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लोकतांत्रिक विरोध की सीमाएं तय होनी चाहिए

किसानों के नाम पर अराजकता तथा देश विरोधी ताकतों से सख्ती से निपटा निपटा जाए ताकि किसी को भी नीतिगत विरोध के नाम पर अव्यवस्था फैलाने की छूट ना मिल सके। साथ ही साथ लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाले किसानों की जायज मांगों पर भी सरकार को ध्यान देना चाहिए। — दुलीचन्द कालीरमन

 

कृषि सुधारों की दिशा में संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानून के विरोध में किसान आंदोलन ने हमें एक बार फिर नागरिकता संबंधी कानूनों के खिलाफ दिल्ली में फैली अराजकता को याद दिला दिया है। यहां हमें यह भी ध्यान में आता है कि सामान्य जन को झूठ वह अतार्किकता के बल पर कितना भड़काया जा सकता है। समाज और देश विरोधी ताकतें अपनी कुंठित कुटिल चालों में सफल अभी हो जाती हैं। कुछ देश विरोधी ताकतों के अजेंडे छुपे हुए होते हो सकते हैं लेकिन जब मुख्य धारा के प्रमुख राजनीतिक दल इस प्रकार की स्थिति का लाभ उठाने की कोशिश करते हैं तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उन दलों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।

किसान आंदोलन को लेकर एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि यह कानून जल्दबाजी में लाया गया। जबकि सच्चाई यह है कि संसद द्वारा पारित तीनों कृषि कानून विधेयकों को पारित करने के लिए वर्ष 2003 से ही प्रयास चल रहे थे। अलग-अलग समय में किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत, शरद पवार, प्रकाश सिंह बादल सहित अन्य नेता किसानों को बाजार से  जोड़ने की हिमायत कर रहे थे। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी ने तो इस बारे में वर्ष 2019 के अपने चुनावी घोषणा पत्र में इन कृषि सुधारों के बारे में लिखा भी था। इन कृषि कानूनों का विरोध भी क्षेत्रीय राजनीति से प्रेरित है। अन्यथा महाराष्ट्र के किसानों का एक बड़े संगठन “शेतकरी संगठन“ तथा हरियाणा के प्रगतिशील किसानों ने इन बिलों का स्वागत तथा समर्थन किया है।

किसान आंदोलन की शुरुआत का मुख्य कारण पंजाब की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता रही। विपक्षी सिरोमणि अकाली दल तथा कांग्रेस की सरकार किसानों की नाराजगी का लाभ लेने के लिए लगातार किसान विरोध को हवा देती रही लेकिन बाद में यह आंदोलन उनके हाथ से निकल कर कुछ मार्क्सवादी व माओवादी विचारधारा समर्थित नेताओं के हाथों में आ गया। इसका उदाहरण किसानों के संयुक्त मोर्चे द्वारा सौंपे गए मांग पत्र में देश विरोधी गतिविधियों में शामिल नक्सल समर्थकों की रिहाई की मांग रखी गई। बाद में दिल्ली बॉर्डर पर किसान यूनियनों के मंच पर टुकड़े-टुकड़े गैंग तथा दिल्ली दंगों के आरोपियों के समर्थन में नारे भी लगाए गए।

जन आंदोलन के पीछे  के षड्यंत्र को धार्मिक रंग देने के लिए खालीस्तान समर्थक तत्वों ने अपने अजंडे चलाने का प्रयास किया। भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित संगठन “सिख फॉर जस्टिस“ के समर्थकों ने वाशिंगटन, लंदन तथा कनाडा के कई शहरों में रैलियां निकाली तथा भारत विरोधी नारे लगाए,। ब्रिटेन की संसद में एक सिख सांसद द्वारा इस मुद्दे को उठाया गया। यह सभी भारत की छवि को बिगाड़ने तथा खालिस्तानी विचारधारा को किसान आंदोलन की आड़ में आगे बढ़ाने का प्रयास है।

कनाडा के राष्ट्रपति जस्टिन ट्रूडो ने भी इस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया दी। जो केवल कनाडा में सिखों के राजनीतिक प्रभाव का लाभ लेने के लिए थी। यह भी सर्वविदित है कि विश्व व्यापार संगठन में कनाडा भारत द्वारा कृषि क्षेत्र में किसानों को दी जा रही सब्सिडी का लगातार विरोध करता रहा है। भारत सरकार ने कनाडा सरकार द्वारा दी गई प्रतिक्रिया को अनुचित बताया है। जिससे द्विपक्षीय रिश्ते पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है।

किसानों को लेकर वर्तमान सरकार हमेशा संवेदनशील रही है। कोरोना काल में किसानों के खाते में “किसान सम्मान निधि“ देकर किसानों की आय बढ़ाने का कार्य किया है। इसके अलावा किसानों को यूरिया की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए यूरिया पर नीम लेपन  किया गया जिससे कृषि क्षेत्र के अलावा दूसरे क्षेत्रों में उसका दुरुपयोग रोका जा सके। फसल बीमा योजना किसानों के लिए चलाई गई।

वर्तमान कानूनों से सबसे अधिक डर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से ही है। सरकार ने किसानों के इस डर को दूर करने के लिए प्रयास किया है तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर सरकार लिखित में आश्वासन देने के लिए तैयार है। स्वदेशी जागरण मंचने भी किसान हित में न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानून बनाने की वकालत की है ताकि किसानों की आय सुनिश्चित की जा सके। इसके साथ ही नए कृषि क़ानूनों से किसानों की जमीन के मालिकाना हक पर कोई भी विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। सरकार द्वारा कई बार साफ किया जा चुका है कि अनुबंध में कृषि उपज का अनुबंध होगा ना कि किसान की भूमि का। किसी भी कंपनी से विवाद की स्थिति में उपमंडल अधिकारी के साथ-साथ किसान चाहे तो दीवानी अदालत में मामला ले जा सकता है। सरकार इस प्रावधान को जोड़ने के लिए भी सहमत लगती है।

लेकिन वामपंथी विचारधारा से प्रेरित किसान संगठन के नेताओं द्वारा सरकार के प्रति किसानों के अविश्वास को और बढ़ाया जा रहा है। तीनों कानूनों को वापस लेने की मांग पर अड़े रहने के अड़ियल रवैए के कारण दिल्ली तथा आसपास के लोगों की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं। माना कि विरोध लोकतांत्रिक नागरिक अधिकार है। लेकिन लोकतांत्रिक विरोध और अराजकता में हमें अंतरकरना होगा। अगर अपनी मांगों को लेकर किसान सरकार से  विरोध है तो इसके कारण दिल्ली को बंधक बना लेना कहां की समझदारी है? अगर किसानों के लोकतांत्रिक अधिकार हैं तो दिल्ली के निवासियों के भी अपने मानवाधिकार तथा मूल अधिकार हैं। आप विरोध के नाम पर सड़कों को लंबे समय तक अवरुद्ध नहीं कर सकते। न्यायपालिका को भी इस दिशा में संज्ञान लेकर लोकतांत्रिक विरोध की कुछ सीमाएं तय करनी चाहिए।

लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई बहुमत की सरकार द्वारा किसानों के हित में बनाए गए कानूनों का विरोध तथा अराजकता की हद तक अड़ियल रवैया कभी भी न्याय संगत नहीं हो सकता। बाकी देश के किसान जो इन क़ानूनों से लाभान्वित होने वाले हैं उनके हकों को महज कुछ राजनीतिक स्वार्थों के लिए बलि नहीं चढ़ाया जा सकता।

यह  सभी जानते हैं कि मंडियों में आढ़तियों तथा बिचौलियों द्वारा सामान्य व छोटे किसानों  का कई प्रकार से शोषण किया जाता है। वर्तमान कानून किसानों का एपीएमसी मंडियों से अलग भी अपनी फसल को बेचने के मौके प्रदान करेंगे। भारतीय राजनीतिक दलों को भी इतना परिपक्व होना पड़ेगा कि अगर आप किसी सिद्धांत या नीति से सहमत नहीं है तो तार्किक तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ ही उसे सुलझाना होगा। किसानों के नाम पर अराजकता तथा देश विरोधी ताकतों से सख्ती से निपटा निपटा जाए ताकि किसी को भी नीतिगत विरोध के नाम पर अव्यवस्था फैलाने की छूट ना मिल सके। साथ ही साथ लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाले किसानों की जायज मांगों पर भी सरकार को ध्यान देना चाहिए।

 

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