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स्कूली शिक्षा की सुदृढ़ता के लिए एक देश एक पाठ्यक्रम अनिवार्य

अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार व राज्य सरकारों में एक वैचारिक विभिन्नता समाप्त हो तथा केंद्र सरकार व राज्य सरकारें मिलकर एक पाठ्यक्रम के विचार को अपने यहां लागू करें जिससे कम से कम भविष्य में आने वाली छात्रों की पीढ़ी को तो इस प्रकार का खामियाजा नहीं भुगतना पड़े। — डाॅ. सूर्य प्रकाश अग्रवाल

 

किसी भी देष में बच्चों के लिए स्कूली षिक्षा बहुत महत्वपूर्ण होती है तथा इसकी सुदृढ़ता के लिए भी पर्याप्त प्रयास किए जाने चाहिए। भारत के विभिन्न राज्यों में अपने-अपने षिक्षा बोर्ड हैं जो कक्षा 6 से 12 तक की षिक्षा पर ध्यान देते हैं। केंद्र सरकार भी केंद्रीय माध्यमिक षिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) और इंडियन सर्टिफिकेट ऑफ सेकेंडरी एजुकेषन (आईसीएसई) के षिक्षा बोर्ड हैं। केंद्र सरकार के आईसीएसई में मात्र अंग्रेजी माध्यम से पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है तथा सीबीएसई के स्कूलों में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रषिक्षण परिषद (एनसीआरटी) का पाठ्यक्रम लागू होता है। देष के 5 प्रतिशत से भी कम बच्चों को केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित इन दोनों बोर्ड़ो के पाठ्यक्रमों की षिक्षा उपलब्ध हो पाती है।

राज्यों में अपने अपने माध्यमिक षिक्षा बोर्ड ओपन व संस्कृत बोर्ड तथा मदरसा बोर्ड इत्यादि भी काम करते हैं। इन सब में आपसी प्रतिस्पर्धा भी होती है। परन्तु जब इन से षिक्षा प्राप्त किए हुए छात्र नौकरियों के साक्षात्कार के लिए जाते हैं तो वहां साक्षात्कारकर्ता अपरिहार्य कारणों से उनको निम्न व उच्च समझ लेते हैं। इस प्रतिक्रिया के लिए संबंधित छात्र कतई दोषी नहीं है। उसको जहां नजदीक के स्कूल में प्रवेष मिला वहीं उसने अपनी षिक्षा संपन्न कर ली। इस बात को देखते हुए केंद्र सरकार के द्वारा घोषित नई षिक्षा नीति में सभी स्कूलों की षिक्षा पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली में एकरूपता की बात कही गई है क्योंकि भारत में एक आम धारणा बन चुकी है कि केंद्र सरकार के दो बोर्डांे से षिक्षा प्राप्त किए हुए देष के 5 प्रतिशत से कम छात्र अधिक श्रेष्ठ समझे जाते हैं तथा अन्य 95 प्रतिशत छात्रों को निम्न स्तर समझा जाता हैं जबकि देष के सभी बच्चों को षिक्षा की एक संवैधानिक गारंटी दी हुई है परंतु 5 व 95 प्रतिशत का यह एक भेदभाव देखा जा रहा है। यह देश की एक व्यवस्था की कमी है जिसका खामियाजा निरीह छात्र भुगत रहे हैं। 95 प्रतिशत छात्र भी कड़ी मेहनत करके षिक्षा ग्रहण कर रहे हैं परंतु फिर भी उनको निम्नतर स्तर का समझा जाता हैं।

देष में स्कूली षिक्षा व संगठन में सरकारी व निजी स्वामित्व भी देखा जा रहा है जिससे सरकारी स्कूलों में षिक्षा ग्रहण किए हुए छात्रों को निम्नस्तर का समझा जा रहा है और निजी स्वामित्व वाले स्कूलों में अपनी श्रेष्ठता के कारण अधिक शुल्क वसूली का एक बहाना भी उपलब्ध होता है। समाज में भी दो वर्ग बन जाते हैं। एक वर्ग सरकारी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण किया हुआ छात्र और दूसरी तरफ निजी स्वामित्व वाले स्कूलों में शिक्षा ग्रहण किया हुआ छात्र। इन दोनों वर्गों में भी प्रतियोगिता, वैमनस्यता तथा ईष्र्या का भाव उत्पन्न हो जाता है। केंद्र सरकार को चाहिए कि इस भेदात्मक षिक्षा नीति का उन्मूलन कर संपूर्ण देष के सभी बच्चों को प्रतिस्पर्धा में एक समान मंच उपलब्ध करवाना केंद्र सरकार व राज्य सरकारों का एक पवित्र दायित्व बन जाता है क्योंकि कुछ राज्यों के अथवा कुछ बोर्ड़ों से षिक्षा ग्रहण किए हुए बच्चों को उच्च व कुछ को निम्न समझा जाए।

देष में लगभग 25,000 निजी स्कूल हैं जो सीबीएसई से मान्यता प्राप्त है तथा केंद्रीय विद्यालय संगठन 1200 से अधिक स्कूलों का संचालन 25 क्षेत्रीय कार्यालयों के माध्यम से करता है। देष के प्रत्येक जिले में लगभग 700 नवोदय विद्यालय भी इसी के अनुसार चल रहे हैं। इसके अनुरूप ही केंद्र सरकार के द्वारा एकलव्य आवासीय विद्यालय व कन्या आश्रमषालाओं को स्थापित किया गया है। राज्य सरकारें भी अब यह मानने लगे हैं कि उनकी षिक्षा प्रणाली भी केंद्र सरकार के बोर्डो के अनुरूप ही होनी चाहिए। तभी मध्य प्रदेष की सरकार ने अपने लगभग 2,000 सरकारी स्कूलों को मुख्यमंत्री राइज योजना के अंतर्गत केंद्रीय विद्यालय के अनुरूप बनाया है। महाराष्ट्र सरकार ने भी अपने सभी सरकारी स्कूलों में सीबीएसई प्रणाली से चलाने की नीति बनाई है।

धीरे-धीरे ही सही देष की विभिन्न राज्य सरकारें यह मानने लगी है कि केंद्रीय बोर्ड बेहतर हैं क्योंकि उच्च षिक्षा के लिए विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेष लेने वालों में सीबीएसई तथा आईसीएसई के छात्रों का प्रतिषत बढ़ता जा रहा है। दिल्ली सरकार मानती है कि सीबीएसई से षिक्षा प्राप्त बच्चे का मुकाबला अन्य राज्यों के बोर्डों से षिक्षा प्राप्त किये हुए छात्र नहीं कर पाते हैं। अब यह महसूस किया जाने लगा है कि राज्यों के बोर्डाेें की तुलना में केंद्र सरकार के बोर्ड अच्छे हैं तभी हर खाता पीता व संपन्न परिवारों के बच्चे केंद्र सरकार के बोर्ड से षिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। विभिन्न राजनेताओं, उद्योगपतियों व अधिकारियों आदि के बच्चे राज्यों के माध्यमिक बोर्डेां से षिक्षा ग्रहण करने से दूर भाग रहे हैं। स्वतंत्रता के 75 वर्षों में राज्यों के बोर्ड सर्वव्यापी, गुणवत्तापूर्ण व समावेषी षिक्षा लागू करने में स्वयं को असफल मान रहे हैं। राज्यों की शिक्षा नीति की इस असफलता से जीवन में असफल होने वाली छात्रों की पीढ़ी इसका खामियाजा भुगत रही है।

अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार व राज्य सरकारों में एक वैचारिक विभिन्नता समाप्त हो तथा केंद्र सरकार व राज्य सरकारें मिलकर एक पाठ्यक्रम के विचार को अपने यहां लागू करें जिससे कम से कम भविष्य में आने वाली छात्रों की पीढ़ी को तो इस प्रकार का खामियाजा नहीं भुगतना पड़े।

सीबीएसई प्रणाली को अधिक गुणवत्तापूर्ण, समावेषी व सर्वव्यापकता के साथ प्रत्येक राज्य में लागू करना चाहिए जिसकी पहल केंद्र सरकार को करनी चाहिए। स्थानीय आधार पर वहां के रीति रिवाज व परिस्थितियों के अनुसार उनके पाठ्यक्रमों को सीबीएसई के पाठ्यक्रमों में मात्र 10 से 20 प्रतिशत ही जोड़ा जा सकता हो। देश भर में पाठ्यक्रम में एकरूपता से जहां बच्चों के दिमाग में राष्ट्रवाद व भारतीयता सर्वोच्च हो सकेगी वहीं भारत बोध, स्वत्व तथा स्थानीयता की भावना भी आ सकेगी। एक देष एक पाठ्यक्रम लागू हो सकता है तथा यह राज्यों के अपने-अपने बोर्डोंें के अनुसार भी लागू हो सकता है। इस तरह से बोर्ड परीक्षा आयोजित करने वाली संस्थाएं बनाई जा सकती हैं क्योंकि संपूर्ण देष में एक बोर्ड तकनीकी रूप से संभव नहीं हो सकता है जबकि एक पाठ्यक्रम संभव हो सकता है। एक पाठ्यक्रम से जहां देष के प्रत्येक कोने के बच्चों में एकरूपता, समानता तथा सामाजिक न्याय का भाव जागृत होगा वहीं षिक्षा क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम भी लागू होगा तथा स्वतंत्रता के 75 वर्षों में जो एक भारी कमी षिक्षा क्षेत्र में देखी जा रही थी वह भी दूर हो सकेगी। एक बच्चे की गतिषीलता भी बढ़ सकेगी। अपने अभिभावक के स्थानांतरण से किसी बच्चे की पढ़ाई भी बदल नहीं सकेगी। बच्चा देश में कहीं भी जाकर अपनी उसी कक्षा में प्रवेष प्राप्त कर सकेगा। इन राज्यों के बोर्डो से षिक्षा प्राप्त छात्र भी नौकरी के लिए साक्षात्कार देते समय साक्षात्कारकर्ताओं के उच्च व नीच दृष्टिकोण का भी भागी नहीं बन सकेगा जिससे भविष्य की पीढ़ियों का विकास व उत्कर्ष भी संभव हो सकेगा। स्कूली षिक्षा भी सुदृढ़ता को प्राप्त कर सकेगी जिससे देष का आर्थिक व सामाजिक विकास संभव हो सकेगा।

डाॅ. सूर्य प्रकाश अग्रवाल सनातन धर्म महाविद्यालय मुजफ्फरनगर 251001 (उ.प्र.), के वाणिज्य संकाय के संकायाध्यक्ष व ऐसोसियेट प्रोफेसर के पद से व महाविद्यालय के प्राचार्य पद से अवकाश प्राप्त हैं तथा स्वतंत्र लेखक व टिप्पणीकार है।

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