारी और अधिक सामाजिक’ है। इस दुष्चक्र से बाहर निकलने का रास्ता खोजा ही जाना चाहिए और दवा के नाम पर जहर बेचने वालों को कठोर दंड देना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसा करने वालों की रूह कांप जाए।