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क्रांतिकारी विचारों का न्यासी एक सन्यासी

उपनिवेशवादी दौर और मानसिकता के इतिहास लेखन में भले भारत का मजाक औघड़ियों और सपेरों का देश कहकर उड़ाया जाता रहा हो, पर भारत को बगैर ऋषि और कृषि परंपरा के ज्ञान के समझना मुश्किल है। मिथकों, स्मृतियों और किंवदंतियों के बाहर शंकराचार्य, गौतम बुद्ध, महावीर, स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद की एक लंबी परंपरा है, जो भारतीय मूल्य, अध्यात्म, संस्कृति और ज्ञान की जड़ों को पुष्ट करते रहे हैं। 12 जनवरी, विवेकानंद के जन्मदिन पर देश के अंदर और बाहर एक बहस शुरू हुई है कि भारत को अपने विकास और समृद्धि के लिए महज नए उपभोगवादी लक्ष्यों को सामने रखना चाहिए या सह-अस्तित्व और आध्यात्मिक ऊर्जा के उस आदर्श को सामने रखना चाहिए, जो हमारी विरासत रही है। मौजूदा दौर युवा जुनून और उसकी ई-तकनीक और प्रबंधकीय मेधा का है। भारतीय युवाओं की उपलब्धियां ग्लोबली सराही जा रही है, स्वीकारी जा रही है। बावजूद इसके देश के समय, समाज और परिवेश को बदलने में उनका कोई बड़ा क्रांतिकारी अवदान सामने नहीं आ रहा है। इसके उलट चिंता यह जताई जा रही है कि देश काल और अपने मूल्य बोध को लेकर नई पीढ़ी खासी लापरवाह है। ऐसे में विवेकानंद का युवाओं के लिए आह्वान सामयिक दरकारों पर काफी खरा उतरता है।

स्वदेशी पत्रिका के इस अंक में हम स्वामी विवेकानंद को सामयिकता के इन्हीं दरकारों के साथ याद कर रहे हैं स्वदेशी संवाद

 

विवेकानंद जी ने कहा था कि हमें शक्ति की पूजा करनी है, अतः हमें दृढ़ मस्तिष्क, मजबूत निरोगी काया और मन की आवश्यकता है। दृढ़ता के बिना संसार में सफलता नहीं मिल सकती। उस दृढ़ता का प्रमाण उन्होंने अपने जीवन में अनेक बार दिया। जिस समय उनके गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस अस्वस्थ थे और उनका उपचार कोलकाता के बाहर एक उद्यान भवन में चल रहा था। वहां उन्होंने देखा कि उनके सारे गुरु भाई बाहर खड़े हैं। उन्होंने पूछा, तो ज्ञात हुआ कि डॉक्टर ने कहा है कि गुरु को कैंसर है और वह छूत का रोग है। इसलिए सेवा करने वाले शिष्य भी कुछ सावधानी बरतें। स्वामी ने क्षण भर सोचा और अपने गुरु भाइयों को अपने साथ ऊपर, जहां गुरु अपने कमरे में विश्राम कर रहे थे, आने के लिए कहा। कमरे में पहुंचकर उन्होंने गुरु की सेवा करने वाले लाटू से पूछा, ठाकुर ने कुछ खाया। उत्तर मिला, ‘‘प्याले में दलिया दिया था, ठाकुर ने थोड़ा सा खाया कि प्याले में ही उल्टी कर दी’’। इसका मतलब था कि उनके गले के भीतर से वह दलिया लौटकर प्याले में आ गया था और रोग के सारे कीटाणु उसमें विद्यमान थे। विवेकानंद जी ने प्याला उठाया और सारा का सारा पी गए। अपने गुरु भाइयों की ओर देखा और कहा, अब कोई रोग की छूत लगने की बात आज के बाद नहीं करेगा।

स्वामी विवेकानंद जी की प्रमुख चिंता थी-मानवता का आध्यात्मिक उत्थान। वे समझते थे कि मानव में सहज रूप से प्रदत बहुत सी संभावनाएं विद्यमान है और वे यह भी मानते थे कि धर्म, शिक्षा और कर्म का समान उद्देश्य है, इन संभावताओं का विकास करना और उनको साकार रूप देना। समाज सेवा के लिए उनका वेद वाक्य था, ‘मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है’। विवेकानंद जी सिद्ध पुरुष और संस्कृति पुरुष थे। नैतिक मूल्यों के विकास एवं युवा चेतना के जागरण हेतु कटिबंध मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान के सजग प्रहरी थे, अध्याय दर्शन और संस्कृति को जीवंत करने वाली संजीवनी बूटी भारतीय संस्कृति और भारतीयता के प्रखर प्रवक्ता, युगीन समस्याओं के समाधान, अध्यात्म और विज्ञान के संबंधित वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु, स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में हुआ था। उनका बचपन का नाम नरेंद्र था। वे महज 25 वर्ष की आयु में घर छोड़कर साधु बन गए थे। भारत में उनका जन्मदिन ‘युवा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि स्वामी विवेकानंद आज भी भारत के अधिकांश युवाओं के आदर्श हैं। उनकी हमेशा यही शिक्षा रही कि आज के युवा को शारीरिक प्रगति से ज्यादा आंतरिक प्रगति की जरूरत है और युवाओं में जोश भरते हुए वे कहा करते थे कि ‘उठो मेरे शेरों, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो’।

आज का भारत नौजवान है। युवा शक्ति से भरा हुआ है। युवा के मन में व आंखों में सपने होते हैं, लेकिन अधूरे होते हैं। मजबूत संकल्प शक्ति होती है। युवा पत्थर पर भी लकीर खींचने का सामर्थ रखते हैं और इन्हीं युवाओं के भरोसे विवेकानंद ने आवाहन किया था कि मैं अपनी आंखों के सामने भारत माता को पुनः विश्व गुरु के स्थान पर विराजमान होते हुए देख रहा हूं।

विवेकानंद जी का मूल संदेश था कि चिर, पुरातन, नित्य नूतन के वाहक,  अतीत को पढ़ो, वर्तमान को गढ़ो और आगे बढ़ो। जो समाज अपने इतिहास एवं विरासत की मूल्यवान चीजों को नष्ट कर देता है वह निषप्राण हो जाता है और यह भी सत्य है कि जो समाज इतिहास में ही डूबे रहते हैं वह भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं। वर्तमान समय में तर्क और तथ्य के बिना किसी भी बात को सिर्फ आस्था के नाम पर आज की पीढ़ी के गले नहीं उतारा जा सकता। भारतीय ज्ञान को तर्क के साथ प्रस्तुत करने पर पूरी दुनिया आज उसे स्वीकार करती हुई प्रतीत भी हो रही है। विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो भाषण में इस बात को चरितार्थ करके दिखाया था। जहां मंच पर संसार की सभी जातियों के बड़े-बड़े विद्वान उपस्थित थे। भाषण के प्रथम चार शब्द, ‘अमेरिकावासी, भाइयों तथा बहनों’ इन शब्दों को सुनते ही जैसे सभा में उत्साह का तूफान आ गया और 2 मिनट तक 7000 लोग उनके लिए खड़े होकर तालियां बजाते रहे। पूरा सभागार करतल ध्वनि से गुंजायमान हो गया।

शब्दों के जादूगर विवेकानंद के संवाद का यह जादू शब्दों के पीछे छिपी चिर पुरातन भारतीय संस्कृति, सभ्यता, अध्यात्म और उस युवा के त्यागमय जीवन का था, जो शिकागो से निकला, वह पूरे विश्व में छा गया। उस भाषण को आज भी दुनिया दिल से याद करती है। उस भाषण से दुनिया के तमाम पंथ आज भी सबक ले सकते हैं। इस अकेली घटना ने पश्चिम में भारत की एक ऐसी छवि बना दी जो आजादी से पहले और इसके बाद सैकड़ों राजदूत मिलकर भी नहीं बना सके। अमेरिकी प्रेस ने विवेकानंद को उस धर्म संसद की महानतम विभूति बताया था और विवेकानंद के बारे में लिखा था ‘उन्हें सुनने के बाद हमें महसूस हो रहा है कि भारत जैसे एक प्रबुद्ध राष्ट्र में मिशनरियों को भेजकर हम कितनी बड़ी मूर्खता कर रहे थे’।

अपनी प्रथम विदेश यात्रा से लौटने के बाद भारत की दुर्दशा पर स्वामी जी ने गहन चिंतन किया। वे अक्सर कहते थे, हे भगवान! हे भगवान! की रट लगाना और नाक पकड़कर मोक्ष की कामना करना, इसी कारण भारतीयों के मन मरे हुए है और कलाइयां सिकुड़ी हुई है। ‘होईहैं सोई जो राम रचि राखा’ के भरोसे रहकर ही भारतीय बंधुओं ने पराधीनता की बेड़ियों से अपने हाथ को जकड़ रखा है। इसलिए स्वदेश लौटते ही स्वामी जी ने अपने प्रत्येक भाषण में ‘शरीरमाध्यम खलुधर्म साधनम्’ के महामंत्र का मजबूती से उद्घोष किया।

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के अनुसार ‘स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म और भारत की रक्षा की’। सुभाष चंद्र बोस ने कहा, ‘विवेकानंद आधुनिक भारत के निर्माता है’। महात्मा गांधी मानते थे कि ‘विवेकानंद ने उनके देश प्रेम को हजार गुना बड़ा कर दिया। स्वामी विवेकानंद ने खुद को एक भारत के लिए कीमती और चमकता हीरा साबित किया। उनके योगदान के लिए उन्हें युगों और पीढ़ियों तक याद किया जाएगा’। जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ में लिखा है कि ‘विवेकानंद दबे हुए और उत्साहहीन हिंदू मानस में एक टॉनिक बनकर आए और उसके भूतकाल में से उसे आत्मसम्मान व अपनी जड़ों का बोध कराया’।

कुल मिलाकर यदि कहा जाए कि स्वामी विवेकानंद आधुनिक भारत के निर्माता थे, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह इसलिए कि स्वामी जी ने भारतीय स्वतंत्रता हेतु भारतवासियों के मनों में एक स्वाभिमान का माहौल तैयार किया। आज के समय में विवेकानंद के मानवतावाद के रास्ते पर चलकर ही भारत एवं विश्व का कल्याण हो सकता है। आज विवेकानंद को पढ़ने के साथ-साथ उनको गुनने की भी जरूरत है। हमें याद रखना चाहिए कि अनेक प्रकार के आक्रमणों को झेलने के बाद भी भारत आज भी अपनी जड़ों के साथ खड़ा है तो उसका कारण स्वामी विवेकानंद जैसी महान आत्माएं ही हैं, जिन्होंने भारत को भारत के दृष्टिकोण से देखा और भारतीय मानव में भारत के प्रति भक्ति पैदा की। विवेकानंद के जीवन से प्रभावित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक चिंतक एवं वर्तमान में सह सरकार्यवाह डॉ मनमोहन वैद्य अक्सर कहते हैं कि भारत को समझने के लिए चार बिंदुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। सबसे पहले भारत को मानो, फिर भारत को जानो, उसके बाद भारत के बनों और सबसे आखिर में भारत को बनाओ।    

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