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कोरोना प्रभाव के चलते नदियों में शव प्रवाह

कानपुर आईआईटी के पर्यावरण विज्ञान विभाग के विशेषज्ञ और नमामि गंगे मिशन से जुड़े डॉ विनोद तारे की मानें तो कोरोना संक्रमित मरीजों के शवों को नदियों में बहाए जाने के बाद भी कोरोना वायरस खत्म नहीं होगा। इस वायरस को नष्ट करने के लिए कई अन्य चीजों की जरूरत पड़ सकती है लेकिन इन शवों के कारण नदियों के पानी के प्रदूषित होने की संभावना अधिक है। — डॉ. दिनेश प्रसाद मिश्रा

 

कोरोना महामारी ने पूरे समाज को भयभीत कर मृत्यु के बाद किए जाने वाले अंत्येष्टि कर्म को भी प्रभावित कर दिया है। भारतीय समाज में पर्यावरण की दृष्टि से अग्नि दाह की प्रथा प्रचलित रही है। हालांकि कुछ विशेष समुदायों में भूमि एवं जल में शव दाह किए जाने का भी चलन रहा है। किंतु हिंदू रीति रिवाज में अधिकांश अंत्येष्टि कर्म अग्नि दाह के रूप में ही संपन्न किए जाते रहे हैं। पर्यावरण की दृष्टि से भी इसे सर्वोत्तम माना जाता है, क्योंकि मान्यता है कि अग्नि दाह करने से पांच महाभूतों से बना यह शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाता है। वहीं मृत शरीर में व्याप्त बीमारी के विषाणु भी जलकर नष्ट हो जाते हैं, किंतु आज कोरोना के साए में होने वाली मौतों से भयभीत लोग शव को नदी के किनारे दफनाकर या उन्हें जल में प्रवाहित कर अंत्येष्टि का कार्य पूरा कर रहे हैं, जिससे न केवल रिश्तों की खाई चौड़ी हो रही है, अपितु पर्यावरण के प्रदूषित होने के साथ ही जीवन के लिए आवश्यक वायु, जल और मिट्टी में भी प्रदूषण बढ़ने की आशंका है।

यहां प्रश्न यह उठता है कि समाज द्वारा स्वीकृत अग्नि दाह के स्थान पर लोगों द्वारा अपने स्वजनों के शवों का मृतिका दाह या जलदाह क्यों किया जा रहा है? वस्तुतः इसके मूल में आर्थिक विपन्नता एवं महामारी के वायरस से उत्पन्न डर निहित है। अंत्येष्टि में शवों की कपाल क्रिया कर अग्नि दाह के उपरांत किए जाने वाले कर्मकांड अनिवार्य रूप से संपन्न किए जाते हैं, किंतु जलदाह एवं मृतिका दाह में कर्मकांड अनिवार्य न होने से आर्थिक रूप से विपन्नता झेल रहे लोगों द्वारा यह मार्ग अपनाया जा रहा है। यह मजबूरी का मार्ग है, किंतु बड़े पैमाने पर गंगा नदी में शव प्रवाहित किए जाने से कई तरह के खतरों की आशंका बढ़ी है।

परम पवित्र गंगा नदी में बड़ी मात्रा में शव के प्रवाह किए जाने के मामलों ने जितना सरकारी तंत्र पर सवाल खड़ा किए हैं, उससे कहीं अधिक आमजन को झकझोरा है। हमारे समाज में गंगा को केवल जीवनदायिनी नदी ही नहीं, बल्कि मां का दर्जा दिया है। दानवों की तरह हर पल मुंह बाए खड़े कोरोना के सामने आस्था की चूलें हिल गई हैं। लोग बिना सोचे समझे आनन-फानन में नदियों में शव प्रवाह करने लगे हैं। बताते हैं कि कुछ लोग तो आर्थिक मजबूरी में, पर अन्य कई लोग कोरोना के भय से ऐसा कर रहे हैं। हालांकि सरकारी तत्परता बढ़ने के बाद नदियों में शव प्रवाह की रफ्तार रूक गई है, पर विशेषज्ञों का कहना है कि भारी संख्या में शव प्रवाह के कारण गंगा नदी के प्रदूषित होने का खतरा बढ़ गया है।

प्रसिद्ध भूगर्भ शास्त्री प्रोफेसर ध्रुवसेन सिंह इसे अपने आपमें एक आपदा मानते हैं। पिछले काफी समय से नदियों को शुद्ध करने के लिए सरकारों की पहल पर कई एक योजनाएं शुरू की गयी है। उन्होंने अपने एक शोध पत्र में स्पष्ट रूप से कहा है कि अगर हम अपनी नदियों में गंदगी डालना बंद कर दें, तो एक साल के अंदर नदियां खुद ही अपने आपको स्वच्छ कर लेंगी। 

इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना का यह समय एक अत्यंत आपदा काल है, लेकिन गंगा जैसी जीवनदायिनी नदी में शव प्रवाह का बर्ताव कहीं से भी तार्किक नहीं है। किसी भी नदी में शव डालना नुकसानप्रद है, पर गंगा जैसी नदी में शव डालने का खतरा कई गुना और अधिक बढ़ जाता है। क्योंकि इस नदी की पहुंच अधिकांश जन के बीच है। जाहिर सी बात है कि नदी में शव प्रवाहित किए जाएंगे तो उसे नदी की मछलियां खाएगी और फिर जो इंसान उन्हीं मछलियों को खाएंगे, उनमें भी कोविड-19 के संक्रमण का खतरा बना रहेगा। चूंकि नहरों के जरिए इन्हीं नदियों का पानी खेतों में जाता है, इससे फूड चेन भी बिगड़ेगा। जिसका असर आम लोगों के जीवन पर भी पड़ेगा। नदी के भौगोलिक रासायनिक व बायोलॉजिकल गुणों में भी बदलाव आ सकता है, जो कि प्रकृति के लिए किसी भी रूप में ठीक नहीं होगा।

केंद्र की सरकार ने वर्ष 2014 में गंगा को साफ व निर्मल बनाने के लिए ‘नमामि गंगे’ परियोजना की शुरुआत की, इसके लिए सरकार ने 20,000 करोड़ रुपए का बजट निर्धारित किया। पहले सरकार ने वर्ष 2018 तक नदी को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त करने का लक्ष्य रखा था, जिसे बाद में बढ़ा दिया गया। सरकार अभी भी इस दिशा में प्रयास कर रही है।

इस बीच नमामि गंगे परियोजना के समानांतर उत्तर प्रदेश की सरकार ने भी गंगा सफाई का एक अभियान शुरू किया। वर्ष 2019 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने गंगा यात्रा निकाली। यात्रा का मुख्य उद्देश्य लोगों में जागरूकता लाना था। इसके साथ ही भागीरथी सर्किट बनाकर गंगा किनारे के गांवों को विकसित करने की योजना है। शहरों के लिए स्मार्ट सिटी के तर्ज पर कुछ चुनिंदा गांवों को माडल के रूप में भी विकसित करने की घोषणा हुई। सरकार का दावा है कि इस योजना से गंगा किनारे बसे 27 जिलों, 21 नगर निगमों और 1038 ग्राम पंचायतों का कायाकल्प होगा। देश में लगभग दो हज़ार किलोमीटर की दूरी तय करने वाली गंगा नदी उत्तर प्रदेश के करीब 1200  किलोमीटर के क्षेत्र में विद्यमान है।

इस बीच केंद्र के सख्त निर्देश के बाद यूपी और बिहार की सरकारों ने गंगा और उनकी सहायक नदियों में शव प्रवाह पर रोक लगाने तथा ऐसे शवों को सुरक्षित व सम्मानजनक अंतिम संस्कार के लिए आवश्यक कदम उठाने शुरू कर दिए, वहीं दूसरी तरफ आईआईटी कानपुर का एक विशेष दल गंगाजल और उसकी मिट्टी के जांच का अभियान शुरू किया है। यह दल यह पता लगाने का प्रयास कर रहा है कि गंगा में लाशें बहाए जाने और नदियों के किनारे शवों को रेत में दफन करने से पानी और मिट्टी पर क्या प्रभाव पड़ा है। कानपुर आईआईटी के पर्यावरण विज्ञान विभाग के विशेषज्ञ और नमामि गंगे मिशन से जुड़े डॉ विनोद तारे की मानें तो कोरोना संक्रमित मरीजों के शवों को नदियों में बहाए जाने के बाद भी कोरोना वायरस खत्म नहीं होगा। इस वायरस को नष्ट करने के लिए कई अन्य चीजों की जरूरत पड़ सकती है लेकिन इन शवों के कारण नदियों के पानी के प्रदूषित होने की संभावना अधिक है।

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