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आत्मनिर्भर बीज स्वराज और अन्न स्वराज की ओर भारत-2

जैविक खेती, स्थानीयता और एकजुटता वाली अर्थव्यवस्था के आधार पर 
आत्मनिर्भर बीज स्वराज और अन्न स्वराज की ओर भारत

आत्मनिर्भर भारत की उत्पति अन्न के प्रति आत्मनिर्भर भारत से संभव है। अन्न स्वराज को बीज स्वराज, ज्ञान स्वराज, आर्थिक स्वराज से मजबूती मिलेगी। हमारे द्वारा बनाए गए रैखीय निष्कर्षण अर्थव्यवस्था, चक्रीय अर्थव्यवस्था और पुनर्योजी अर्थव्यवस्था जैव विविधता पर आधारित है। — डॉ. वंदना शिवा

 

(पिछले अंक से आगे ..)

रैखिक निष्कषर्ण अर्थव्यवस्थाः गरीबी, बेरोजगारी और पारिस्थिक विनाष का कारण 

उपनिवेषवाद, उद्योगवाद और वैष्वीकरण रैखिक निष्कषर्ण अर्थव्यवस्था के अंग हैं। यह अर्थव्यवस्था असीमित निष्कर्षण, आधुनिकीकरण और मुनाफे पर आधारित है। इस व्यवस्था में नवीनीकरण के चक्रों के टूटने से अपषिष्ट और प्रदूषण का निर्माण होता है। इसमें प्रकृति और समुदाय के देखभाल के लिए कोई जगह नहीं है। नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। यह व्यवस्था प्रकृति और समाज को खराब कर देती है। यह अर्थव्यवस्था खादानो की खुदाई, प्रदूषण के निष्कर्ष पर आधारित है, जिनमें ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन या जैव चोरी, ज्ञान चोरी, जीन का निष्कर्षण, डेटा चोरी के साथ ही व्यक्तिगत डेटा निष्कर्षण आदि शामिल है। उसी तरह से रैखिक निष्कषर्ण अर्थव्यवस्था में बीज, पानी, संचार, षिक्षा का निजीकरण, स्वास्थ्य की देखभाल और रॉयल्टी की निकासी भी सम्मिलित है। रैखीय निष्कर्षण अर्थव्यवस्था हर उस व्यक्ति को अपने लपेटे में ले लेती है जिसकी हम देखभाल करते हैं। 

रैखिक निष्कषर्ण अर्थव्यवस्था गरीबी, कर्जा और विस्थापन को उत्पन्न करती है। अपषिष्टों का निर्माण करती है जैसे प्रदूषण के रूप में, साधनों का अपषिष्ट, लोगों के अपषिष्ट, जीवों के अपषिष्ट। यह दुनिया को बिना काम के नचाती है। हां, रैखिक निष्कषर्ण अर्थव्यवस्था कल्पना करती है कि बिना काम के लोग खराब खाने, खराब कपड़ों और बुरे संचार के ग्राहक बनेंगे। निष्कर्षण अर्थव्यवस्था ऐसी मनी मषीन है जो 99 प्रतिषत के दिखावे पर 1 प्रतिषत का काम करती है। 

रैखिक निष्कषर्ण अर्थव्यवस्था में गरीब गरीब ही रह जाता है, क्योंकि 1 प्रतिशत साहूकार लोगों ने सभी संसाधन और धन को हड़प लिया है। किसान गरीब हो रहे हैं क्योंकि वे 99 प्रतिषत की जमात में खडे़ हैं और उधर साहूकारों ने महंगे पेटेंट बीज, रासायनिक आदानों की खरीद के आधार पर औद्योगिक खेती को बढ़ा दे रहे हैं, जो किसानों को कर्ज में फंसा रहे हैं। और उनकी, मिट्टी पानी, जैव विविधता और स्वतंत्रता को नष्ट कर देता है। 

छोटे किसान गरीब हो रहे हैं, क्योंकि उनके इर्द-गिर्द खडे़ निगम उनके द्वारा उत्पादित मूल्य का 99 प्रतिशत चोरी कर रहे हैं। किसान गरीब हो रहे हैं क्योंकि मुक्त व्यापार की डम्पिंग प्रणाली आजीविका को खत्म करने और कृषि उत्पादों की कीमतों को नियंत्रित कर लेते हैं। गली-मोहल्ले मे ठेली और खोमचे वाले अपनी आजीविका को ई-कॉमर्स के हवाले कर रहे हैं। क्योंकि नकारात्मक सामाजिक और पारिस्थितिक स्थितियां उनकी आजीविका को विस्थापित करने पर लगी हुई है। कोरोना लॉकडाउन ने ई-कॉमर्स के दिग्गजों को वितरण पर नियंत्रण करने का मौका दिया है। ठीक अमेजन कंपनी की तरह, जिसके एक मैनेजर जेंफ बेजास ने अपनी व्यक्तिगत संपत्ति में 24 मिलियन डॉलर का इजाफा किया है। यहां तक कि तथा कथिक आर्थिक सुधारों की घोषणाओं ने भी कृषि संकट में योगदान दिया है। 

एफएसएसआई जो कि लोगों पर असुरक्षित भोजन थोपने, बिमारियों को फैलाने और आजीविका को खत्म करने से रोकने वाली एजेंसी है। इस ऐजेंसी नई गाईड लाइन की घोषणा से किसानों, ठेली-खोमचे वाले विक्रेताओं और फेरी वालों को अमेजन की गुलामी में घसीटने का प्रयास किया है। 

निष्कर्षण अर्थव्यवस्था/इकोनॉमी कोई निर्माण या उत्पादन नहीं करती। इस में प्रकृति और लोगों के उत्पादों का शोषण किया जाता है। निष्कर्षण अर्थव्यवस्था जीवन की स्थितियों को उत्पन्न या पुनर्जीवित नहीं करती। यही कारण है कि वह समाज, संस्कृति और पारिस्थितिक प्रणालियों और अर्थव्यवस्थाओं के पतन या खात्मे का काम करती है। एक समूची व्यवस्था को ध्वस्त करने के बाद निष्कर्षण आधारित अर्थव्यवस्था उपनिवेष और लगान की अगली विनाषकारी पहल को अंजाम देती है। 

ओईकोनामा, जीवन जीने की कला, चक्रीय अर्थव्यवस्थाओं की एकजुटता, परिपक्वता और पारस्परिक सहयोग- 

ओईकोनामा, जीवन जीने की कला, अर्थव्यवस्थाओं की एकजुतता है। यह पारस्परिकता और सहयोग आधारित है। आर्ट ऑफ लिविंग मतलब जीवन जीने की कला। पुनर्जीवन देने की कला है। पृथ्वी मानव सहित अन्य सभी तरह के जीवों के जीवन जीने की कला वाली अर्थ व्यवस्था। ऐसी अर्थव्यवस्था जो प्रकृति और समाज दोनों का पोषण करती है। जैविक खेती और पारस्परिक खेती में हम इस सिद्धांत को लौटाने का नियम कहते हैं। लौटाने का नियम मतलब संरक्षित करने का सिद्धांत। वह व्यवहार जिसमें धरती का संरक्षण कर मात्र अपनी जरूरत भर के हिस्से को अपने लिए रखा जाता है। 

धरती हमें भोजन देती है। जब हम उसे इस जैविक उपहार के बदले मिट्टी के संरक्षण हेतु कुछ देते हैं तो यही लौटाने का नियम है। इसे धन्यवाद का स्वरूप भी कह सकते हैं। जब जैविक पदार्थ प्रकृति को वापस देते हैं, तो वह भी देने की स्नेहिल परम्परा को जारी रखती है। वापस देना ही हमारा काम है। हमारी तरफ से धन्यवाद है। हमारी एकता है। जब धरती हमें भोजन देती है, तो उसमें जल-मिट्टी-जैव विविधता, प्रकाष और हवा की भागीदारी होती है। 

धरती हमें जल देती है। जब हम जल संरक्षण कते हैं तो हम ओइकोनोमा यानी जीवन जीने की प्रक्रिया में होते हैं। और जब हम सभी के लिए जल साझा करने की बात करते हैं तो हम एक ऐसी आर्थिकी को बनाने का प्रयास करते हैं जिसमें देने और ग्रहण करने की परस्पर प्रक्रिया जीवंत होती है। 

धरती हमें बीज देती है। जब हम बीज बचाते और उन्हें दूसरों के साथ साझा करते हैं तो आर्थिकी की निरंतरता और जीवन की सरलता में अपना योगदान देते हैं। सभी पारिस्थितिक आपदाएं प्रकृति के चक्रों में टूटन उत्पन्न करती हैं। इस प्रक्रिया को ग्रहों की सीमा कहा जाता है। यही संक्रमण है। 

चक्रीय/सर्कुलर अर्थव्यवस्था में हम समाज को उसकी वांछित हिस्सेदारी वापस देते हैं। हम धन को साझा करते हैं। चक्रीय अर्थव्यवस्था में धन कुछ हाथों में थमकर नहीं रह जाता है। चक्रीय अर्थव्यवस्था में कोई हाथ बिना काम के नहीं रहता। इस व्यवस्था में सभी के हाथों में काम होता है।

लॉकडाउन के दौरान अधिकाधिक लोग खाली हाथ गांवों की ओर चल पडे़। अब समय आ गया है कि खेती, कारीगरी आधारित उत्पादन, स्थानीय अर्थव्यवस्था आधारित वितरण की शुरूआत हो। क्षेत्रीय स्तर पर इसका विस्तार, राष्टीय स्तर पर एकजुटता और आत्मनिर्भरता की दिषा में आजीविका को पुनर्जीवित कर जीवन में उमंग जगाई जाए। 

गांधी जी ने कहा था- मैं भारत को एक ऐसे पिरामिड की तरह देखता हूं, जिसका शीर्ष अपनी पेंदी को आधार देता है। वह इसका कभी विस्तार नहीं करता। वह कभी समुद्र के घेरे में नहीं आता।

जैविक भारत एक सदैव विस्तारित होने वाला चक्र है। जो किसानों और गांवों को आत्मनिर्भरता देता है। जो स्व की सीमा से प्रारम्भ होकर राष्ट्र की आत्मनिर्भरता की परिधि तक विस्तार करता है। जब अर्थव्यवस्था चक्रीय होती है तो प्रत्येक जीवित प्राणी, प्रत्येक जगह, समूची अर्थव्यस्था, और प्रकृति तथा समाज शरीर की खरबों कोषिकाआें की तरह एक होकर स्व-संगठित हो जाते हैं। 

वास्तविक अर्थव्यवस्थाओं में पौधे बढ़ते हैं, मिट्टी में सूक्ष्मजीव बढ़ते हैं, बच्चे बढ़ते हैं। सभी का कल्याण होता है। सभी प्रसन्न होते हैं। 

चक्रीय अर्थव्यवस्था प्रकृति और समाज की भलाई करती है। यह सभी के लिए कल्याण का कारक बनती है। तब धरती की फिक्र होती है, समाज की चिंता होती है, जैव विविधता अर्थपूर्ण होती है, और सृजनात्मक कार्य संपन्न होते हैं। यह सब धरती को लौटाने के नियम पर आधारित होता है। 

धरती में कुछ भी अपषिष्ट नहीं तो कुछ भी प्रदूषण नहीं। 

चक्रीय अर्थव्यवस्था में स्वदेषी समुदाय एक ही जगह पर सदियों तक रह सकते हैं। भारत ने 5000 से अधिक वर्षों तक भूमि के एक छोटे से हिस्से पर ही खेती की। आस्ट्रेलिया के अदिवासियों ने 60 हजार साल तक इस महाद्वीप पर खेती की। जब आप धरती को अपने घर के रूप में देखते हैं, तो उसी जगह पर घर बना कर रह सकते हैं। 

मिट्टी, समाज और आर्थव्यवस्था 

लौटाने का नियम/लॉ ऑफ रिटर्न, पारस्पारिकता, उत्थान और पुर्नजीवन 

जिस तरह से विविधता से स्व-संगठित प्रणालियां विकसित होती हैं, उसी तरह से स्व-संगठित अर्थव्यवस्था भी विविधता से जी जन्म लेती है। हांलांकि, प्रकृति और समाज से रैखीय निष्कर्षण अर्थव्यवस्था के प्रतिमानों ने उत्पादन और खपत की प्रणालियों को बढ़ावा दिया है जो प्रकृति और सामाजिक दुनिया के लिए उत्तम नहीं रही है। 

आत्मनिर्भर जैविक भारत 
बीज स्वराज, अन्न स्वराज, ज्ञान स्वराज, आर्थिक स्वराज के आधार पर 

आत्मनिर्भर भारत की उत्पति अन्न के प्रति आत्मनिर्भर भारत से संभव है। अन्न स्वराज को बीज स्वराज, ज्ञान स्वराज, आर्थिक स्वराज से मजबूती मिलेगी। हमारे द्वारा बनाए गए रैखीय निष्कर्षण अर्थव्यवस्था, चक्रीय अर्थव्यवस्था और पुनर्योजी अर्थव्यवस्था जैव विविधता पर आधारित है। सांस्कृतिक विविधता लोगों की वास्तविक संपत्ति बनाने, सभी के कल्याण करने, सामुदायिक एकजुटता, सहयोग, दया को प्रगाढ़ करने के लिए है। हमें बीज स्वराज की रक्षा करने की आवष्यकता है। जैव विविधता संरक्षण अधिनियम परम्परागत जैविक संसाधनों और ज्ञान के उपयोग होने वाले लाभों के समान वितरण के लिए सहूलियत प्रदान करता है। भारत ने ऐसे कानून पारित किए हैं, जो कहते हैं कि बीज आविष्कार नहीं। और बीज पर पेटेंट नहीं किया जा सकता (पेटेंट अधिनियम 3 जे) ’’जैव संसाधनों से पौधे, जीव-जंतु और सूक्ष्म जीव या उनके भाग, वास्तविक या संभावित उपयोग या मूल्य सहित उनके आनुवांषिक पदार्थ और उप-उत्पाद (मूल्यवर्द्धित उत्पादों को छोड़कर) अभिप्रेरित हैं।’’ पौध प्रजाति सुरक्षा एवं किसान अधिकार अधिनियम 2001 का भाग-1 किसानों के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करता है- इस अधिनियम के तहत किसी किसान को किसी फसल प्रजाति के बीज को संरक्षित करने, खेती करने, उसे बचाने, उपयोग में लाने, फिर से बोने, आदान-प्रदान करने और बेचने का ठीक उसी तरह हकदार माना जाएगा जैसा कि वह पहले से इसका हकदार था।

(वंदना शिवा एक दार्शनिक, पर्यावरण कार्यकर्ता, पर्यावरण संबंधी नारी अधिकारवादी एवं कई पुस्तकों की लेखिका हैं।)

(जारी ...)

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