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आत्मनिर्भर भारत के लिए आगे भी जरूरी है आरसेप से दूरी

एक उभरती हुई ताकत के नाते भारत ने समझौते से बाहर रहकर संदेश दिया है कि व्यापारिक बातचीत में भारतीय हितों की अनदेखी नहीं हो सकती है। आठ देशों के साथ मिलकर भारत उन नीतियों पर काम कर रहा है, जो आने वाले दिनों में चीन को झुकने के लिए भी मजबूर करेगी। — स्वदेशी संवाद


मौजूदा करोना संकट की वजह से डावांडोल वैश्विक अर्थव्यवस्था के दौर में एषिया प्रषांत क्षेत्र के 15 देषों के बीच हुए मुक्त व्यापार के समझौते में भारत शामिल नहीं है। यह कोई मामूली घटना नहीं है। इसे लेकर देष के चिरअसंतुष्ट वाममार्गी विचारक काफी हाय-तौबा कर रहे हैं। ऐसे लोग भारत के समझौते में शामिल न होने को आर्थिक रूप से आत्म-विनाष की संज्ञा दे रहे हैं, लेकिन इसके उलट आत्मनिर्भर भारत के संकल्प को साकार करने तथा चीन को रणनीतिक रूप से परास्त करने की गरज से भारत का समझौते में शामिल नहीं होना, दीर्घकालिक फायदे का सबब माना जा रहा है। उम्मीद है कि भारत के घरेलू उद्योगों को गुणात्मक गति मिलेगी, वहीं चीन की हेकड़ी भी कम हो जाएगी।

भारत ने आत्मनिर्भर बनने का जो संकल्प लिया है, उसे साकार करने के लिए घरेलू उद्योगों का संरक्षण भी उतना ही जरूरी है जितना कि मुक्त व्यापार से होने वाले लाभ को अर्जित करना। भारत चीन की चालाकी भरी नीतियों को भली बात समझ चुका है। अगर ठोस नीतियों के अभाव में हम अपने दरवाजे दूसरे देषों के लिए खोल देंगे तो इसका नतीजा क्या होगा, हम पहले ही देख चुके हैं। सिर्फ बाजार और कारोबार के दम पर ही चीन भारत पर किस तरह से हावी होता रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। चीन निर्मित सामानों के भारतीय बाजार में भारी आवक के कारण देशी लघु एवं मध्यम उद्योगों की कमर टूट गई थी। भारत के अधिकांष उत्पादक इकाइयां एक तरह से ट्रेडर की भूमिका में खड़ी हो गई थी।

इसमें कोई दो राय नहीं कि आज का दौर खुली अर्थव्यवस्था का दौर है। ऐसे में बड़े व्यापारिक समझौतों से अपने को अलग रखना कई बार घाटे का सौदा भी हो सकता है, लेकिन जब खुद के कारोबार और घरेलू उद्योगों के संकट का प्रष्न आता है तो राष्ट्रहित सर्वोपरि हो जाता है। मौजूदा समझौते से भारत के किनारे करने के पीछे आर्थिक कारणों से भी ज्यादा जरूरी रणनीतिक संदर्भ का है। भारत ने आरसीईपी से खुद को बाहर रखने का फैसला गत वर्ष नवंबर के महीने में ही सुना दिया था, लेकिन लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जारी गतिरोध के बीच चीन के साथ हालिया तनाव में वृद्धि के कारण भी भारत के इस समझौते में शामिल नहीं होने की महत्वपूर्ण भूमिका है।

मालूम हो कि वर्ष 2019 में भारत व्यापक क्षेत्रीय आर्थिक भागीदारी के मेगा सौदे से बाहर निकलने की घोषणा की थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद कहा था कि यह समझौता भारतीय व्यापारिक हितों के प्रतिकूल है, इसलिए इसमें शामिल होना भारत के राष्ट्रीय हितों के लिए ठीक नहीं है। स्वदेषी जागरण मंच ने आरसीईपी समझौते का विरोध किया था। स्वदेशी जागरण मंच के अखिल भारतीय सहसंयोजक डॉ. अश्वनी महाजन ने कहा था कि यह समझौता प्रधानमंत्री के ‘मेक इन इंडिया’, ‘किसानों की आय दुगनी करना’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘भारत को मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाना’, आदि अनेकों सपनों को धूमिल कर देने वाला है। समझौते से बाहर निकलने की घोषणा के कुछ ही दिन बाद देष के विदेष मंत्री एस. जयषंकर ने दिल्ली में रामनाथ गोयनका में एक व्याख्यान देते हुए कहा था कि हम कोई बुरा सौदा करते हैं, उससे अच्छा है कोई सौदा न किया जाए। उस दौरान विदेष मंत्री ने जोर देकर कहा था कि भारत में व्यापारिक हितों के मद्देनजर बहुत अंत तक बातचीत की तथा अपनी तरफ से सार्थक प्रयास जारी रखा था। क्योंकि भारत अपनी एक्ट ईस्ट पॉलिसी से पीछे हटने वाला नहीं था, लेकिन जब भारतीय हितों की अनदेखी कर समझौते पर आगे बढ़ने की पेषकष हुई, तो भारत खुद को अलग कर लिया। यह शुद्ध रूप से राष्ट्रीय हित का दृष्टिकोण था।

बाहर निकलने की घोषणा के बावजूद भारत सरकार ने सकारात्मक रुख अपनाते हुए कहा था कि भारत ने अपने दरवाजे बंद नहीं किए हैं। इस क्रम में कोविड-19 महामारी आने के पूर्व व्यापार और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के मद्देनजर विदेष मंत्री ने यह संदेष दिया था कि अगर भारतीय हितों की सुरक्षा पर काम करते हुए सभी सदस्य देष आगे बढ़ते हैं तो भारत को इस समझौते से कोई परहेज नहीं है, लेकिन भारत इसमें तभी शामिल होगा जब भारत के राष्ट्रीय हित सुरक्षित होंगे।

लेकिन दुनिया भर में कोरोना महामारी के विस्तार के बाद परिदृष्य बदल गए। चीनी कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को अपने चपेट में ले लिया। वहीं चीन की आक्रामकता दक्षिणी चीन सागर से लेकर भारत चीन सीमा तक फैल गई। जवाब में भारत ने भी चीन के खिलाफ आर्थिक आक्रामकता दिखानी शुरू की। खासकर डिजिटल डोमिन में चीनी एप्स पर लगाम लगाकर भारत ने चीन को यह संकेत दिया कि बीजिंग भारतीय हितों की अनदेखी कर भारत में धड़ल्ले से अपना व्यवसाय नहीं कर सकता। गलवान घाटी में 20 भारतीय जवानों की शहादत के बाद भारत का मिजाज बिल्कुल बदल गया। भारतीय जनता ने चीनी सामानों का बहिष्कार शुरू कर दिया। चीन के साथ आर-पार के लिए भारतीय जन-मन तैयार हो गया।

इस बीच विदेष मंत्री एस. जयषंकर ने एक उच्चस्तरीय बातचीत के दौरान आरसीईपी को लेकर एक बहुत पतली बारीक व्याख्या देते हुए कहा कि क्या हमने वैश्वीकरण की नीति को इसलिए स्वीकार किया था कि हम अधिक प्रतिस्पर्धी बनेंगे और दुनिया के साथ तेजी से आगे बढ़ेंगे। अगर हां, तो जमीनी हकीकत इसके उलट है। हमें ईमानदारी से आज इस बात का मूल्यांकन करना होगा कि क्या इन सभी एफटीए के कारण भारत अधिक प्रतिस्पर्धी बना है? विनिर्माण क्षेत्र में संपन्नता आई है, तकनीकी नवीनता की ऊंचाई प्राप्त हुई है, हमारा निर्यात फल-फूल रहा है, अगर इसका उत्तर ‘ना’ में है, तो राष्ट्रीय हित को आगे कर हमें ऐसे समझौते से बाहर रहना होगा तथा देष को आत्मनिर्भर बनाने के लिए अपनी घरेलू क्षमताओं का निर्माण करना होगा।

उन्होंने यह भी जोड़ा था कि हमें एक बात याद रखना चाहिए कि राष्ट्रीय क्षमता के निर्माण पर जोर देना हमें वैश्विक विरोधी नहीं बनाता। इसके विपरीत मेरा तर्क है कि यदि आपके पास क्षमता नहीं है तो आप अन्य लोगों के सामानों के लिए बाजार के रूप में समाप्त हो जाते हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में और अधिक दृढ़ता से भाग लेने के लिए हमें मजबूत घरेलू क्षमताओं का निर्माण करना ही होगा और नुकसान के अंतराल को खत्म करने के लिए बड़े और कड़े कदम उठाने होंगे।

बीते 15 नवंबर को वियतनाम में हुए 15 देषों के  क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते से भारत बाहर है, लेकिन सदस्य देषों ने भारत को एक पर्यवेक्षक सदस्य के रूप में शामिल रखा है और यह भी कहा है कि इस मंच का दरवाजा भारत के लिए खुला हुआ है। भारत जब भी आना चाहे, इसमें शामिल हो सकता है।

एक ऐसे समय में जबकि वैश्वीकरण ने अपनी चमक खो दी है, दुनिया के अधिकांष देष अपनी सीमा के भीतर ही संभावनाएं तलाष रहे हैं। भारत ने अपर्याप्त सुरक्षा उपायों तथा सीमा शुल्क कम करने से कृषि और डेयरी दोनों क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभावों को आगे कर, अपना कदम इस समझौते से पीछे खींच लिया था और आत्मनिर्भर भारत के लिए अपना कदम आगे बढ़ाया है।

ज्ञात हो कि आरसीईपी के दरवाजे भारत के लिए स्थाई रूप से बंद नहीं होने के आर्थिक और रणनीतिक कारण हैं।

आर्थिक कारण
स्पष्ट रूप से भारत का निर्णय आरसीईपी व्यापार के क्षेत्र में चीन के प्रभाव से प्रभावित है, क्योंकि नई दिल्ली के पास पहले से ही आसियान के साथ मुक्त व्यापार समझौता है। दक्षिण कोरिया और जापान के साथ अलग-अलग सौदे हैं। आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के साथ भी बातचीत चल रही है। भारत और सिंगापुर के बीच सीईसीए व्यापक आर्थिक सहयोग समझौता की दो समीक्षाएं पूरी हो चुकी है। भारत भूटान के बीच व्यापार वाणिज्य और पारगमन के समझौता को 2016 में नवीनीकृत किया गया था। भारत नेपाल के मध्य संधि को 2016 में विस्तारित किया गया था। भारत कोरिया के मध्य सीपीए की समीक्षा के लिए आठ दौर की वार्ता पूरी हो चुकी है। भारत, जापान एवं आसियान के सदस्यों के बीच सीजीपीए एवं एफडीए समीक्षा हुई है, जो आगे अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ द्विपक्षीय समझौतों पर बातचीत करने के लिए भारत के हित में काम करेगा। वही आंकड़े बताते हैं कि चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा खराब है।

रणनीतिक कारण
रणनीतिक रूप से भारत को चीन की समुद्री चुनौती के लिए खुद को तैयार करने की आवष्यकता है। भारत इस पर आगे भी बढ़ रहा है और क्वाड देषों के साथ नई दिल्ली का गठबंधन, भारत प्रषांत क्षेत्र में बीजिंग के दबदबे को चुनौती देने में मदद करेंगे। एक उभरती हुई ताकत के नाते भारत ने समझौते से बाहर रहकर संदेश दिया है कि व्यापारिक बातचीत में भारतीय हितों की अनदेखी नहीं हो सकती है। 8 देषों के साथ मिलकर भारत उन नीतियों पर काम कर रहा है जो आने वाले दिनों में चीन को झुकने के लिए भी मजबूर करेगी।
 

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