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प्रकाशकों के खिलाफ सरकार करे सक्रिय हस्तक्षेप

स्वदेशी जागरण मंच ने छात्रों और शिक्षकों सहित शोध समुदाय के लिए लाखों पुस्तकों और लेखों की निरंतर पहुंच सुनिश्चित करने के लिए सरकार के सक्रिय हस्तक्षेप का अनुरोध किया है और उक्त मामले में यह भी अपेक्षा की है कि दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा प्रकाशकों को उनके मनमाफिक निषेधाज्ञा की मंजूरी नहीं देनी चाहिए।   — स्वदेशी संवाद

 

डिजिटल तकनीक ने संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं। माउस के एक क्लिक के साथ ज्ञान-विज्ञान की दुनिया सहज ही सबके लिए सुलभ हुई है लेकिन इसके त्वरित प्रसार के लिए पेश इन नई उम्मीदों पर ग्रहण लग सकता है यदि इसका अधिकार कुछ गिनती के लोगों तक सीमित हो जाए। ज्ञान के केंद्र पर एकाधिकार हासिल करने का एक ऐसा ही मामला संज्ञान में आया है। चोटी के चार प्रकाशकों द्वारा दुनिया भर में जानकारियों का खजाना कहीं जाने वाली दो वेबसाइटों को बंद कराने के प्रयास का मामला न सिर्फ सनसनीखेज है, बल्कि छात्रों, अध्यापकों व शोधकर्मियों के लिए ज्ञान से वंचित करने वाला भी है।

हालिया प्रकरण में चार अग्रणी प्रकाशकों क्रमशः विज एल्सवीयर, विली इंडिया प्राइवेट  लिमिटेड, विली पीरिओडिकल्स एलएलसी और अमेरिकन केमिकल सोसायटी ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल कर दो प्रसिद्ध वेबसाइट विज डॉट लिबजेन और साइंस-हब के फ्री ऐस्सस को बंद करने की मांग की है। मालूम हो कि यह दोनों वेबसाइट भारी तादाद में किताबें और आलेख पत्र उपलब्ध कराती हैं, जिसका लाभ असंख्य छात्र और अध्यापक उठाते रहे हैं। प्रकाशकों की मांग पर दिल्ली हाईकोर्ट अगर मंजूरी दे देता है तो इंटरनेट सेवा प्रदाता भारत में इन दोनों वेबसाइटों के मुफ्त पहुंच को बलपूर्वक बंद कर सकते हैं। यह एक गंभीर मामला होगा, क्योंकि ऐसा होने से भारतीय विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को अकादमिक लेख मिलने बंद हो जाएंगे। हालांकि भारत सरकार आईआईटी, आईआईएसईआर, आईआईएम जैसे प्रमुख अनुसंधान संस्थानों सहित देश के विभिन्न राष्ट्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में पत्रिकाओं आदि सदस्यता के लिए 1500 करोड़ करोड़ रुपए प्रतिवर्ष खर्च करती है। लेकिन बहुत बड़ी संख्या में शोधकर्ता और छात्र पत्रिकाओं और वेबसाइट पर पहुंचने के लिए साइंस-हब और लिबजेन पर बहुत अधिक निर्भर है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार 1 सितंबर 2015 से 31 मार्च 2016 तक केवल 6 महीनों के दौरान भारत के उपयोगकर्ताओं ने साइंस-हब से 34 लाख लेख डाउनलोड किए। लंसेट ग्लोबल में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन के मुताबिक मेडिकल जरनल लेखों का सबसे अधिक उपयोग भारत में हो रहा है। इससे पता चलता है कि विज्ञान हब जैसी डिजिटल लाइब्रेरी पर भारतीय अनुसंधान समुदाय की भारी निर्भरता है।

शैक्षणिक पत्रिकाओं के प्रकाशन में बाजार की खासी दिलचस्पी है। यदि हम पांच शीर्ष प्रकाशकों को देखें तो दुनिया भर में विज्ञान और सामाजिक विज्ञानों से जुड़े 50 प्रतिशत से अधिक प्रकाशनों पर काबिज हैं। यहां तक कि हावर्ड विश्वविद्यालय के पुस्तकालय भी उनकी सदस्यता शुल्क नहीं अदा कर पाते। ऐसे में हमारे शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों को अधिक लागत के कारण उनकी पत्रिकाओं को खरीदना मुश्किल हो रहा है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्रकाशन उद्योग ऐसी सामग्री के लिए कोई भुगतान नहीं कर रहा है। सभी सामग्री अनुसंधान, संस्थानों और विश्वविद्यालय में काम करने वाले शिक्षक समुदाय द्वारा उत्पन्न की जाती है, जो कि ज्यादातर सरकारी वित्तीय पोषित होते हैं। अधिकांश सहकर्मी अधीक्षकों को भी भुगतान नहीं किया जाता है। परिणामस्वरूप प्रकाशकां का खर्च बहुत कम है और वे उच्च लाभ अर्जित करते हैं। यही नहीं पब्लिशिंग हाउस शोधकर्ताओं से लेख प्रकाशित करने के लिए शर्त के रूप में उनके कॉपीराइट आवंटित करने के लिए कहते हैं और फिर विद्वानों के काम पर अपना एकाधिकार बनाए रखने के लिए इन साइन किए गए कॉपीराइट का उपयोग करते हैं। यह तर्क दिया जाता है कि प्रत्येक बार जब कोई पाठक अपने डिवाइस पर डिजिटल कॉपी पढ़ता है तो उसे कार्य को पुनः प्रस्तुत करने के रूप में माना जाता है, जो कॉपीराइट कानून के तहत दिया गया है, जो एक विशेष अधिकार है। दूसरे शब्दों में कहें तो डिजिटल संदर्भ में प्रजनन के विशेष अधिकार का प्रवर्तन पाठक को डिजिटल कॉपी पढ़ने से रोकता है। आजकल शोध लेखों का बड़ा हिस्सा केवल डिजिटल प्रारूप में उपलब्ध है। ऐसे में कानूनी अवधारणा डिजिटल पाठकों को पढ़ने और ज्ञान तक पहुंचने के अधिकार से इनकार करती हैं। 

ज्ञातव्य हो कि लिबजेन और साइंस-हब के अधिकांश लाभार्थी अनुसंधान समुदाय के हैं और इनके उपयोग की प्रकृति गैर वाणिज्यिक है। इस प्रकार इन वेबसाइटों का कोई प्रत्यक्ष वाणिज्यिक उपयोग नहीं है। इसलिए यह एक गैर वेबसाइट पुस्तकालय है, जहां शोधार्थी पहुंच सकता है। कॉपीराइट अधिनियम की धारा 51 के उपखंड 4 में कहा गया है कि आयातक के निजी और घरेलू उपयोग के लिए किसी भी काम के प्रति के आयात पर लागू नहीं होगा। क्योंकि एक प्रति का आयात उल्लंघन नहीं माना जाता, तो जाहिर है कि भारतीय शोधकर्ता कोई उल्लंघन नहीं कर रहा है। 

इसके अलावा कॉपीराइट अधिनियम धारा 52 में कहा गया है कि  निजी अनुसंधान आलोचना या समीक्षा वर्तमान घटनाओं की रिपोर्टिंग, सार्वजनिक व्याख्यान आदि से संबंधित मामले में कंप्यूटर प्रोग्राम नहीं है। इसका भंडारण में उसकी प्रतिलिपि प्राप्त करना कॉपीराइट का उल्लंघन नहीं होगा। मतलब अधिनियम के तहत व्यक्तिगत डाउनलोडिंग और भंडारण संरक्षित है। कानूनी तौर पर प्रस्तुत किया गया है कि पुस्तक को पढ़ने के लिए पहुंच से वंचित करने, डिजिटल प्रतिलिपि प्राप्त करने से रोकना, कॉपीराइट स्वामी के अधिकारों का हिस्सा नहीं है। कहा गया है कि लिबजेन और साइंस-हब जैसे डिजिटल पुस्तकालय को अवरुद्ध करने से एक बड़ा वर्ग पढ़ने के लिए पहुंच से वंचित हो जाएगा, जोकि आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय वाचा के तहत गारंटीकृत विज्ञान के अधिकार से समझौता होगा। अनुच्छेद 15 (1) (ब) में आईसीईएसईआर के सदस्य देशों को वैज्ञानिक प्रगति और उसके अनुप्रयोगों के लाभों का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए बाध्य करता है। सामान्य टिप्पणी संख्या 25 जो आईसीईएससीआर के कार्यान्वयन के प्रभारी द्वारा दायित्व की व्याख्या है, अनुच्छेद 15 के तहत वर्णित है। इसमें कहा गया है कि भाग लेने के अधिकार और लाभों का उपयोग लेने के लिए संबंधित कोर दायित्वों, वैज्ञानिक प्रगति और इसके लिए राज्यों की आवश्यकता होती है। यह भी कहा गया है कि अनुचित रूप से ज्ञान-विज्ञान के पहुंच को सीमित करने वाले कानूनों, नीतियों को हटा देना चाहिए। वहीं अनुच्छेद 15 (1) (सी) में कहा गया है कि समग्रतः बौद्धिक संपदा एक सामाजिक उत्पाद है और एक सामाजिक कार्य है। राज्यों का कर्त्तव्य है कि वे जनसंख्या, स्वास्थ्य, भोजन और शिक्षा के बड़े क्षेत्रों के अधिकारों को कम करने से लेकर दवाओं, पौधों, बीजों, खाद्य उत्पादन के अन्य साधनों तक पहुंचने के लिए या स्कूली किताबों शिक्षण सामग्री की पहुंच के लिए अनुचित रूप से उच्च लागतों को रोके। इसी तरह अनुच्छेद 21 गरिमा के साथ जीवन के अधिकार की गारंटी देता है। गरिमा का यह अधिकार ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने हेतु राज्यों पर शुल्क लगाता है। अतः ऐसे में दिल्ली उच्च न्यायालय प्रकाशकां को निषेधाज्ञा प्रदान नहीं कर सकता है, क्योंकि- 

1.    भौतिक वस्तुओं के लिए कॉपीराइट में प्रयुक्त शब्द प्रजनन की व्याख्या को डिजिटल मोड पर लागू नहीं किया जा सकता है। 

2.    गैर व्यवसायिक उपयोग के लिए मुफ्त पुस्तकालय का उपयोग कॉपीराइट कानूनों का उल्लंघन नहीं है। 

3.    इसे जनहित के खिलाफ माना जाएगा।

4.    आईसीईएससीआर के तहत भारत के दायित्व से समझौता करते हुए निषेधाज्ञा प्रदान करना भी माना जाएगा।

5.    प्रकाशकां को ज्ञान के प्रकाश को रोकने के लिए कानूनी उपकरणों के उपयोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

स्वदेशी जागरण मंच के अखिल भारतीय सह संयोजक डॉ अश्वनी महाजन ने छात्रों और शिक्षकों सहित शोध समुदाय के लिए लाखों पुस्तकों और लेखों की निरंतर पहुंच सुनिश्चित करने के लिए सरकार के सक्रिय हस्तक्षेप का अनुरोध किया है और उक्त मामले में यह भी अपेक्षा की है कि दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा प्रकाशकों को उनके मनमाफिक निषेधाज्ञा की मंजूरी नहीं देनी चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया है कि- 

1.    सरकार को भारत में लिबजेन और साइंस-हब के कामकाज को प्रभावी बनाने के लिए कॉपीराइट अधिनियम की धारा 52 में संशोधन करना चाहिए। 

2.    याचिका में प्रतिवादी दूरसंचार विभाग को अदालत के समक्ष इन वेबसाइटों तक पहुंच से वंचित करने के सार्वजनिक हित निहितार्थ को उजागर करना चाहिए और निषेधाज्ञा देने का कड़ा विरोध करना चाहिए। 

3.    शोधकर्ताओं और छात्रों द्वारा प्रकाशित शोध के अधिकारों में विश्वविद्यालयों और संस्थान के दावों को स्वीकार करने के लिए कॉपीराइट कानून में संशोधन करना चाहिए।

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