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अब एमएसपी पर तनातनी

कानूनी तौर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य उचित है या नहीं, का विवाद बढ़ता ही जा रहा है लेकिन औसत किसान की आय बढ़ाने के पक्ष में दिए जा रहे तर्कों को बिल्कुल भी खारिज नहीं किया जा सकता। — केके श्रीवास्तव

 

ऐसे दो तथ्य हैं जो अकाट्य हैं। एक, खेती से होने वाली आय कृषक परिवारों की बुनियादी सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है। दूसरा, देश के प्रधानमंत्री ने किसानों को एमएसपी उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया है। मौजूदा बहस एमएसपी को वैध करने को लेकर है। यह थोड़ा हैरान करने वाला प्रतीत होता है। सरकार एक ऐसी नीति का प्रदर्शन करती है जिसे कानूनी रूप से लागू करने में उसे शर्म आती है। एमएसपी वह न्यूनतम मूल्य है जिस पर सरकार द्वारा किसानों से खाद्यान्न की खरीद की जाती है। लगभग 900 मिलियन कृषि आय पर निर्भर भारतीयों के लिए एमएसपी एक जीवन रेखा की तरह है। इसे साठ के दशक में हरित क्रांति के दौरान किसानों को खाद्य फसलें उगाने के लिए, प्रोत्साहित करने के लिए पेश किया गया था। वर्तमान शासन में किसानों से अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी एमएसपी में शामिल 23 फसलें सरकार द्वारा तय एमएसपी पर बेचें, लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है। सरकार सबसे ज्यादा खरीद गेहूं और धान की करती है। केंद्र की सरकार वर्तमान में अनाज, दलहन, तिलहन और चार वाणिज्य फसलों सहित 23 फसलों के एमएसपी की घोषणा की है। एमएसपी तकनीकी रूप से सभी खेती लागतों पर न्यूनतम 50 प्रतिशत रिटर्न सुनिश्चित करता है, पर व्यवहार में ऐसा होता नहीं है। फसल के समय किसानों द्वारा वास्तव में प्राप्त की गई, राशि आधिकारिक तौर पर घोषित एमएसपी से काफी कम होती है, जिन्हें अधिकार के रूप में नहीं मांगा जा सकता, क्योंकि यह कानूनी रूप से अभी लागू नहीं है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 4 हेक्टेयर तक के ज्योत वाले 62 प्रतिशत किसानों को एमएसपी की जानकारी ही नहीं थी। बाकी लोगों के जागरूक होने पर भी उनका केवल एक छोटा सा हिस्सा ही एमएसपी पर अपना उत्पाद बेच पाया। छोटी जोत वाले किसानों को एमएसपी का कोई लाभ नहीं मिलता। ऐसे में क्या किसानों की आजीविका के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानूनी रूप से आश्वासन नहीं दिया जाना चाहिए?

मुक्त बाजार मूल्य के समर्थक भारत में बहुत है, लेकिन वह भारत में कृषि बाजारों की अनूठी प्रकृति की अनदेखी करते हैं। वह संकट बिक्री की अवधारणा की उपेक्षा करते हैं। मालूम हो कि मुक्त बाजार मूल्य निर्धारण में पश्चिमी देशों के किसानों को खेती से बाहर कर दिया है (खाद्य आपूर्ति उत्पादन से शुरू होकर कारपोरेट द्वारा ले लिया गया है) जनसंख्या के कम दबाव के कारण वहां के किसान अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में आसानी से समा गए थे, लेकिन किसानों की बड़ी आबादी वाले भारत में इस तरह की बात संभव नहीं है।

एमएसपी को 3 तरीके से लागू किया जा सकता है। लेकिन इसके पहले हम देखते हैं कि कानूनी रूप से गारंटीशुदा एमएससी के विरोधियों का क्या कहना है। विरोधियों के मुताबिक घोषित एमएसपी पर खुली खरीद भारत के किसानों के लिए विनाशकारी साबित होगी, यह फसल के पैटर्न को विकृत करेगी और दुर्लभ संसाधनों की बर्बादी को बढ़ावा देगी। यह एमएसपी समर्थित फसल उगाने वाले किसानों और अन्य के बीच भेदभाव पैदा करेगी, भुगतान बकाया होगा, इसलिए अदालतों में कानूनी पचड़े भी बढ़ेंगे।

बाजार में विश्वास करने वालों के अनुसार एक कार्यशील बाजार विनिमय की सुविधा देता है और विनिमय उत्पादों की मांग और आपूर्ति के संतुलन स्तर को निर्धारित करता है, एक दक्षता सुनिश्चित करता है, जो मूल्य प्रतिस्पर्धा के कारण आगे भी फैलती है। इन बाजार अधिवक्ताओं के अनुसार निश्चित कीमतों की एक प्रणाली इस तरह के लाभ को खारिज कर देगी। इसके अलावा हम कृषि को सब्सिडी नहीं देने के विश्व व्यापार संगठन के आदेश से बाहर हो जाएंगे। हमारा कृषि निर्यात अप्रतिस्पर्धी हो जाएगा, यदि एमएसपी कानूनी रूप से अनिवार्य है तो एमएसपी के खिलाफ इस तरह के तर्कों की सूची अंतहीन है। लेकिन क्या यह मानने लायक है? यह सुनिश्चित करने के लिए यह एमएसपी के खिलाफ हैं न कि केवल कानूनी रूप से अनिवार्य एमएसपी के खिलाफ। लेकिन सरकार ने कभी नहीं कहा कि एमएसपी खत्म कर दिया जाएगा, जो विवादास्पद है, वह है इसका कानूनी समर्थन।

अब हम आते हैं एमएसपी सुनिश्चित करने के तीन अलग-अलग तरीकों पर। सबसे पहले निजी व्यापारियों और प्रोसेसर को गन्ने के मामले में एमएसपी का भुगतान करने के लिए मजबूर किया जा सकता है। यहां मिलों को एफआरपी उचित और लाभकारी मूल्य का भुगतान करना होता है। दूसरा सरकार खुद एमएसपी पर खरीद करती है। जैसे, चावल, धान, गेहूं, कपास आदि। लेकिन यहां एमएसपी कार्यालय में केवल 4 फसलों के लिए प्रभावी रहा है। आंशिक रूप से कुछ में और कई में तो बिल्कुल ही नहीं। सच्चाई है कि पशुधन और बागवानी उत्पादों में कागज पर भी एमएसपी नहीं है। इस प्रकार 23 एमएसपी फसलें एक साथ मूल्य के हिसाब से कृषि उत्पादन का केवल एक तिहाई हिस्सा ही है और तीसरा, मूल्य की कमी के भुगतान के माध्यम से एमएसपी की गारंटी दी जा सकती है, जिससे किसानों को एमएसपी और कटाई के मौसम के दौरान विशेष फसल के औसत बाजार मूल्य के बीच अंतर का भुगतान किया जाता है। कृषि कानूनों पर उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त समिति के सदस्य अनिल धनवत का कहना है कि वह सैद्धांतिक रूप से एमएसपी का विरोध नहीं करते लेकिन इसका इस्तेमाल तभी किया जाना चाहिए जब यह राष्ट्रीय उद्देश्य की पूर्ति करता हो।

हरीश दामोदरन के एक अनुमान के अनुसार लगभग चार लाख करोड़ रुपए मूल्य की उपज पर एमएसपी पहले से ही लागू है 23 एमएसपी फसलों के संपूर्ण विपणन योग्य अधिशेष के लिए कानूनी गारंटी प्रदान करने का अर्थ होगा कि अन्य 5 लाख करोड रुपए के जरिए इसको कवर करना लेकिन हमें यहां यह याद रखना चाहिए कि सरकार बिक्री से राजस्व अर्जित करेगी, जिससे खरीद की कुछ लागत की भरपाई भी होगी। दूसरा, जब सरकार एमएसपी पर पर्याप्त खरीदती है तो बाजार की कीमत बढ़ जाएगी। इसलिए एमएसपी पर 100 फ़ीसदी तक खरीदारी करने की जरूरत नहीं है। 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार केवल 6 प्रतिशत किसान परिवार सरकार को एमएसपी दरों पर गेहूं और चावल बेचते हैं।

दरअसल इमेज ठीक करने के लिए कानूनी गारंटी के पूरे मामले की गलत व्याख्या की जा रही है। एमएसपी का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि सरकार हर किसी से (ओपन-एन्डेड प्रोक्योरमेंट) सब कुछ खरीदती है। कीमतों की गिरावट की स्थिति में सरकार को बाजारों में हस्तक्षेप करने की जरूरत है। किसान उचित आय के हकदार हैं। खासकर जीवन और आजीविका के संवैधानिक मौलिक अधिकार की पृष्ठभूमि में। यदि एमएसपी को वैध बनाने वाला कानून यह सुनिश्चित करता है तो ऐसा होना ही चाहिए। व्यवहारिक तौर पर अगर सरकार हस्तक्षेप करती है और कुल उत्पादन का एक चौथाई भी खरीद लेती है तो यह बाजार को स्थिर कर देगी। इसके अलावा सभी फसलें हर समय एमएसपी से नीचे नहीं बिकेंगी। बाजार आधारित कीमतों के पक्षधर नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद का कहना है कि अगर एमएसपी को कानूनी मंजूरी किसानों को वास्तविक भुगतान सुनिश्चित करती है तो किसी भी सरकार के लिए किसानों को वांछित मूल्य प्राप्त करने में मदद करने का यह सबसे आसान तरीका होगा। हालांकि उनके मुताबिक यह राज्य स्तर पर ही किया जा सकता है। इसके अलावा भी एक तरीका है कि एमएसपी और बाजार मूल्य के बीच मूल्य अंतर का भुगतान कर किसानों को सुरक्षा दी जा सकती है। प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण पर भी विचार किया जा सकता है। किसानों को केंद्रीय  एजेंसियों द्वारा भौतिक खरीद के बजाय गोदाम रसीदों का व्यापार करने की अनुमति दी जा सकती है, इससे गोदामों में निवेश को प्रोत्साहित करने का अतिरिक्त लाभ होगा। आज जरूरत एमएसपी का भुगतान करने का नहीं बल्कि यह सुनिश्चित करने का होना चाहिए कि एमएसपी उत्पाद का न्यूनतम मूल्य बन जाए।

वास्तव में आज एमएसपी और पीडीएस को एक साथ बढ़ाने की जरूरत है क्योंकि एमएसपी का संचालन तभी टिकाऊ हो सकता है, जब खरीदी गई फसलों को पीडीएस के माध्यम से  अधिकाधिक वितरित किया जाए। ऐसा करने से पीडीएस के अधिकारों का विस्तार होगा तथा गरीबी भी काफी हद तक कम होगी। नीति आयोग के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक भारत का चौथाई हिस्सा आज भी गरीबी से पीड़ित है। वहीं ऐसे साक्ष्य मौजूद हैं जो बताते हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली और मध्यांतर भोजन योजना से गरीबी में उल्लेखनीय कमी आई है, इन परिस्थितियों में हमें देखना है कि कौन जीतता है, बाजार दक्षता या इक्विटी?

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