धरती को बचाने के लिए गंभीर प्रयास की जरूरत
इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान में बिगड़े जलवायु के लिए विकसित दुनिया दोषी है, लेकिन विकासशील देश प्रमुखता से इस बात को अंतरराष्ट्रीय मंचों से न उठाते हुए अपनी जिम्मेदारियों से बच रहे हैं। — केके श्रीवास्तव
एक बड़ा सवाल उठना लाजमी है कि शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य आखिर कैसे हासिल होगा? पर्यावरण के बिगड़ते मिजाज एवं जलवायु परिवर्तन के घातक परिणामों ने जीवन को जटिल बना दिया है। गौरतलब है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए विकसित देशों को गरीब मुल्कों की मदद करनी थी, इसके लिए 2009 में एक समझौता भी हुआ था जिसके तहत अमीर देशों को हर साल 100 अरब डालर विकासशील देशों को देने थे, परंतु विकसित देश इससे पीछे हट गए। इससे कार्बन उत्सर्जन कम करने की मुहिम को भारी धक्का लगा। इसलिए अब समय आ गया है जब विकसित देश इस बात को समझें कि जब तक वह विकासशील देशों को मदद नहीं देंगे, तो कैसे ये देश अपने यहां ऊर्जा संबंधी नए विकल्पों पर काम शुरू कर पाएंगे?
वर्ष 1990 से 2018 के बीच का उत्सर्जन स्तर
(मिलियन टर्न से ब्व्2 समतुल्य)
1990 2018
विश्व 32646 48940
यू.एस. 5543 5794
चीन 2874 11706
भारत 1009 3347
वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् की चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले दशकों में विश्व का तापमान और बढ़ेगा। इसलिए अगर दुनिया अभी नहीं सचेत होगी तो 21वीं सदी को भयानक आपदाओं से कोई नहीं बचा पाएगा। रोम में संपन्न हुए जी-20 सम्मेलन में सभी देश धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस कम करने पर राजी हुए हैं। इसके अलावा उत्सर्जन को नियंत्रण करने के लिए तथ्य निर्धारित किए गए हैं। जी-20 ने तो शताब्दी के मध्य तक कार्बन न्यूट्रिलिटी तक पहुंचने का वादा भी किया है। सम्मेलन में भी भारत की रणनीति धनी देशों पर 100 अरब डालर की आर्थिक सहायता और खाद्य तकनीक के हस्तांतरण पर दबाव बनाने की रही है। अमीर देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य विकासशील देश और गरीब देशों पर थोपने में लगे हैं। अमेरिका, चीन और ब्रिटेन जैसे देश भी कोयले से चलने वाली बिजली घरों को बंद नहीं कर पा रहे, इसलिए यह चिंता बढ़ गई है कि सम्मेलन से ठीक पहले इटली में समूह के नेताओं की बैठक में सदस्य देशों के नेता इस बात पर तो सहमत हो गए कि वैश्विक तापमान डेढ़ डिग्री से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है, पर 2050 तक कार्बन उत्सर्जन शून्य करने को लेकर कोई सहमति नहीं बन पाई।
प्रतिकूल जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सामूहिक कार्रवाई करने के लिए देशों को प्रेरित करने वाली वार्षिक जलवायु बैठकों के बावजूद संकट लगातार बढ़ता जा रहा है, क्योंकि इसके लिए जमीनी स्तर पर की गई कार्रवाई की मात्रा अपेक्षा और प्रतिबद्धता से बहुत ही कम है। अब तक घोषित प्रतिबद्धताओं को पूरी तरह से पूरा भी किया जाता है (जिसकी संभावना न के बराबर है), तो भी औसत तापमान 2.7 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जाएगा। यह पूर्व औद्योगिक युग से परे 2 डिग्री वृद्धि के पेरिस समझौते के लक्ष्य का उल्लंघन करता है। आईपीसीसी के अनुसार इसके विनाशकारी परिणाम होंगे। इस लक्ष्य को पाने के लिए 30 प्रतिशत की कटौती की आवश्यकता है जबकि वर्तमान परिदृश्य से यह साफ हो रहा है कि वर्ष 2030 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में वार्षिक केवल 7.5 प्रतिशत की ही कमी आएगी। मौजूदा रफ्तार को देखते हुए लगने लगा है कि पृथ्वी के 2.7 डिग्री तक गर्म होने की संभावना दो तिहाई के अनुपात से भी अधिक है, क्योंकि बहुत बार आर्थिक और विदेश नीति की अनिवार्यता पर्यावरणीय चिंताओं पर हावी हो जाती है। इसलिए भी अधिकांश देश लक्ष्य से भटक गए और जमीनी कार्रवाई को लगभग स्थगित कर दिया है। परिणाम के रूप में दिख रहा है कि नियोजित कार्रवाई की कमी के कारण आज दुनिया सतत अग्निशमन मोड में है।
वास्तव में वर्तमान प्रतिबद्धताओं को पूरा नहीं किया जा सकता है। इसे देखते हुए आईपीसीसी ने हाल ही में चेतावनी दी है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि के कारण सदी के अंत तक दुनिया का वैश्विक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि होने की संभावना है। यह सुझाव दिया गया है कि यदि 21वीं सदी तक ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक कम करना है तो वैश्विक कार्बन उत्सर्जन शुद्ध रूप से 2050 तक शून्य यानि नेट जीरो तक पहुंच जाना चाहिए। लेकिन पिछले दिनों की गई कार्यवाई बहुत अधिक आत्मविश्वास पैदा नहीं करती है। 1990 में जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक मुद्दा बन गया, लेकिन 1990 से 2010 के बीच बढ़ते उत्सर्जन को रोकने के लिए बहुत ही कम काम किया गया। खासकर विकसित देशों ने वर्ष 2000 तक उत्सर्जन के 1990 के स्तर पर लौटने के पहले वाले लक्ष्य को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। क्योटो प्रोटोकॉल ने बाद में 37 अमीर और औद्योगिक देशों को अपने उत्सर्जन स्तर को सामूहिक रूप से केवल 5 प्रतिशत कम करने के लिए ही कहा। इसमें से भी अधिकांश देश इस मामूली प्रतिबद्धता को भी पूरा करने में विफल रहे। वास्तव में 2012 में अमेरिकी उत्सर्जन 1990 की तुलना में मामूली अधिक था, लेकिन 1990 से 2012 के बीच वैश्विक उत्सर्जन में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई और इसमें प्रमुख योगदान चीन और भारत द्वारा किया गया था।
वर्ष 2007 में चीन दुनिया का प्रमुख उत्सर्जक देश बना। चीन का वर्तमान उत्सर्जन 1990 के स्तर से 4 गुना अधिक है। इसी तरह भारत का उत्सर्जन 1990 से साढे तीन गुना अधिक हो गया है, लेकिन चीन, भारत, ब्राजील आदि जैसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देशों को अपने उत्सर्जन में कटौती करने के लिए कहा भी नहीं गया था, क्योंकि देखा गया है कि पिछले 150 सालों में 90 प्रतिशत से अधिक संचित सीएचजीएस समृद्ध और औद्योगिक देशों के वातावरण से आया है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने ग्लोबल वार्मिंग में बहुत कम योगदान किया है।
विकसित देशों की इस बात में कोई दम नहीं है कि तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं द्वारा गैर पर्यावरण मित्रों के अधिक प्रदूषणकारी पर कम खर्चीली विकास पद्धति से इन देशों में उत्सर्जन तेजी से बढ़ रहा है। विकसित देशों को लगता है कि उन्हें गलत तरीके से निशाना बनाया जा रहा है, इसके अलावा उन्हें यह भी लगता है कि इन बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं को उनकी कीमत पर अनुचित लाभ मिल रहा है। इसलिए भी क्योटो प्रोटोकोल से इतर वर्ष 2015 के पेरिस समझौते पर ज्यादा ध्यान दिया। पहले विज्ञान आधारित उत्सर्जन में कमी के लक्षण निर्धारित किए गए थे, जो प्रकृति में बाध्यकारी थे। अब स्वयं निर्धारित लक्ष्य दिए गए जो न तो किसी राष्ट्र के लिए अनिवार्य थे, न नहीं लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कोई प्रोत्साहन था। उदाहरण के लिए अमेरिका ने 2005 से 2025 के बीच आज तक 27 प्रतिशत और उत्सर्जन में कमी करने को कहा है लेकिन 2018 तक केवल 10 प्रतिशत की कमी हुई है। इससे भी बदतर चीन में वर्ष 2005 से 2018 के बीच लगभग 71 प्रतिशत बढ़ गया है।
विकासशील देश वास्तव में वित्त पोषण और प्रौद्योगिकी की कमी के कारण जलवायु संबंधी कार्यवायी करने में अक्षम है। सभी राष्ट्रों को समान रूप से बोझ साझा करने की बात कही गई। जलवायु नियम इस प्रकार की मांग करता है कि अलग-अलग देशों को अपनी अनूठी जरूरतों और शर्तों को ध्यान में रखते हुए नेटजीरो तारीखों की पेशकश करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। यदि राष्ट्रीय स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग में निर्धारित योगदान वैश्विक उत्सर्जन के अत्यधिक स्तर को जोड़ते हैं तो इन लक्ष्यों की समीक्षा की जानी चाहिए।
हालांकि उत्सर्जन में कमी लाने की बात भारत के लिए नहीं है, फिर भी अब बहुत कुछ बदल गया है। चूंकि पहले गैर प्रदूषणकारी प्रौद्योगिकियां उपलब्ध नहीं थी लेकिन अब तो नई-नई विकसित तकनीक का युग है। ऐसे में भारत को शुद्ध शून्य लक्ष्य निर्धारित करने के विचार को खारिज करने से बचना चाहिए। जलवायु अनुकूल आर्थिक विकास नैतिक और व्यवहारिक रूप से भी वांछनीय है। इसके लिए संरचनात्मक परिवर्तन उपयुक्त नीतियों और सहायक संस्थानों की जरूरत है। कार्बन ऑफसेट और कार्बन सिंक जैसे केवल उप समूह एक गैर शून्य लक्ष्य को हिट करने के लिए उत्सर्जन को संतुलित नहीं कर सकते। हालांकि हम अपने आर्थिक विकास के लक्ष्यों से समझौता नहीं कर सकते, फिर भी कुछ नियामक कदम उठाकर हम शुद्ध शून्य लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता दिखा सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान में बिगड़े जलवायु के लिए विकसित दुनिया दोषी है, लेकिन विकासशील देश प्रमुखता से इस बात को अंतरराष्ट्रीय मंचों से न उठाते हुए अपनी जिम्मेदारियों से बच रहे हैं। तर्क दिया जाता है कि भारत को जलवायु न्याय और समानता पर जोर देना चाहिए।
एक अनुमान के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण चावल और गेहूं की पैदावार में गिरावट की वजह से 2050 तक सकल घरेलू उत्पाद का 1.8 से 3.4 प्रतिशत तक का आर्थिक नुकसान हो सकता है। इसके अलावा जीवन की गुणवत्ता और स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ने की आशंका है। भारत आर्थिक कारणों से विकास की दौड़ में सुस्त पड़ सकता है वहीं स्वच्छ खाना पकाने के उपकरणों की कमी और ऊर्जा क्षेत्र के परिवर्तन की प्रक्रिया में पिछड़ रहा है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अमीर देशों को ऋणात्मक तथा भारत को स्वयं शुद्ध शून्य के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। हर साल जुड़ने वाले 40 बिलियन टन से अधिक कार्बन को हटाने के लिए यह जरूरी है कि भारत उत्सर्जन में कमी की पेशकश इस शर्त पर करें कि उन्नत देश 2050 से पहले शुद्ध शून्य तिथियां अपनाएं और जलवायु जोखिम को कम करने के लिए प्रौद्योगिकी और वित्त के हस्तांतरण के लिए प्रतिबद्ध हों। भारत के लिए एक शुद्ध शून्य लक्ष्य अतिरिक्त निवेश की सुविधा प्रदान करेगा आर्थिक विकास को बढ़ावा देगा, जीवन की गुणवत्ता में सुधार करेगा और नागरिकों के लिए बेहतर स्वास्थ्य भी सुनिश्चित करेगा।
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