बात विनिवेश की: कल्याणकारी राज्य में अल्पतंत्र के संकेत
सरकार को पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग की क्षमता बढ़ाने के लिए फैसले करने चाहिए, ताकि यह उपक्रम बाजार की प्रतिस्पर्धा में अपनी सशक्त स्थिति बना सकें। — अनिल तिवारी
साल 2021-22 के बजट से यह साफ संकेत आया है कि केंद्र की सरकार सरकारी संपत्तियों में अपनी हिस्सेदारी बेचने को लेकर अब गति के साथ आगे बढ़ने की ओर अग्रसर है। सरकार की यह पहल कदमी विपक्ष के साथ-साथ स्वदेशी जागरण मंच व भारतीय मजदूर संघ जैसे कई एक अन्य संगठनों को भी रास नहीं आया है। ऐसे संगठनों का मानना है कि सरकार की यह सोच सरकार के आत्मनिर्भर भारत की सोच के खिलाफ है। लेकिन सरकार की दलील है कि बेकार संपत्तियां आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में योगदान नहीं करती और इनका विनिवेश ही सरकार का राजस्व बढ़ाने के साथ-साथ इन्हें घाटे से उबार सकता है।
संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निर्देशक तत्व में अनुच्छेद 36 से 51 में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को अंकित किया है और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए राज्य को वचनबद्ध किया है। बाजार के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए और समान अवसरों की अवधारणा के विकास को भी महत्व दिया है, लेकिन मौजूदा बजट में ऐसे प्रावधान किए जा रहे हैं जो कल्याणकारी राज्य की संरचना को धूमिल करते हैं। ऐसा लगता है कि सरकार आर्थिक ऊंचाई हासिल करने के लिए देश के सभी सार्वजनिक उपक्रमों को विखंडित करना चाहती है।
भारत में पब्लिक सेक्टर यूनिट्स राज्य संपदा के भंडार गृह हैं, जिसमें जमीन के साथ-साथ खनिज पदार्थ भी शामिल है। भारत में सभी पब्लिक सेक्टर यूनिट्स भारत की आर्थिक रीढ़ हैं, लेकिन सरकार की नजर हर क्षेत्र में 100 प्रतिशत एफडीआई करने की ओर है। एक तरफ तो सरकार गाजे-बाजे के साथ आत्मनिर्भर भारत का सपना दिखा रही है लेकिन ठीक इसके दूसरे तरफ एफडीआई के जरिए मल्टीनैशनल के लिए दरवाजा खोल रही है। चाहे डिफेंस हो या रेलवे, टेलीकॉम हो या नागरिक उड्डयन, सड़क हो या पावर सेटेलाइट हो या पेट्रोलियम माइनिंग हो या ट्रांसपोर्टेशन सभी क्षेत्रों में विनिवेश करने की तैयारी है। सवाल है कि एक कल्याणकारी राज्य के लिए ऐसा अंधाधुंध विनिवेश हमारे प्रचलित अर्थ चक्र को कहां ले जाएगा। राष्ट्रीय हित व सुरक्षा से जुड़े मसले क्या प्रभावित नहीं होंगे?
विनिवेश लक्ष्य
वर्ष विनिवेश लक्ष्य वास्तविक प्राप्त वास्तविक अनुपात
(करोड़ रू. में) विनिवेश (करोड़ रू. में) प्रतिशत
2006-07 3840 0 0.00
2007-08 41651 3392 8.14
2008-09 1165 2 0.17
2009-10 1120 4306 384.46
2010-11 40000 22275 55.69
2011-12 40000 1145 2.86
2012-13 30000 2193 7.31
2013-14 40000 1589 3.97
2014-15 43425 222 0.51
2015-16 41000 12853 31.35
2016-17 36000 21433 59.54
2017-18 100000 100195 100.24
2018-19 80000 85045 106.31
2019-20 105000 50304 47.91
2020-21 210000 17957.7 8.55
Data for all years except 2020-21 from the website of the Controller General of Accounts (CGA).
Data fo the current year from the Ministry of Finance.
मालूम हो कि पब्लिक सेक्टर में विनिवेश वर्ष 1991 में लागू की गई नई आर्थिक नीति का हिस्सा है, जो नई उदारवादी नीतियों की अवधारणा से परिचालित है। 1991 के बाद ही राज्य की प्रकृति नियंत्रित राज्य से बदलकर मार्केट को बढ़ावा देने वाले यंत्र की तरह हो गई। यह बदलाव 2014 के बाद भारत में बहुत तीव्रता से देखा गया। जहां योजना आयोग को बदलकर नीति आयोग कर दिया गया। जिसमें कारपोरेट का बोलबाला है। नीति आयोग ने 74 सेंट्रल पब्लिक अंडरटेकिंग्स की खोज की, जिनमें से 26 को बंद किया जाना है तथा अन्य 10 में भी विनिवेश करना है। इतना ही नहीं, सरकार चरणबद्ध तरीके से सुचारू रूप से चलने वाली पब्लिक सेक्टर यूनिट्स को भी बीमार उपक्रम बनाकर निजी हाथों में बेचने का मार्ग प्रशस्त कर रही है, यह भारत के अर्थ तंत्र से खिलवाड़ जैसा है।
इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि एक तरफ सरकार भारत को आत्मनिर्भर बनाने की बात करती है तो वहीं दूसरी तरफ सौ प्रतिशत एफडीआई का फार्मूला भी तैयार किया है। सबसे ज्यादा विचलित करने वाली बात यह है कि जिन सार्वजनिक उपक्रमों को देखरेख कर फिर से लाभकारी बनाया जा सकता है, उस पर भी सरकार की नजर नकारात्मक ही है।
संविधान निर्माताओं ने प्रजातंत्र के प्रजातांत्रीकरण की मूल अवधारणा में राजनीतिक प्रजातांत्रीकरण के बाद सामाजिक आर्थिक प्रजातांत्रीकरण की बात की थी। लगता है विनिवेश के जरिए सरकार तकनीक आधारित आर्थिक एकाधिकार को प्रोत्साहित कर रही है। आजादी के बाद से ही भारत में पब्लिक सेक्टर यूनिट्स को आत्मनिर्भर भारत का प्रतीक माना जाता रहा है। पब्लिक सेक्टर यूनिट्स के विनिवेश से आर्थिक हितों के साथ-साथ संप्रभुता को भी आघात पहुंच सकता है। कल्याणकारी राज्य में कारपोरेट संचालित व्यवस्था पर बहुत समय से विमर्श होता रहा है। ऑक्सफैम ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में कुछ गिनती के कारपोरेट अधिकांश आबादी के हिस्से पर काबिज हैं। पब्लिक सेक्टर यूनिट्स को एक बफर माना जाता है, जहां इक्विटी को मान्यता थी। मगर अब यह मान्यता धीरे-धीरे पब्लिक सेक्टर यूनिट्स को विनिवेश करके विखंडित की जा रही है।
सरकार सही नीति बनाकर पब्लिक यूनिट के प्रबंधन को मजबूत कर सकती थी और रिफॉर्म के माध्यम से पब्लिक सेक्टर उपक्रमों को और भी मजबूती प्रदान की जा सकती थी। लेकिन सरकार ने अपने घाटे को कम करने के लिए विनिवेश के आसान तरीके को ज्यादा जायज ठहराया है। सरकार मान चुकी है कि निजीकरण एक ऐसे चमत्कार की तरह है जो सभी दुखों से निजात दिला सकता है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या सरकार का ऐसा मानना उसके अपने दायित्वों से मुंह मोड़ना, और जनता को कारपोरेट घरानों के हाथ में छोड़ देना नहीं है?
स्वदेशी जागरण मंच सहित कई अन्य संगठनों ने जो सार्वजनिक क्षेत्र में एफडीआई का लगातार विरोध करते रहे हैं। इनका मानना है कि सरकार को पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग की क्षमता बढ़ाने के लिए फैसले करने चाहिए, ताकि यह उपक्रम बाजार की प्रतिस्पर्धा में अपनी सशक्त स्थिति बना सकें। क्योंकि सरकार इनकी क्षमता बढ़ाने और इन्हें बचाने से बचेगी तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान पिछड़े राज्यों को उठाना पड़ेगा, क्योंकि ऐसी स्थिति में इक्विटी की अवधारणा कहीं ना कहीं अपना स्वरूप खो देगी।
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