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भारतीय राष्ट्रीय पंचांग तथ्य एवं व्यवहार

भारत में ब्रिटिष राज से पूर्व काल गणना के लिये सांवत्सर तथा चांद्र पंचांग दोनों प्रचलित थे। जन सामान्य के लिये चांद्र पंचांग अधिक सरल था क्योंकि चंद्रमा की स्थितियाॅं प्रतिदिन देखी जा सकती है और प्रचलित पंचांग की तिथियां वार आदि भी वैज्ञानिक धरातल पर सटीक थी। — डा. नन्द सिंह नरूका

 

जिस समय शेष विष्व सभ्यता के लिए अपनी आॅंख भी नहीं खोल पाया था उस समय भारत काल गणना मंे भी समृद्ध था। भारतीय मनीषियों ने काल को परिभाषित करने के लिए अथक परिश्रम किया। लम्बे समय तक अंग्रेजों का राज रहने के कारण भारत में प्रषासकीय व न्यायिक कार्यों के लिए ग्रेगोरियन कैलेंडर की काल तिथियां प्रचलित हो गयी। हालांकि जन सामान्य तब भी भारतीय पंचांग का ही दिन प्रतिदिन के कार्यों में उपयोग कर रहा था। देष की स्वतंत्रता के साथ लगा कि पूरे भारत में एक ही कैलेंडर हो जिसमें भारतीयों की अस्मिता व एकात्मता का दर्षन हो। तिथि के घट-बढ़ को लेकर भ्रम रहता था। देष के लिए एकीकृत कैलेंडर की आवष्यकता मानते हुए संसद ने नवम्बर, 1952 विज्ञान और प्रौद्योगिकी अनुसंधान परिषद् (सीएसआईआर) के अन्तगर्त एक कैलंेडर सुधार समिति का गठन किया। देष के प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री व खगोल विज्ञानी मेघनाद साहा इसके अध्यक्ष बनाये गये। 

पूर्व प्रचलित संवतों का विवेचन 

भारत में ब्रिटिष राज से पूर्व काल गणना के लिये सांवत्सर तथा चांद्र पंचांग दोनों प्रचलित थे। जन सामान्य के लिये चांद्र पंचांग अधिक सरल था क्योंकि चंद्रमा की स्थितियाॅं प्रतिदिन देखी जा सकती है और प्रचलित पंचांग की तिथियां वार आदि भी वैज्ञानिक धरातल पर सटीक थी। समिति के सदस्य जानते थे कि भारतीय मनीषियों ने बहुत ही महत्वपूर्ण खगोलीय जानकारिया प्राप्त कर ली थी। उनकी खोजों से स्पष्ट हुआ है कि - 

1. तिथिः सूर्य और चन्द्रमा की गति के अन्तर को तिथि कहते हैं। अमावस्या के बाद पूर्णिमा तक शुक्ल पक्ष होता है, इस पक्ष में चन्द्रमा की कला क्रमषः बढ़ती है। पन्द्रहवीं तिथि को पूर्ण कला युक्त चन्द्रमा होने से पूर्णिमा कहते हैं। पूर्णिमा के बाद अमावस्या तक कृष्ण पक्ष होता है, इस पक्ष में चन्द्रमा की कला क्रमषः घटती है। जिस तिथि को चन्द्रमा की कला बिल्कुल लुप्त हो जाती है उसे अमावस्या कहते हैं। हर पक्ष में 15 तिथियां होती है। तिथि सूर्य और चन्द्रमा की कोणीय स्थिति से निर्धारित की जाती है। जब सूर्य और चन्द्रमा दोनों पृथ्वी के एक ही ओर सीधी रेखा में स्थित होते हैं तब चन्द्रमा अस्त रहता है। इस समय अमावस्या होती है और जब सूर्य पृथ्वी के एक ओर और चन्द्रमा दूसरी ओर एक सीधी रेखा मंे स्थित होते हैं तब पूर्णिमा होती है। पृथ्वी को केन्द्र मानने पर सूर्य और चन्द्रमा की कोणीय दूरी (अर्धवृत) 180 अंष होने पर पूर्णिमा होती है। 180 अंष को 15 तिथियों मंे बराबर बांटने पर 12 अंष होते हैं। अतः एक तिथि में 12 अंष (डिग्री) चन्द्रमा चलता है तो एक तिथि होती है। एक मास में लगभग 30 तिथियां होती हैं। 15 तिथियां शुक्ल पक्ष की तथा 15 कृष्ण पक्ष की होती हैं। जिस दिन सूर्याेदय के समय चन्द्रमा जितने अंष आता है उस आधार पर तिथि मानी जाती है ऐसे में कभी कोई तिथि सूर्योदय के समय नहीं दिखती सुविधा के लिए उसे क्षयी मान लेते है और जब उस तिथि का समय अन्तराल अगले सूर्योदय के समय भी  रहता है तो उस तिथि को वृद्धि के रूप में मान लेते है जबकि वास्तव मंे सभी तिथिया बराबर अंषों की होती है। जो की वैज्ञानिक है। 

2. नक्षत्रः पृथ्वी के चारों ओर के गोलाकार अंतरिक्ष (360 अंष) में स्थित विभिन्न स्थिर पिण्ड दिखाई देते हैं जिन्हें नक्षत्र कहते हैं। वृत की परिधि को यदि 27 भागों में बांटा जाये तो एक हिस्से का कोणीय माप 13 अंष (डिग्री) तथा 20 कला होगा।  प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण (प्रत्येक 3 अंष व 20 कला) होते हैं।

3. राषिः 2-3 नक्षत्र मिलकर आकाषीय गोल में एक विषेष आकृति बनाते हैं। ऐसी 12 आकृतियाॅं बनती हैं जिन्हें राषि कहते हैं। आकाषीय गोल को बारह भागों में बांटने पर प्रत्यके भाग का कोणीय माप 30 अंष आता है। एक राषि मंे कुल नौ भाग होते हैं, अतः एक राषि का माप 30 अंष (सवा 2 नक्षत्र) है। पृथ्वी की धुरी परिक्रमा मार्ग पर के लम्ब से 23 अंष (डिग्री) 27 कला झुकी रहती है। सूर्य के चक्कर लगाने वाले ग्रहों के मार्ग एकदम गोलाकार नहीं हैं। इसीलिये इनकी गति भी हमेषा एक जैसी नहीं रहती, कभी धीमी व कभी तेज। अतः कोई ग्रह सभी राषि-क्षेत्रों में समान अवधि के लिये स्थित नहीं होते। चन्द्रमा एक राषि मंे 2.25 दिन रहता है। अतः तिथि का घटना बढ़ना व वर्ष में 12 माह होना वैज्ञानिक ही है।

4. योगः चन्द्रमा और सूर्य के भोग के जोड़ को योग कहते हैं। सूर्य प्रतिदिन लगभग 59 कला चलता है और चन्द्रमा लगभग 790 कला। दोनों द्वारा की गई दूरी 800 कला है तो एक योग पूरा हो जाता है ऐसे 27 योग है। 

5. करणः तिथि के आधे भाग के बराबर करण होता है, कुल मिलाकर ग्यारह करण हैं। 

उपर्युक्त पांचों तथ्य जिन काल कैलंेडरों में होते हैं उन्हें पंचांग कहते हैं। 

वारः सूर्याेदय से प्रारंभ होकर अगले सूर्योदय से पहले तक एक दिन व रात्री अहोरात्र समय का एक वार होता है जो लगभग 24 घण्टे होते हैं। 2.5 घटी का एक घण्टा (होरा), 2.5 पल का 1 मिनट व 2.5 विपल का 1 सैकण्ड होता है। सप्ताह में 7 दिन होना भी ग्रहों के नाम पर उनके पहले होरा (जिससे हाॅवर बने हैं) के आधार पर नाम दिये गये हैं। हमारे सौर मण्डल में सूर्य के सबसे समीप बुध है तथा उसके बाद शुक्र और पृथ्वी। पृथ्वी के बाद सूर्य से बढ़ती दूरी के क्रम मंे क्रमषः मंगल, गुरू और शनि आते हैं। चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक है। पृथ्वी के स्थान पर सूर्य को रखने पर होराओं का  क्रम-षनि, गुरू, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चन्द्रमा रहता है। एक-एक घण्टे का अधिपति 3 बार (21 होरा) आने के बाद 24वां होरा पूरा हो के 25वीं अर्थात् अगले दिन का प्रथम होरा जिस वार का होगा उस वार का नाम रखा जाता है। जो कि वार का नाम रखने का वैज्ञानिक आधार हैं। 

महीनाः उत्तर भारत में 2 पूर्णिमा के बीच के समय को एक महीना व दक्षिण भारत मंे 2 अमावस्या के बीच के समय को एक महीना माना जाता है। पूर्णिमा के दिन जो नक्षत्र होता है उसी के आधार पर माह के नाम है। वर्ष में ये पूर्णांक मं 12 बार ही आते हैं। अतः महिनों की संख्या 12 होती है। चित्रा नक्षत्र में पूर्णिमा आने के कारण उस मास का नाम चैत्र रखा ऐसे ही अन्य महीनों के नाम रखे गये हंै। विक्रम, शक व भारतीय पंचांग संवंत् में ये नाम रखे हैं। अतः महीनों के नाम रखना वैज्ञानिक धरातल पर खरे उतरे हैं। जबकि ग्रेगोरियन कैलेंडर के महीनों के नामों व संख्या का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। 

वर्षः पृथ्वी द्वारा सूर्य के एक चक्र लगाने में जो अवधि लगती है उसे वर्ष कहते हैं। ये सायन व र्निअयन दो प्रकार के हैं। सायन वर्ष, जिसमें पृथ्वी की परिधि को आधार माना जाता है, में वर्ष की अवधि 365.2422 दिन (365 दिवस 5 घण्टे 48 मिनट और 46 सैकण्ड) व र्निअयन वर्ष जिसमंे पृथ्वी के केन्द्र को आधार माना जाता है, में वर्ष की अवधि 365 दिन 6 घण्टे 9 मिनट 9.7 सेकण्ड के लगभग है, भारत में र्निअयन वर्ष से गणना करते हैं। र्निअयन वर्ष सायन वर्ष से करीब 20 मिनट 24 सेकण्ड बड़ा है। इस तरह करीब 72 वर्ष मंे एक दिन का अन्तर आ जाता है। चान्द वर्ष लगभग 29.5 दिन के माह के आधार पर 354 दिन का होता है। दिखने के अनुसार सूर्य प्रतिदिन एक अंष चलता है और लगभग 365 दिनों में आकाष की एक प्रदक्षिणा पूरी करता है। इसे सूर्य की आयनिक गति तथा भासमान मार्ग को आयनिक वृत्त ‘‘क्रांतिक वृत्त’’ कहा जाता है। दीर्घवृत पर परिक्रमा करती पृथ्वी का तल और अक्ष पर घूमती  पृथ्वी की धुरी के बीच समकोण न होकर 23 अंष 20 कला का कोण होता है। इस कारण आयनिक वृत्त और खगोलिय विषुव का वृत्त अलग अलग हैं और वे दोनों एक दूसरे को दो बिंदुओं पर काटते हैं। 22 मार्च व 23 सितम्बर को सूर्य इन बिंदुओं पर आता है, तब पृथ्वी पर दिनमान और रात्रिमान समान अर्थात् 12-12 घंटों के होते हैं। 22 मार्च को वसंत संपात तथा 23 सितम्बर को शरद संपात होते हैं। 

पंचांग व कैलेण्डर का आरंभ आधारः पाष्चात्यों के कैलेंडर का आरंभ वसंतसंपात से है व भारतीय पंचांग का आरंभ स्थान विषेष के सूर्याेदय से लिए जाता है इस कारण वसंतसंपात और हमारे आरंभ स्थान के बीच में जो अंतर है उसको ‘‘अयनांष’’ कहते हैं। जिस पंचांग मंे वसंतसंपात को आरम्भ स्थान माना जाता है उसको ‘‘सायन’’ पंचांग कहते हैं। इसके अतिरिक्त किसी और बिन्दु को आरम्भ स्थान माना जाता है उसको ‘‘र्निअयन’’ पंचांग कहते है। सौर माह के अनुसार सूर्य 12 राषियों में भ्रमण करता है। पहला माह मेष संक्रांति से प्रारम्भ। संक्रांति कोई 30 दिन की, कोई 31 दिन की और कोई 29 दिन की होती है। विक्रम और शक संवत् सौर चान्द्र संवंत् हैं। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होते हैं। सौर व चान्द्र में हर वर्ष लगभग 11.25 दिन का अन्तर आ जाता है। अतः लगभग 21 वर्षाें में आठ चान्द्र माह बढ़ जाते है। कभी कभी दो संक्रांति के बीच दो अमावस्या आ जाती है ऐसी स्थिति मंे उन दो अमावस्या के बीच का माह अधिक माह कहलाता है। इससे चान्द्र संवंत् व सौर संवत् के दिनों का सामजस्य स्थापित हो जाता है। सायन गणना के अनुसार प्रत्येक मास की 21 या 22 तारीख को संक्रांति बदलती है।  जबकि र्निअयन गणना के अनुसार 14, 15 या 16 तारीख को संक्रांति बदलती है। इस कारण मकर संक्रांति कभी 14 जनवरी तो कभी 15 जनवरी को आ रही है। 

समिति के सुझावः आजादी के समय भारत में लगभग 30 तरह के कैलंडेर/पंचांग प्रचलित थे। समिति को कुल 60 पंचांग और कईं सुझाव प्राप्त हुए। समिति ने पाया कि भारत में काल गणना में दृग्गणित को ही आधार माना है प्रत्यक्ष गणित को नहीं हालांकि इस में समय समय पर अनेक विद्वानों ने यथायोग्य सुधार किये हैं, जिनमें लोक मान्य तिलक, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, माधव चंद्र चट्टोपाध्याय, संपूर्णानंद, पंमदन मोहन मालवीय आदि का विषेष योगदान रहा है। सांवत्सरिक गणना में वसंतसंपात या विषुव, अर्थात् 22 मार्च सबसे महत्वपूर्ण है। अतः समिति ने राष्ट्रीय कैलेंडर मंे 22 मार्च से वर्ष आरम्भ होने को महत्व दिया है। 

आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय पंचांग या भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर संक्षिप्त नाम-भारांग, इस कैलंेडर को कैलेंडर सुधार समिति द्वारा जो शक संवत पर आधारित है, भारतीय पंचांग और समुद्री पंचांग के भाग के रूप मंे वर्ष 1955 में प्रस्तुत किया गया। गे्रगोरिन कैलंडेर में जिस प्रकार तिथियां स्थिर रहती है उसीे अनुरूप स्थिरता रखते हुए समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि- 

1. कैलेंडर का आधार शक संवत् 78 ईसवी से शुरू माना जावे। 

2. उसका पहला दिन गेग्रोरियन कैलंडेर के हिसाब से 22 मार्च 21 मार्च को सूर्य विषुवत रेखा पर ठीक सीधा चमकता है, से शुरू माना जावे। अधिवर्ष में इसकी शुरूआत 21 मार्च को हो। 

3. चैत्र इस कैलेंडर का पहला और फाल्गुन आखिरी महीना हो। 

समिति की सिफारिष को संसद द्वारा अधिकारिक रूप में और ग्रेगोरियन कैलंेडर के साथ-साथ 22 मार्च 1957 चैत्र 1, 1879 से अपनाया गया। 

शक संवत् को शालिवाहन संवत् भी कहा जाता है। चैत्र भारतीय राष्ट्रीय पंचांग का प्रथम माह होता है। सरकार के आदेषानुसार -

1. सभी भारतीय गजेटों में पहले भारतीय दिनांक को व उसके साथ अंग्रेजी तारीख को भी प्रिंट किया जाएगा। 

2. आकाषवाणी पर और अब दूरदर्षन पर भी दिनांक की घोषणा में भारतीय व अंग्रेजी दोनों तिथियों की घोषणा होगी। 

3. सरकारी कैलेंडर पर भारतीय मिती को बडे़ व अंग्रेजी तारीखों को छोटे आकार में प्रदर्षित किया जाएगा। 

व्यवहारिक उपयोगिताः आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय पंचांग से बहुत से भ्रम उत्पन्न हो रहे है जो मेरी नजर में निम्नानुसार है - 

1. शक संवत् गुड़ी पड़वा से शुरू होता है जो चैत्र शुक्ल एकम है जबकि आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय पंचांग 22 मार्च माना गया है, इस कारण शक संवत् के प्रारम्भ होने के वर्ष मंे हमेषा भिन्नता प्रतीत होती है। भारतीय राष्ट्रीय पंचांग के वर्ष के प्रारम्भ का सही संकेत नहीं। 

2. शक संवत् जो कि ईस्वी सन् के बाद में प्रारम्भ हुआ है, उसको आधार बनाना यह दर्षाता है कि हम अंग्रेजों रोम मानसिकता वालों के बाद से काल निर्धारण करना सीखे थे। 

3. चैत्र आदि भारतीय महीनों से चंद्रमा की स्थिति, पूर्णिमा, अमावस्या आदि की जानकारी हो जाती है जबकि आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय पंचांग के चैत्र आदि महिनों से सम्भव नहीं है। 

4. चैत्र वैषाख आदि महीनों के नाम इन नक्षत्रों पर पूर्णिमा आने के आधार पर दिये गये हैं जबकि आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय पंचांग के चैत्र आदि नाम इन माहों कि निकटता के आधार पर रखे गये है।

5. पृथ्वी के केन्द्र को आधार मानकर दृक् गणित र्निअयन गणना से पृथ्वी द्वारा सूर्य के परिक्रमा के अनुरूप नक्षत्रों के समहू के रूप में सौर मास मेष वृष आदि संक्रांतियों के रूप में महिनों के नाम प्रचलित थे तो फिर चैत्र आदि नाम देना सौर मास को भी भ्रमित करते हैं। 

6. ग्रेगोरियन कैलेंडर में महीनों कि संख्या व उसके दिनों की संख्या का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होने पर भी आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय पंचांग को उसके समकक्ष रखने तथा लीप वर्ष मानना उचित नहीं लगता जबकि इससे सटीक गणना पूर्व से ही भारतीय पंचांगों में सूर्य के अमुक राषि में अंष कला के रूप मंे व्यक्त की गई है। 

7. आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय पंचांग के आधार पर न तो भारत मंे स्थित किसी धर्म सम्प्रदाय के उत्सव, त्यौहार, जयन्तियां मनाई जाती है और न ही राष्ट्रीय अन्तर्राष्टीय दिवस/उत्सव ही, और न ही सूर्य पर आधारित संक्रांतिया लोहड़ी, वैषाखी, पूंगल आदि सूर्य पर आधारित उत्सव। 

8. आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय पंचांग से यह भी नहीं ज्ञात होता है कि किसी एक निष्चित तिथि को सूर्य व चन्द्र ग्रहण आयेगा। 

9. अभी भी भारतीय कलेण्डरों में अंग्रेजी तारीखों को मोटे एवं भारतीय तिथियों को छोटे रूप में दिखाया जा रहा है, जो सरकार के आदेषानुसार नहीं है। 

सुझावः भारत में पूर्व से ही अनेक सटीक काल गणनाओं के पंचांग प्रचलित है उनमें से कुछ सूर्य पृथ्वी के संबंध से तो कुछ पृथ्वी चन्द्रमा के साथ-साथ सूर्य से संबंध बिठाकर। हमारे राष्ट्र का स्वाभिमान बना रहे अतः भारत में प्रचलित पंचांगों को मान्यता देकर जैसे हिन्दी के साथ-साथ अन्ये राज्यों की भाषाओं को मान्यता है उसी प्रकार एक से अधिक पंचांगों को मान्यता मिले अथवा युगाब्द काल गणना जो कि गेग्रोरियन कैलेंडर से प्राचीन है, को भारतीय राष्ट्रीय पंचांग की मान्यता मिल जाये। अथवा प्रचलित संक्रांतियों के महीनों (मेष वृष आदि) के आधार पर भारतीय राष्ट्रीय पंचांग के महीनों के नाम व प्रारम्भ तिथियां संषोधित कर लिया जाये तो कुछ व्यवहारिक हो जायेगा।           

डा. नन्द सिंह नरूकाः पूर्व अध्यक्ष, राजस्थान कर्मचारी चयन बोर्ड, जयपुर।

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