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हिंदीवादी सरकार में हिंदी की दशा

हिंदी के चतुर्दिक विकास के लिए हमें पेशेवर कार्यों में हिंदी के अधिकतम प्रयोग पर भी विचार करना होगा। हिंदी को ताकतवर कहने के लिए केवल हिंदी जानना पर्याप्त नहीं है। हिन्दी के माध्यम से सत्ता और अर्थव्यवस्था में प्रचलित भाषाईईपूर्वाग्रह को दूर करना अनिवार्य है। — स्वदेशी संवाद

आज से 6 साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र की महासभा को हिंदी में संबोधित किया, तो राष्ट्र का हिंदी प्रदेश खुशी से झूम उठा था। हालांकि उनसे पहले 1977 में स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेई भी एक बार वहां अपना भाषण हिंदी में दे चुके थे, लेकिन तब वे सिर्फ विदेश मंत्री थे। प्रधानमंत्री के इस हिंदी प्रेम ने लोगों के बीच एक नई आशा जगाई। लोगों को लगा कि यह एक हिंदीवादी सरकार है, जो राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की पैठ मजबूत करेगी। हिंदी भाषी लोग संयुक्त राष्ट्र के उस संबोधन को लेकर बेहद उत्साहित हैं। उनके लिए एक ऐतिहासिक क्षण था, जब हमारे प्रधानमंत्री ने पूरी दुनिया को संदेश दिया कि देखां यह है हमारी मातृभाषा, यह है 70 करोड़ लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली जुबान और अपनी बात हम अपनी जुबान में ही बोलेंगे। दुनिया वालों अगर तुम्हें इतनी बड़ी आबादी से अपना संवाद कायम करना है तो तुम्हें इसे सुनना होगा। हिंदी प्रेमियों ने माना कि इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाषा का मान-सम्मान बढ़ा और अब देश के सरकारी कामकाज में भी हिंदी का प्रसार बढ़ेगा।

प्रधानमंत्री यहीं नहीं रुके, रेडियो पर उनके मशहूर कार्यक्रम ‘मन की बात’ का प्रसारण भी हिंदी में ही होता है। प्रधानमंत्री के निजी प्रयासों के अलावा इस दौरान सरकार ने भी कुछ एक आवश्यक कदम उठाए। भाषा के लिहाज से पूरे देश को 3 वर्गों में बांटा गया तथा हिंदी के प्रचार-प्रसार पर बल दिया गया। लेकिन सरकार में ऊंचे ओहदे पर बैठे अंग्रेजी कर्ताधर्ता लोगों ने हिंदी के इस उत्साह की हवा निकाल दी। कमोबेश हिंदी आज भी वही खड़ी है, जहां आजादी के बाद थी। बाजार की भाषा होने के कारण प्रचलन में भले बढ़ गई हो, लेकिन रोजगार के मामले में अब भी फिसड्डी ही है। यही कारण है कि आजादी के 74 वर्ष बाद भी हिंदी राजनीति, अर्थव्यवस्था न्यायपालिका और शिक्षा समेत अन्य व्यवहार के क्षेत्रों में खड़े होने को आज भी संघर्ष कर रही है। जबकि अंग्रेजी हर उस स्थान पर मजबूती से डटती है। यह स्थिति तब है जबकि हर क्षेत्र में हिंदी के विकास के लिए राजकोष संस्थाएं अनुदान एवं अन्य सहयोग उपलब्ध है। हिंदी का प्रसार तो बढ़ा, लेकिन हिंदी एक ताकतवर भाषा नहीं बन सकी। जिस तरह से बाजार में प्रचलित खोटा सिक्का अच्छे सिक्के को चलन से बाहर कर देता है, उसी तरह ताकतवर भाषा अन्य भाषाओं के चलन को सीमित करती जाती है। धीरे-धीरे सांस्कृतिक दायरे में अपने हस्तक्षेप को बढ़ाती है और व्यक्ति को उसके लोग से दूर ले जाती है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आजादी के बाद से हिंदी का प्रसार बढ़ा है, लेकिन हिंदी ताकतवर नहीं हो पाई है। हिंदी नीचे के स्तर की भाषा होकर रह गई है। किसी भी संस्थान या बड़ी कंपनियों में मोटी तनख्वाह वाले अंग्रेजी के ही लोग हैं। प्रथम श्रेणी की नौकरियों में अंग्रेजी हावी है। हिंदी की स्थिति बाबू वर्ग तक ही सीमित होकर रह गई है। इस बीच सरकार में एक अच्छी पहल करते हुए नई शिक्षा नीति 2020 में भाषा संबंधी समस्याओं के समाधान के बारे में सकारात्मक सुझाव दिए हैं। इस नीति का पाठ करते हुए मातृभाषा में शिक्षण का सुझाव उत्साह पैदा करता है। इस सुझाव की पूर्ति केवल विद्यालय शिक्षण से संभव नहीं है, इसे लेकर हमें विस्तृत कार्यक्रम बनाना होगा। इस बाबत अध्यापकों को भी  प्रशिक्षित करना होगा। हमारे यहां बड़े-बड़े संस्थानों में हिंदी की उपस्थिति लगातार कमजोर हो रही है। आलम यह है कि स्कूल की पाठ्य सामग्रियों को पहले अंग्रेजी में तैयार किया जा रहा है और फिर उस तैयार सामग्री का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा है। इसके लिए उदाहरण के रूप में हम एनसीईआरटी की किताबों को देख सकते हैं। यदि इसी तरह से हिंदी को मजबूत करने की कोशिश होगी तो इससे यह स्थापित होगा कि अंग्रेजी भाषा ही ज्ञान सृजन की असली भाषा है और भारतीय भाषाएं उसकी बायप्रोडक्ट हैं। इसलिए हमें हिंदी के पक्ष में खुलकर खड़ा होना होगा। हिंदी को लेकर जो भी अच्छी बातें की जा रही हैं, उन्हें हर हाल में जमीन पर उतारने की कोशिश करनी होगी।

दरअसल भाषा सिर्फ संवाद का माध्यम भर नहीं होती, बल्कि उसमें एक जीवित समाज सांस ले रहा होता है। एक समाज की बेहतर समझ उस समाज की भाषा ही दे सकती है। अन्य कोई भी भाषा चाहे वह कितनी भी शक्तिशाली क्यों ना हो उस समाज का अधूरा सच ही बता सकती है। यही से विरोधाभास का दूसरा सिरा खुलता है। राज्य की जिस इकाई पर समाज को समझकर नीति बनाने और उसे लागू करने की जिम्मेदारी होती है। वह भाषा के इस बुनियादी उपयोग से दूर होती जा रही है। अर्थात भारत के सिविल सेवक जिन पर नीति निर्माण और उसके क्रियान्वयन की बड़ी जिम्मेदारी है उनमें भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व अब नाममात्र का रह गया है। क्या ऐसी प्रशासनिक संरचना के समाज उन्मुख होने की कल्पना की जा सकती है? और यदि वह ऐसा होने का दावा भी करे तो क्या ऐसा करने में सक्षम है? इसका उत्तर ‘ना’ में देने पर शायद ही किसी को आश्चर्य हो। दिलचस्प है कि सिविल सेवा में जिस नीति के कारण भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व लगातार कम होता चला गया, उसे इस व्यवस्था के हितचिंतकों ने योग्यतम के चयन का नाम दिया। अर्थात यदि भारत को श्रेष्ठ प्रशासन चाहिए तो इसके लिए चयन प्रणाली ऐसी हो जिसमें योग्यतम लोग ही चुने जाएं। अब योग्यता के बोझ से दबी जा रही इस व्यवस्था से कौन पूछे कि आखिर यह विशिष्ट खोज उसने का कहां से की? जो सिर्फ अंग्रेजी में ही प्रतिभा खोज पा रही है और भारतीय भाषाओं को एक नकारों के समूह मात्र के रूप में देख रही है। जब तमाम विद्वान और स्वयं सरकार का शिक्षा दस्तावेज मातृभाषा में आगे बढ़ने का ख्वाब देख रहे हैं, तब प्रशासकों की यह भर्ती प्रणाली उलटी दिशा में आखिर क्यों चल रही है?

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि योग्यता कोई ऐसी विशिष्टता नहीं है जो किसी खास भाषा में ही निवास करती है, लेकिन अगर कोई समाज किसी खास भाषा की जानकारी को ही योग्यता का पैमाना बना ले, तब तो बात ही दीगर है। सिविल सेवा के मामले में ऐसा ही हुआ है। यहां अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को ही योग्यता का अंतिम निर्धारक मान लिया गया है। इसलिए कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि जो योग्यता का यह दावा न केवल गलत दावा है बल्कि देश के बहुतायत लोगों के मन के विपरीत भी है। खासकर भाषाई विविधता वाले समाज से जुड़कर कार्य करने वाले अधिकारियों के लिए योग्यता का यह निर्धारण तो एक तरह से अश्लील भी है।

हिंदी के चतुर्दिक विकास के लिए हमें पेशेवर कार्यों में हिंदी का न्यूनतम प्रयोग पर भी विचार करना होगा। हिंदी को ताकतवर कहने के लिए केवल हिंदी जानना पर्याप्त नहीं है। उसके माध्यम से सत्ता और अर्थव्यवस्था में प्रचलित भाषाई पूर्वाग्रह को दूर करना अनिवार्य है। हालांकि केंद्र की मोदी सरकार ने तमाम सरकारी नौकरियों में साक्षात्कार प्रणाली को खत्म कर दिया है लेकिन जिन बड़ी नौकरियों के लिए साक्षात्कार आयोजित किये जाते है वहां आज भी अंग्रेजी यूनिक बनी हुई है। महात्मा गांधी ने हिंदी के लिए जोर देते हुए कहा था कि देश की एकता और अस्मिता के लिए हिंदी बहुत जरूरी है। 

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