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आत्मनिर्भर बीज स्वराज और अन्न स्वराज की ओर भारत-3

जैविक खेती, स्थानीयता और एकजुटता वाली अर्थव्यवस्था के आधार पर 
आत्मनिर्भर बीज स्वराज और अन्न स्वराज की ओर भारत

सहभागिता आधारित स्थानीय जैव पंचायतो के सृजन से लोगों और उनके समुदायों की देखभाल हो सकेगी और समाज के अंतिम व्यक्ति के अधिकारों को संरक्षण मिल सकेगा। ताकि सर्वोदय हो और सभी का भला हो। सर्वे भवंतु सुखिनः! सभी सुखी रहें! — डॉ. वंदना शिवा

 

(पिछले अंक से आगे ..)

(आर्थिक संप्रभुताः श्रृंखलाबद्ध अर्थव्यवस्था से घुमावदार अर्थव्यवस्था तक)

करोना महामारी के बाद अर्थव्यवस्था के नवीनीकरण और सुधारों को प्राप्त करने के लिए हमें एक जटिल व स्वीकृत अर्थव्यवस्था से बाहर निकलकर जिसने संसाधनों के लालच और व्यर्थ के उपयोग को बढ़ावा दिया और साथ ही अन्याय, असमानता और अस्थिरता को भी बढ़ावा दिया। इसको छोड़कर हमें प्रकृति मनुष्य और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा, जिससे किसानों और उत्पादकों को उनका उचित हिस्सा मिलेगा और अन्याय व असमानता दूर होगी -

हमें प्रतिस्पर्धा से आपसी सहयोग की तरफ बढ़ने की आवश्यकता है ताकि अलगाव और विखंडन को छोड़ हम अपनी ग्रामीण व स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत कर सके। हमारी सांस्कृतिक विविधता और जैविक विविधता का भी इसमें इतना ही योगदान है, इसलिए चाहे किसान हो, कारीगर हो या फुटकर विक्रेता, सब उपभोक्ताओं से जुड़े हुए हैं। अर्थव्यवस्था का यह गोलाकर चक्र छोटे स्तर से शुरू होकर बड़े स्तर तक अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है।

(कॉरपोरेट बीज नियंत्रण से बाहर निकलकर बीज संप्रभुता तक)

अन्न की मूल इकाई बीज है। स्वदेशी बीज उच्च उपज वाली किस्मों की तुलना में बहुत अधिक पोषणवाली होती है, क्योंकि इन्हें कम पानी की आवश्यकता होती है और अधिक कीट और रोग प्रतिरोधक और जलवायु प्रतिरोधी होती है। लेकिन एसवाईवी बीज रसायनयुक्त और पोषणमुक्त होते हैं एवं यह विषाक्तता पैदा करने वाले रोगों से भरे होते हैं। जीएमओ के बीज जहरीले थे जो जीएमओ बीटी कपास को नियंत्रित करने में असफल रहे और साथ ही इसकी वजह से हजारों किसान जो कर्ज में डूबे हुए थे उन सबने आत्महत्या कर ली। हमें स्थानीय बीज बैंक बनाने की आवश्यकता है ताकि हम किसानों के बीज उत्पादक समूह को संरक्षण प्रदान कर सके एवं बीजों को सही मात्रा में वितरित कर सकें। हमारे कानून भी बीज संप्रभुता की रक्षा करते हैं। जैसे कि भारतीय पेटेंट अधिनियम का अनुच्छेद-3 यह स्पष्ट करता है कि पौधे जानवर और बीज अविष्कारक नहीं है। अतः इस पर पेटेंट नहीं लग सकता। बौद्ध विविधता संरक्षण और किसान अधिकार अधिनियम का अनुच्छेद-39 यह स्पष्ट करता है कि एक किसान को अपने खेत की उपज को बचाने, उपयोग करने, बोने, आदान-प्रदान करने और साझा करने या बेचने का हकदार माना जाएगा। इस अधिनियम के तहत संरक्षित एक किस्म का बीज भी उसी तरह से है जितना यह कानून लागू होने से पहले उसके हक में था।

(औद्योगिक कृषि के जहरीले रसायन से प्राकृतिक कृषि तक)

बीज और रसायनों के लिए हमें कॉरपोरेट निर्भरता से मुक्त होने की आवश्यकता है। क्योंकि यह कंपनियां किसानों को कर्ज में धकेलने और उन्हें खेती से विस्थापन करने को मजबूर कर देती हैं। हमारी स्वदेशी कृषि जैव विविधता के कानून पर आधारित है। यह जैविक कृषि पारिस्थितिक चक्रों को और प्रक्रियाओं को बेहतर बनाती है एवं आजीविका और खाद की प्रणालियों को पुनर्जीवित करके स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान देती है। जैविक कृषि कीट और खरपतवारों को नियंत्रित कर मिट्टी और पानी का संरक्षण करते हैं एवं वातावरण से अधिक कार्बन- डाईऑक्साइड बाहर कर जलवायु को शुद्ध करते हैं एवं प्रोटीन सहित स्वस्थ पौष्टिक भोजन उपलब्ध करवाते हैं, क्योंकि जैविक कृषि से मिट्टी की उर्वरता में सुधार आता है।

(मोनोकल्चर से बहुफसलीकरण तक)

प्रति एकड़ उत्पादन के बजाय प्रति एकड़ स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित कर रासायनिक फसलों के मोनोकल्चर को छोड़कर हमें जैव विविधता से पोषणयुक्त फसलों की तरफ बढ़ना चाहिए। क्योंकि मोनोकल्चर की स्थिति एक भ्रामक तर्क से प्रेरित है जो लाभ पर काम करता है, पोषणयुक्त भोजन पर नहीं। इसके लिए धन प्रति एकड़ मायने रखता है। जिसमें किसानों को गरीबों और ऋणी छोड़ दिया जाता है और सामूहिक स्वास्थ्य को भी नजरअंदाज किया जाता है। महंगे रसायनों पर अनावश्यक खर्च को रोककर फसलों के उत्पादन में विविधता लानी होगी, जिससे किसानों को फायदा हो सके। भारत में यह कथन है कि ‘अन्नदाता सुख भाग’ भोजन के प्रदाता प्रसन्न हो सकते हैं। आयुर्वेद में भी स्पष्ट लिखा है कि ‘अन्नम सर्व औषधी’ अन्न सबसे अच्छी दवा है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि सामाजिक और पारिस्थितिक और स्वास्थ्य को संदर्भ में यह मोनोकल्चर सिर्फ और सिर्फ उत्पादन के विस्तार की बात करता है। इसलिए हमारी आवश्यकता है कि हम इसमें उपज के साथ पोषण और स्वास्थ्य और देखभाल को भी शामिल करें।

(औद्योगिक प्रसंस्करण से जैव विविधता और स्वस्थ खाद्य प्रणाली तक) 

औद्योगिक खाद्य प्रसंस्करण से उत्पन्न हुई समस्याओं जैसे बेरोजगारी और पुरानी बीमारियों के संकटों से बाहर आने के लिए हमें खाद्य जैसे गेहूं धान दालों और खाद्य तेलों (जैसे सरसों, अलसी तेल मूंगफली) के प्रसंस्करण को पुनः तैयार करने की आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक से अधिक स्वस्थ भोजन का उत्पादन करना और खाद्य संस्करण के माध्यम से नई जीविका के अवसर पैदा करना, ताकि अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सके।

(औपनिवेशिक मनोवृति से निकलकर असली ज्ञान की संप्रभुता तक)

औपनिवेशिक काल में कृषि पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। कृषि को भोजन से और भोजन को स्वास्थ्य और पोषण से अलग कर दिया गया था, जिसकी जड़ें आज भी मौजूद है। जिसने वस्तुओं के मोनोकल्चर को बढ़ावा दिया और पृथ्वी, किसानों और हमारे स्वास्थ्य को नष्ट किया। दुनिया में कई देश कृषि से जुड़े हैं लेकिन आज कई देशों में औद्योगिकरण कृषि को विस्थापित कर दिया है। लेकिन भारत में पृथ्वी की देखभाल पर आधारित कृषि विज्ञान है और आज भी यहां कृषि की महत्वता है, जितनी पहले थी। इसलिए हमें ज्ञान संप्रभुता को पुनः प्राप्त करने की आवश्यकता है ताकि हम भोजन को स्वास्थ्य से जोड़ सके और बीमारियों को रोक सके। एस.एस.एस.आई. कानून और मानक उन खाद्य उद्योग कंपनियों द्वारा दिए गए हैं जो हमारी कारीगर अर्थव्यवस्थाओं को नष्ट करके अपना मुख्य लक्ष्य स्थापित करते हैं। देसी खाद्य पदार्थ हमारे पूर्वजों और दादी द्वारा हमारे स्वास्थ्य कल्याण के लिए विकसित किए गए हैं। ऐसे समय में जहां प्रयोगशाला में नकली भोजन बनाकर उस पर वैध कानून की मान्यता डाल दी जा रही है, हमें यह समझना होगा कि यह एक नए खाद्य साम्राज्यवाद की पहल है जिसमें हमें यह नहीं पता कि हम क्या खा रहे हैं। इसका उत्पादन कैसे हुआ? इसका विपरीत प्रभाव हमारे किसानों, समाज एवं  स्वास्थ्य पर पड़ता है।

लालच और लाभ से संचालित खाद्य और कृषि प्रणालियां जो गरीबी, भूख और बेरोजगारी का निर्माण करती हैं, से लेकर लोगों के स्वास्थ्य व उनके अधिकारों का सम्मान करने वाली कृषि प्रणाली औद्योगिक व स्वीकृत कार्य प्रणाली ने हमें गरीबी, भूख और बेरोजगारी दी है। पर हमें एकजुट होकर स्थानीय जीविका और स्थानीय ग्रामीण आर्थिकी को मजबूत करना है। जिससे प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षण मिले एवं उनके उपयोग को स्थान मिले। सभी के कल्याण के आधार पर स्वस्थ भोजन और संपन्नता लाई जा सके, क्योंकि अमीर और शक्तिशाली उद्योगपति ऐसे अर्थव्यवस्थाओं की योजना बनाते हैं जहां प्रयोगशाला में नकली भोजन से बाजार में मुद्रा कमाई जाती है। अतः गोलाकार अर्थव्यवस्था में हस्तशिल्प को बढ़ावा देकर हम कृषि में जैव विविधता आधारित आजीविका पुनः उत्पन्न कर सकते हैं।

(कारपोरेट नियंत्रण से स्थानीय लोकतंत्र तक)

अन्न संप्रभुता आज पूरी दुनिया में स्वीकृत है। जहां हम क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं, इसका फैसला चंद पूंजीपतियों द्वारा किया जा रहा है जो केवल अपने लाभ को देख रहे हैं। यह लाभकारी व्यवस्थाएं भूख, बेरोजगारी और गरीबी को बढ़ावा देती है एवं हमारे संवैधानिक अधिकारों एवं लोकतंत्र को कमजोर करती हैं जिसमें इनका फायदा होता है। अतः हमारे भोजन और कृषि, हमारी पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए एवं जनकल्याण को प्राप्त करने के लिए हमें अपने लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। क्योंकि असली लोकतंत्र में विकास सदैव नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता है। हिंद स्वराज, ग्राम स्वराज से, पृथ्वी के नागरिक पृथ्वी से एवं अपने कर्तव्यों के प्रति और समाज के प्रति अपने अधिकारों जैसे भोजन, स्वास्थ्य, कार्य और स्वतंत्रता के प्रति जागरूक हैं। प्रेम वर्मा ने गांधी को याद दिलाते हुए कहा है कि ग्राम स्वराज का केंद्र बिंदु भारत की जनता की भूख और बेरोजगारी से मुक्ति है। महात्मा गांधी की तरह जयप्रकाश नारायण ने भी यही कहा था कि समुदाय की अर्थव्यवस्था यथासंभव आत्मनिर्भर होनी चाहिए। उन्होंने कहा था कि समुदाय की प्राथमिक चिंता अपने सदस्यों की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना है, इसलिए आवश्यक है कि हर व्यक्ति को भोजन, वस्त्र, आश्रय और अन्य आवश्यक वस्तुएं प्राप्त हो। यह देखना भी समुदाय की जिम्मेदारी है कि प्रत्येक सक्षम व्यक्ति को एक उपयोगी रोजगार प्राप्त हो सके। स्वास्थ्य जीवन की एक बहुमूल्य संपत्ति है। स्वस्थ भोजन व्यक्ति के विकास के लिए बहुत जरूरी है  और यह बहुत से अंतर को भी दूर कर देता है। इसलिए उपभोक्ता सही विकल्प चुनते हैं तो वह अपनी पृथ्वी, किसान और उनके स्वास्थ्य के लिए एक जागरूक विकल्प सिद्ध होता है। जब हम देखभाल और  एकजुटता का निवेश करते हैं तो हम पृथ्वी और उसकी जैव विविधता और हमारे स्वास्थ्य और सभी की भलाई को पुनः प्राप्त करते हैं। 

मुख्य रूप से अन्न निर्भर भारत और अन्न स्वराज को लाने के लिए 9 पदीय कार्य - 

1. सुधारों की तरफ लौटें और कॉर्पोरेट निर्मित वैश्वीकरण पर लगाम लगायें, जिसने खेती, भोजन, बीमारी और बेरोजगारी के संकट पैदा किए हैं। 

2. जैव विविधता को बढ़ावा दें और उसका संरक्षण करें। एकल फसली खेती को रोकें। विविधता युक्त खेती प्रति एकड़ अधिक भोजन और ज्यादा पोशण देती है। और जलवायु की सीमाओं को ठुकराकर आर्थिक नुकसान से बचाती हैं। 

3. बीज स्वराज की रक्षा करें और इसे संरक्षण देने वाले कानून का पालन करें। 

4. बीज और रसायनों के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर ना रहें, ये कंपनियां किसानों को कर्ज में धकेलने और उन्हें खेती से विस्थापन करने को मजबूर कर देती हैं। 

5. धरती की देखभाल, किसानों की अर्थव्यस्था और लोगों की स्वास्थ्य रक्षा हेतु रासायनिक मुक्त जैविक खेती को बढ़ावा दें। 

6. प्रति एकड़ उत्पादन की जगह प्रति एकड़ स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करें। प्रति एकड़ स्वास्थ्य का फार्मूला हमें धरती की देखभाल करना सिखाता है और साथ में हमें धरती से गुणवत्तायुक्त भोजन-पोषण और स्वास्थ्य मिलता है। 

7. धन निकासी वाली अर्थव्यवस्था युक्त खेती के कॉर्पोरेट मॉडल से बाहर निकलें। यह मॉडल किसानों को गरीबी में घसीटकर उनकी आजीविका को छीन लेता है और उनकी बेकदरी करता है। 

8. स्थानीय आजीविका और स्थानीय ग्रामीण आर्थिकी को मजबूत करने वाली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दें, जिससे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के साथ उपयोग को स्थान मिले, स्थानीय उत्पाद और हस्तशिल्प का नव-सृजन हो, पारिस्थितिक सौहार्द बढ़े और धरती की देखभाल को प्राथमिकता मिले। 

9. सहभागिता आधारित स्थानीय जैव पंचायतो के सृजन से लोगों और उनके समुदायों की देखभाल हो सकेगी और समाज के अंतिम व्यक्ति के अधिकारों को संरक्षण मिल सकेगा। ताकि सर्वोदय हो और सभी का भला हो। सर्वे भवंतु सुखिनः! सभी सुखी रहें!

समाप्त

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