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भारतीय उच्च शिक्षा में सुधार की जरूरत

शिक्षा संस्थानों का पर्याप्त प्रसार हो और एक समर्थकारी परिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया जाए ताकि भविष्य के कार्यबल को अस्पष्ट नजरिए के साथ शिक्षित और प्रशिक्षित किया जा सके। - डॉ. जया कक्कड़

 

आबादी के मामले में भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है। बीते अप्रैल महीने में भारत की आबादी 142 करोड़ों का आंकड़ा पार कर गई। दुनिया की कामकाजी आबादी का छठवां हिस्सा अकेले भारत से है। दुनिया में 25 साल से कम उम्र के 20प्रतिशत लोग भारत में हैं।यह बड़ी आबादी एक ही समय में भारत के लिए वरदान भी है और अभिशाप भी है।स्किल इंडिया रिपोर्ट 2022 बताती है कि भारत में शिक्षित युवाओं में से केवल 48प्रतिशत ही रोजगार योग्य है। हमारे देश के विश्वविद्यालयों, कॉलेजों में जिस बड़ी संख्या में छात्र पास आउट कर बाहर निकलते हैं उसकी तुलना में रोजगार का अवसर बहुत ही कम है। डिग्रियां तो बेतहाशा बढ़ रही है लेकिन रोजगार अनुपात नहीं बढ़ता है। ऐसे में हम कह सकते हैं कि हमारे देश की उच्च शिक्षा आवश्यक रूप से कौशल प्रतिभा को विकसित नहीं कर पाती। पढ़े-लिखे युवाओं में कौशल ना होने के कारण न केवल सामाजिक, भावनात्मक और राजनीतिक कीमत चुकाने की बात आती है बल्कि भारी पैमाने पर आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। भारत का डिजिटल स्किल गैप जीडीपी वृद्धि में सबसे बड़ी बाधा लाता है। अनुमान है कि हर साल 23 प्रतिशत अंक की गिरावट का जोखिम बना हुआ है। पढ़े-लिखे युवक अगर रोजगार प्राप्त नहीं करेंगे तो देश को कोई आर्थिक लाभांश नहीं प्राप्त होगा। वहीं दूसरी तरफ वे नौजवान नकारात्मक दिशा की ओर भी भटक सकते हैं। बेरोजगारी की समस्या हमें सामाजिक अशांति की ओर भी ले जाती है। आज देश में युवकों के स्वयंभू सतर्कता समूहों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। ऐसे समूह समाज में व्यवस्था को बिगाड़ने के लिए अधिक जिम्मेदार होते हैं। आज देश में शिक्षा की खराब स्थिति और उसी तरह निराशाजनक स्वास्थ्य देखभाल और पोषण संबंधी नकारात्मक मामले को देखते हुए यही लगता है कि हमारे कर्ताधर्ता कल के कार्यबल में पर्याप्त निवेश नहीं करना चाहते हैं। जब तक देश के नौजवानों को शिक्षित प्रशिक्षित नहीं किया जाएगा हम आजादी का 75वां साल भले मना ले लेकिन अमृत काल नहीं आएगा।

भारत निश्चित रूप से एक युवा देश है जहां के 142 करोड़ लोगों में से लगभग 63 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम आयु की हैं। अमृत काल के लिए निर्धारित किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए युवाओं को अपना योगदान देना होगा। लेकिन युवा योगदान देने के लायक कैसे बनेंगे, यह बात हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों को गंभीरता से सोचने की जरूरत है। संख्या-बल का मतलब निश्चित रूप से गुणवत्ता से नहीं है। भारत में उच्च शिक्षा का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है।देश में लगभग 1000 से अधिक विश्वविद्यालय और 41000 से अधिक कॉलेज है। लेकिन इनमें से अधिकतर विश्वविद्यालय और कॉलेज मापदंडों  पर बहुत खराब प्रदर्शन करते हैं।

उच्च शिक्षा और शोध किसी राष्ट्र के विकास और प्रगति की रीढ़ होते हैं। यह अनायास नहीं है कि दुनिया के सभी विकसित राष्ट्रों में उच्च शिक्षा को लेकर सरकारी और नियामक संस्थाएं अत्यंत सजग हैं। दुर्भाग्य से भारत में उच्च शिक्षा की नियामक एजेंसी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और विभिन्न सरकारों का रवैया उच्च शिक्षा को लेकर बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है। वास्तव में भारत में उच्च शिक्षा प्रणाली की वर्तमान स्थिति जटिल और चुनौतीपूर्ण है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि स्वतंत्र भारत में उच्च शिक्षा का विस्तार व्यापक स्तर पर हुआ है, लेकिन क्या यह हमारे देश की उच्च शिक्षा छात्रों को जीवन दृष्टि देने में या उनकी भौतिक मानसिक आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सफल हुई है। हमारी शिक्षा व्यवस्था की चतुर्दिक समस्याओं में से उच्च शिक्षा की समस्या की तह में जाना ज्यादा जरूरी है। शिक्षा किसी देश के आर्थिक विकास की आधारशिला होती है।

देश में विद्यालय में पढ़ाई करने वाले 9 छात्रों में से एक छात्र ही कॉलेज पहुंच पाता है। उच्च शिक्षा हेतु पंजीकरण कराने वालों का अनुपात हमारे यहां दुनिया में सबसे कम 11 प्रतिशत है जबकि अमेरिका में यह 83 प्रतिशत है। संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत की शिक्षा व्यवस्था अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है लेकिन जहां तक गुणवत्ता की बात है तो दुनिया के शीर्ष विश्वविद्यालयों में भारतीय विश्वविद्यालयों की रैंकिंग काफी नीचे है। देश के कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से पाठ्यक्रम में कोई बदलाव नहीं किया गया है। पुराना पाठ्यक्रम और जमीनी हकीकत से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को मारने के लिए काफी है। आज शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का जितना खर्च होना चाहिए नहीं हो पा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में शोध पर 0.8 प्रतिशत खर्च हो रहा है। इसीलिए संख्यात्मक विकास के साथ गुणात्मक विकास वैसा कदमताल नहीं कर पाया है। कुछ विश्वविद्यालयों या कुछ नामी-गिरामी कालेजों को छोड़ दे तो गुणवत्ता के धरातल पर स्थिति निराशाजनक है। दुनिया के नक्शे में भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान एक तरह से गायब है। शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ प्रतिशत असामान्य हद तक बढ़ जाता है। संपूर्ण देश में छात्र शिक्षक अनुपात इतना असंतुलित है कि सोच कर ही भयावह लगता है। आईआईटी जैसे संस्थानों मे भी शिक्षकों की कमी है। क्षमताओं से कई गुना विद्यार्थी भर लिए लेकिन उनके लिए पठन-पाठन के जरूरी इंतजाम नहीं कर पाए। देश में सुधार हेतु कोठारी आयोग का गठन हुआ। रिपोर्ट भी आई लेकिन सब ठंडे बस्ते में रख दी गई। 1986 में नई शिक्षा नीति आई थी, इसी तरह 2020 में एक बार फिर नई शिक्षा नीति आई है लेकिन बड़ा सवाल यह है कि बदलते दौर में कोचिंग संस्थान पाठ्य पुस्तकों की बढ़ती कीमत डीम्ड विश्वविद्यालयों की बाढ़ और छात्रों में सिर्फ सरकारी नौकरी पाने की एक आम अवधारणा हमारी उच्च शिक्षा की चुनौतियों को और अधिक बढ़ा रहा है। उच्च शिक्षा की सर्व प्रमुख चुनौती है सभी प्रदेशों में एक समान शिक्षा नीति का ना होना भी है, हालांकि शिक्षा को समवर्ती सूची के अंतर्गत रखा गया और राज्यों पर कोई भी पाठ्यक्रम केंद्र द्वारा थोपा नहीं जा सकता लेकिन व्यवहार में देखा जाता है कि विश्वविद्यालयों में वही होता है जो यूजीसी अपने यहां बैठ करके तय करती है। हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों में पाठ्य सामग्री की कमी है आजादी के 75 वर्ष बीत जाने पर भी हमारी उच्च शिक्षा अभी भी मैकाले सिंड्रोम से ग्रस्त है।

हमारे शिक्षण संस्थानों में दूरदर्शिता गतिशीलता और प्रगतिशील नेतृत्व की कमी है। आज शिक्षण संस्थानों में स्वायत्तता पूर्वक नियुक्तियां भी नहीं की जा सकती। अधिकांश नियुक्तियां राजनीतिक निष्ठा को ध्यान में रखकर की जाती है। दिल्ली विश्वविद्यालय में हाल में हुई नियुक्तियां इन गड़बड़ियों की गवाह है। दूसरा नई शिक्षा नीति 2020 में बहुविषयक शिक्षा की कल्पना की गई है।लेकिन विडंबना यह है कि कॉलेज तो दूर की बात विश्वविद्यालयों को भी अपना पाठ्यक्रम निर्धारित करने की स्वतंत्रता नहीं है। तीसरा यह कि आर्थिक बाधाओं के कारण सभी की पहुंच उच्च शिक्षा तक नहीं है। आज निजी तौर पर वित्त पोषित संस्थानों की मौजूदगी बढ़ रही है। बेशक डिजिटल और ऑनलाइन सुविधाओं का प्रसार बीच का रास्ता बनता दिख रहा है लेकिन सरकार ने शिक्षा पर निवेश का वांछित लक्ष्य अब तक हासिल नहीं किया है। और चौथा जो सबसे जरूरी है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में शिक्षण और अनुसंधान को अलग कर दिया गया। जाहिर है कि जीवन के किसी भी क्षेत्र के लिए समस्याओं के समाधान हेतु आधुनिक शोध ही एकमात्र रास्ता है फिर भी संकाय के सदस्यों द्वारा उत्कृष्ट शोध की सराहना नहीं की जाती। ऐसे में जरूरी है कि शिक्षा संस्थानों का पर्याप्त प्रसार हो और एक समर्थकारी परिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया जाए ताकि भविष्य के कार्यबल को अस्पष्ट नजरिए के साथ शिक्षित और प्रशिक्षित किया जा सके।

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