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जल प्रबंधन के लिए जरूरी है अतीत से सबक 

हमें प्रकृति को बाधित करने की वजह इसकी प्रणालीगत अखंडता का सम्मान करना चाहिए। हमें उचित जल प्रबंधन सहित स्थाई समाधान और सामुदायिक जुड़ाव को लागू करने के लिए अपने गौरवशाली अतीत से उचित सबक लेने की जरूरत है। — डॉ. जया कक्कर

 

भारत में शासन की चेतना प्राचीन काल से ही अस्तित्व में रही है। उपनिषदों का सुझाव है कि दुनिया में पांच तत्व होते हैं- पृथ्वी, जल, प्रकाश, वायु और आकाश।  प्रकृति इन घटकों और मनुष्यों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश करती है। किसी भी घटक में एक निश्चित सीमा से अधिक की गड़बड़ी प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ देती है और बदले में जीवित प्राणियों को प्रभावित करती है। आज जो कुछ भी असामान्य दिख रहा है वह इसी असंतुलन का नतीजा है। ऐसे में हम अतीत से सीख लेकर अपने भविष्य को सुरक्षित, संरक्षित कर सकते हैं।

वर्ष 2013 में गढ़वाल क्षेत्र में भारी प्राकृतिक तबाही हुई थी। कोसी नदी ने अपना मार्ग बदला तो बिहार के कुछ नदी के किनारे के गांव जलमग्न हो गए। प्राचीन काल में हड़प्पा सभ्यता का हृस हो गया। राजस्थान की चारागाह वाली भूमि थार रेगिस्तान में बदल गई। ऐसी तमाम क्षतियों के लिए एक सीधा सा स्पष्टीकरण क्या हो सकता है? मौटे तौर पर हम कह सकते हैं कि वनों की कटाई या बस्तियों द्वारा नदी के किनारे के अतिक्रमण के कारण नदियों के मार्ग में परिवर्तन हो गया, जिससे विशिष्ट क्षेत्र का पर्यावरण संतुलन बिगड़ गया। यह स्पष्ट रूप से मनुष्यों, उसकी बस्ती और क्षेत्र की परिस्थितिकी के बीच संबंधों को दर्शाता है। दोनों परस्पर एक दूसरे पर आश्रित हैं।

पर्यावरण से तात्पर्य उन परिस्थितियों से है जिसमें विभिन्न जीव सह अस्तित्व के साथ रहते हैं और कार्य करते हैं। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) कहता है कि पर्यावरण में जल, वायु और भूमि में अंतर्संबंध है, जो जल, वायु और भूमि तथा मनुष्यों, अन्य जातियों प्राणियों, पौधों, सूक्ष्मजीवों और संपत्ति के बीच मौजूद हैं। मनुष्य और प्रकृति के बीच की बातचीत को मौटे तौर पर पारिस्थितिकी कहा जाता है। जब मानवीय कार्यों या प्रकृति की शक्तियों के कारण पारिस्थितिकी का संतुलन बिगड़ जाता है तो पर्यावरण के समक्ष संकट उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए मानव की जरूरतों और पानी जैसे संसाधनों की उपलब्धता के बीच बेमेल संकट की ओर ले जाता है। यह अस्थाई या स्थायी परिवर्तनों में परिणत होता है। बादशाह अकबर ने फतेहपुर सीकरी में एक नई राजधानी बनाने का फैसला किया था, जो एक पठार पर स्थित था। इसलिए इसकी पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक कृत्रिम झील बनाई गई। हालांकि कमजोर और शतक जलापूर्ति व्यवस्था के कारण जल्द ही यह सारा बंदोबस्त छोड़ना पड़ा।

पर्यावरण का अध्ययन करने से हमें अंतर्निहित कारणों को समझने में मदद मिलती है। परिस्थितिकी तंत्र में एक सामंजस्य पूर्ण संतुलन कैसे प्राप्त किया जा सकता है इसके लिए दृष्टि प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए पानी के पुनर्वितरण या संरक्षण करके पानी के तनाव को कम किया जा सकता है। दिल्ली में पानी असमान रूप से वितरित किया जाता है। केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय ने शहरी परिवारों के लिए 135 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 55 लीटर का सुझाव दिया है। हालांकि कुछ क्षेत्रों में पाइप के पानी की अनुपलब्धता के कारण लोग अभी भी टैंकरों पर निर्भर है, जबकि कुछ समृद्ध कालोनियों में 24ग7 पानी की आपूर्ति की उपलब्धता 443 लीटर के बराबर है। बेशक पीने योग्य पानी की निर्धारित 230 लीटर की औसत खपत का लक्ष्य हासिल करने के लिए दिल्ली सरकार के पास कच्चा पानी उपलब्ध नहीं है, लेकिन पानी का असमान वितरण ता ेहै।

दूसरी और वर्षा के नए पैटर्न के कारण जल प्रणाली पूरी तरह विफल हो जाती है। कुछ ही समय की भारी बारिश के बाद सड़कें, अंडरपास, बाईपास, व्यस्त चौराहे सब पानी से भर जाते हैं। जलभराव के लिए अनियोजित शहरीकरण और आर्द भूमि पर निर्माण जिम्मेवार है। लेकिन एक सच यह भी है कि दिल्ली चार दशक पुराने जल निकासी व्यवस्था पर आज भी चल रही है। यह केवल 50 मिलीमीटर वर्षा को सहने की क्षमता रखती है। इससे थोड़ी भी ज्यादा बरसात हो जाए तो सारी प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाती है।

दिलचस्प और विडंबना यह है कि भारत दुनिया में सबसे अधिक पानी की कमी वाले देशों में से एक है। एक अनुमान के मुताबिक 2030 तक लगभग 20 शहरों में भूजल खत्म होने की संभावना है। दुनिया की 18 प्रतिशत से अधिक आबादी वाला देश भारत संयुक्त राष्ट्र के जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों में से 120वें स्थान पर है। इस समस्या का एक समाधान सूक्ष्म और वृहद स्तर पर वर्षा के जल संचयन से हो सकता है। जब पानी का अति प्रवाह होता है तो हमें इसे स्टोर करने या भूजल को रिजर्व करने के लिए उपयोग करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए दिल्ली, एनसीआर में चरम मौसम की स्थिति के कारण गर्मी की प्रचंडता और बरसात की गंभीरता देखी जाती है। जल निकायों का निर्माण इस समस्या को कुछ हद तक हल कर सकता है।

इतिहास साक्षी है कि सिंधु नदी की धारा में बदलाव के कारण सिंधु घाटी की सभ्यता अस्थिर हो गई। गंभीर जल संकट के कारण फतेहपुर सीकरी का विचार जल्दी ही मृतप्राय हो गया। दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में गंगा जमुना के दोआब में भयंकर सूखा पड़ा था। हालांकि पुराना समाज चीजों को लेकर अत्यधिक जागरूक भले नहीं था लेकिन प्रकृति और मानव की गतिविधियों के बीच एक स्वस्थ संतुलन बनाने का प्रयास हमारे पूर्वजों ने हमेशा किया। हम अपने अतीत के तरीकों और प्रथाओं का पालन करके पानी की कमी के मुद्दे को आज पूरी तरह से हल कर सकते हैं। प्राचीन ज्ञान निश्चित रूप से इस मुद्दे पर समझदारी से निपटने में हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। कहा जा सकता है कि पश्चिमी प्रथाओं पर बहुत अधिक निर्भरता के कारण हम इन बुनियादी मुद्दों से धीरे-धीरे कटते गए और समस्याएं धीरे-धीरे विकराल होती गई। 27 जुलाई 2021 को गुजरात के कच्छ के रण में धोलावीरा को यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में रखा गया है। नगर नियोजन के इस उत्कृष्ट उदाहरण से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

यहां प्राचीन जल प्रबंधन प्रणाली के आधार पर चीजें विकसित की गई है, जिसमें दो मानसून चैनलों के माध्यम से निर्मित नाला और जलाशयों की एक कैस्केडिंग प्रणाली शामिल थी। घरों में सेप्टिक टैंक थे, महल में एक धमनी नाली से जुड़े नालियों का एक नेटवर्क था जो भूमिगत था, इन नालियों में ताजा पानी जमा होता था। न तो सीवेज और न ही घरेलू कचरा, और न ही घर की नालियों से जुड़े होते थे। इन नालों का उद्देश्य निश्चित रूप से मानसून को बह जाने देना था। यही कारण है कि इन नालों में थोड़े अंतराल पर वायु नलिकाएं होती थी। पूरी प्रणाली सक्त अनुपात के साथ सावधानीपूर्वक और परिष्कृत योजना को दर्शाती है। इसी तर्ज पर धोलावीरा को तैयार किया गया है, जिसे यूनेस्को ने मान्यता दी है।

संक्षेप में भारतीय स्थापत्य परंपराएं जलवायु लचीलापन के लिए सबक रखती हैं। हमारे ऐतिहासिक उदाहरण गुजरात और राजस्थान में बावडियों से लेकर पूरे भारत में मंदिर के तालाबों तक दिखते हैं कि कैसे अतीत में समाजों ने पर्यावरणीय बाधाओं को लिया और फिर अभिनव समाधानों के साथ प्रतिक्रिया दी। इस तरह के समाधान मोनो फंक्शनल नहीं थे, जिस तरह से हम आज बुनियादी ढांचे का निर्माण करते हैं। पुलों और फ्लाईओवर शहरों से होकर गुजरते हैं, लेकिन केवल एक सीमित उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। प्राचीन समय की संरचनाएं एक से अधिक कार्य करती थी। उन्होंने संसाधनों का संरक्षण किया तथा इसके लिए लोगों को भी जोड़ा। आज की वास्तुकला हमें विनाश की ओर धकेल देती है, हमें इसे बदलना होगा। हमें प्रकृति को बाधित करने की वजह इसकी प्रणालीगत अखंडता का सम्मान करना चाहिए। हमें उचित जल प्रबंधन सहित स्थाई समाधान और सामुदायिक जुड़ाव को लागू करने के लिए अपने गौरवशाली अतीत से उचित सबक लेने की जरूरत है।      

डॉ. जया कक्कड़ श्याम लाल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास, संस्कृति और पर्यावरण की अध्यापिका हैं।

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