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वैश्विक वित्तीय संरचना में आमूल परिवर्तन आवश्यक

भारत विश्व का विशालतम लोकतंत्र है। विश्व के सर्वाधिक 20 प्रतिशत युवा भारत में हैं। विश्व के सर्वाधिक 6.34 करोड़ सूक्ष्म, लघु, व मध्यमाकार उपक्रम भारत में है। इसलिए भारत को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक वित्तीय तंत्र की पुनर्रचना की पहल करनी चाहिए। —  प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा

 

वैश्विक वित्तीय संरचना में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक व विश्व व्यापार संगठन प्रमुख रूप से आते हैं। इनमें विश्व बैंक व मुद्रा कोष 1944 में यूरो-अमेरिकी देशों की पहल पर आयोजित 43 देशों की एक बैठक में बने थे। द्वितीय विश्व युद्ध की संक्रमणकालीन परिस्थितियों में निर्मित इन संस्थाओं की संगठन संरचना, पूजी अनुपात, इनके निदेशकों व प्रमुखों के चयन की प्रक्रिया आदि सभी एकांगी व यूरो-अमेरिकी देषों द्वारा नियंत्रित हैं। आज की आर्थिक चुनौतियों एवं बदलती वैष्विक आवष्यकताओं की दृष्टि से सर्वथा अप्रसंगिक हो चुकी हैं। 

आलोकतांत्रिक व अपारदर्शी कार्य प्रणालीः 

यूरो-अमेरिकी नियन्त्रण में हाने से इनके प्रमुखों का चयन भी दोषपूर्ण है। विश्व बैंक के अध्यक्ष का चयन अमेरिका व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (मुद्रा कोष) के प्रबन्ध निदेशक का चयन यूरोप द्वारा किया जाता है जो सर्वथा अलोकतांत्रिक व अराजकतापूर्ण है। आज इनके प्रमुखों के चयन में अमेरिका व यूरोप के ऐसे एकाधिकार का कोई औचित्य नहीं है। 

वैश्विक वित्तीय तंत्र का तीसरा घटक ‘विश्व व्यापार संगठन’ तो 1995 में उसके निर्माण के पूर्व से ही इसके आधारभूत रहे विवादस्पद डकेल प्रस्तावों के समय से अर्थात 1989 से ही विवदित है। डंकेल प्रस्तावों का विश्व भर में तब भारी विरोध हुआ था। आज भी विष्व व्यापार संगठन के अधिकांश बहुपक्षीय समझौते अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार विवादों के कारण बने हुए हैं। भारत में चावल की सरकारी खरीद में अनुदान के अंश में आंशिक वृद्धि तक के लिए 2018-19 व 2019-20 शान्ति प्रावधान या पीस क्लाज का सहारा लेना पड़ा है। विश्व व्यापार संगठन के ही ट्रिप्स, ट्रिम्स, गेट व कृषि संबंधी समझौतां सहित सभी बहुपक्षीय व्यापार समझौते बहुतांश में विकासशील देशों व विश्व मानवता के हितों के विरूद्ध व उनके हितो की कीमत पर औद्योगिक देशों व उनकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों का पोषण करते हैं। इसी प्रकार वैश्विक वित्तीय तंत्र के ही अंगों-यथा फाइनन्सियल स्टेबिलिटी बोर्ड व बेसल के बैंकिंग मानकों की अपनी समस्याएँ हैं। 

आज की चुनौतियाँ

आज जब कोरोना के उपरान्त सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ गम्भीर आर्थिक संकुचन, रोजगार क्षरण एवं आय व राजस्व में गिरावट की शिकार हुई हैं। ऐसे में अर्थव्यवस्थाओं में सन्तुलित पुनर्बहाली एवं समावेशी विकास के लिए और इसके साथ ही संसाधनों के सृजन, वित्तीय तरलता, विदेशी विनिमय सन्तुलन आदि के लिए वैश्विक वित्तीय तंत्र की पुनर्रचना अनिवार्य हो गई है। आज विश्व के प्रत्येक देश में उत्पादन वृद्धि, रोजगार सृजन, व्यापार संतुलन, भुगतान संतुलन, समष्टिगत, राजकोषीय व तकनीकी स्वावलम्बन महत्वपूर्ण है। सभी देशों के रोजगार सृजन समावेशी विकास, उत्पादन वृद्धि, जनता की आय व क्रय क्षमता में वृद्धि, सरकार के राजस्व में वृद्धि, विदेशी व्यापार व भुगतानों मे सन्तुलन जैसी कई चुनौतियाँ है। वैश्विक वित्तीय तंत्र या ग्लोबल फाइनेन्सियल आर्कीटेक्चर इन चुनौतियों का समाधान करने में सक्षम होना आवश्यक है। 

ब्रेटन वुड्स में बने संस्थानां की अप्रासंगिकता

ब्रेटन वुड्स संस्थान अर्थात विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जुलाई 1944 में अमेरिका में ब्रेटन वुड्स, न्यू हैम्पशायर में 43 देषों की एक बैठक में बनाए गये थे। ये दोनों ही आज सर्वथा अप्रासंगिक हो चुके हैं। तब इन संस्थानों का उद्देश्य मात्र, विश्व युद्ध से ध्वस्त व बिखरी हुई यूरो अमेरिकी अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण में सहायता करना और यूरो अमेरिका देशों में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना था। ब्रेटन वुड्स समझौते में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन (आईटीओ) के गठन की योजना भी थी। जिसका प्रस्ताव करने का बाद में अमेरिका ही विरोध करने लग गया था। वस्तुतः 1990 के दशक के मध्य में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के गठन तक आई.टी.ओ का अमेरिका विरोध ही करता रहा है, जबकि वह प्रस्ताव भी अमेरिका का ही था। द्वितीय विष्व युद्ध के अंत में विश्व बैंक और आईएमएफ का निर्माण भी केवल तीन लोगों, अमेरिकी ट्रेजरी सचिव हेनरी मोर्गन्थाऊ, उनके मुख्य आर्थिक सलाहकार हैरी डेक्सटर व्हाइट और ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स के सीमित सोच के आधार पर हुआ था। इसलिए ये दोनों ही संस्थाएँ वैश्विक आर्थिक संबंधों के क्षेत्र में विश्व भर के लिए एक तरफा निर्णय लेने और एकांगी यूरो-अमेरिकी हित साधन का माध्यम बन गई थीं। वस्तुतः विगत 77 वर्षों में ये संस्थाएँ वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के संचालन में उन यूरो-अमेरिकी मित्र देशों, विशेषतः अमेरिका और ब्रिटेन के नेताओं  के वर्चस्व का ये संस्थाएं माध्यम रहीं हैं। 

दोषपूर्ण कार्यप्रणालीः ये दोनों ही संस्थाएँ-मुद्रा कोष व विश्व बैंक अब तो अपने उस संकुचित मूल उद्देश्य से भी भटक भी गई है। इसकी स्थापना के समय सैद्धान्तिक रूप से यह तय हुआ था कि आईएमएफ अपने सदस्य देशों को मौद्रिक नीतियों में सामंजस्य लाने और विनिमय दरों में स्थिरता के साथ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व भुगतान सन्तुलन के लिए एक सुस्थिर वातावरण तैयार करेगा। मुद्रा उन सभी देशों को अस्थायी वित्तीय सहायता भी प्रदान करेगा, जो कदाचित कभी अपने भुगतान संतुलन में कुसमायोजन व कठिनाइयों का सामना करेंगे। 

दूसरी ओर, विश्व बैंक, पुनर्निर्माण और विकास परियोजनाओं के लिए युद्ध से ध्वस्त गरीब देशों को धन उधार देकर देशों की व्यापार करने की क्षमता में सुधार करने का काम करेगा।  लेकिन, कालान्तर में विशेषकर 1980 व 1990 में ये दोनों संगठन दशकों में विकासशील देशों में औद्योगिक देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के इस प्रकार हित साधन के माध्यम बन गये थे कि इन विकासशील देशों के उद्योगों, व्यापार वाणिज्य व संपूर्ण वित्तीय व अन्य सेवाओं पर नियंत्रण बहुराष्ट्रीय कंपनियों का होता चला गया। इस सबका रहस्योद्घाटन अनेक ख्यातनाम अर्थषास्त्रियों के साथ-साथ विश्व बैंक के उपाध्यक्ष रह चुके और विष्व बैंक के व अमेरिकी राष्ट्रपति के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहाकार रहे नोबल पुरस्कार विजेता जोसेफ ई स्टिग्लिट्ज तक कर चुके हैं। 

वैश्विक आर्थिक संकटों के निवारण में असमर्थः विगत तीन दशकों में उपजे वैश्विक आर्थिक संकटों व सदस्य देशों में उपजे संकटों के पूर्वानुमान और प्रभावी समाधान में दोनों ही संस्थाएँ विफल रहीं हैं। वैश्विक आर्थिक क्षरण अर्थात 2008 के ग्लोबल मेल्ट डाउन व उसके पूर्ववर्ती अधिकांश प्रमुख वैश्विक आर्थिक संकटों का पूर्वानुमान करने उनको टालने या उससे प्रभावित देशों को सहज संकटमुक्त करने में, ये दोनों ही ब्रटेनवुड्स संस्थाएँ 1980 के दशक से ही विफल रहीं हैं। वर्ष 1982 के अन्तर्राष्ट्रीय ऋण संकट के समय से ही अनेक देशों में इनके द्वारा लागू कराये संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम अत्यन्त विवादास्पद रहे हैं।  अमेरिका ने 2008 के मेल्टडाउन से उबरने के लिए स्वयं ही 20 खरब डालर का मुद्रा प्रसार बढ़ाकर अर्थात क्वांटिटेटिव ईजींग के माध्यम से मुद्रा प्रसार बढ़ाकर स्वयं को उबारा था। 

दोषपूर्ण पूंजी संरचना व अनुपातः पूंजी संरचना में विविध राष्ट्रों की सन्तुलित भागीदारी नहीं होना बहुत बड़ी विसंगति है। भारत आज क्रय क्षमता साम्य के आधार पर विष्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था व नामिनल सकल घरेलू उत्पाद की दृष्टि से विष्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन, मुद्रा कोष की पूंजी में भारत का अंष मात्र 2.76 प्रतिषत व उसमें भारत के मतों का अनुपात मात्र 2.64 प्रतिषत ही होने से यह आठवें स्थान पर आता है। मुद्रा कोष में सर्वोच्च हिस्सा पूंजी व मतानुपात अमेरिका का क्रमषः 17.46 प्रतिषत व 16.52 प्रतिषत है, जिससे ऐसे सभी निर्णय, जिनमे 85 प्रतिषत बहुमत आवष्यक होता है ऐसे सभी प्रमुख निर्णयों में अमेरिकी वीटो बना रहता है।

भारत का ऐतिहासिक वर्चस्वः यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि 1944 में इन दोनों संस्थाओं-मुद्रा कोष व विष्व बैंक की  स्थापना के अवसर पर भारत मुद्रा कोष व विष्व बैंक की पाँच-पाँच प्रतिषत अंष पूंजी, के साथ उसके पांच सबसे बडे़ अंष घारकों में एक था। मुद्रा कोष की इस पूंजी को ‘कोटा’ कहा जाता है और भारत उसके 5 शीर्ष पूंजी धारक या कोटा होल्डर देषों में एक था। इस कारण इसके 5 स्थाई निदेषकों में एक निदेषक भारत का भी होता था। हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समाजवादी पूर्वाग्रहों के कारण जब स्वाधीनता के बाद उन्होने निजी निवेष बाधित कर बड़े पैमाने पर सार्वजानिक क्षेत्र की स्थापना के लिए जब 1949 में विष्व बैंक से ऋण लिया था। तब, विष्व बैंक की ऋण देने की शर्तों के अधीन भारत को रुपये का अवमूल्यन कर उसकी कीमत रु 3.50 प्रति डालर से घटाकर रु 4.76 करनी पड़ी थी। इस अवमूल्यन के कारण ही हमारी इन संस्थाओं में निवेषित पूंजी का मूल्य गिर गया और उससे हमारी स्थिति कमजोर हुई एवं दोनों संस्थानों में हमारा वह एक-एक स्थाई निदेषक पद भी छिन गया। भारत को मुद्रा कोष की शर्तों के अधीन 1991 में भी रूपये का जुलाई 1 व 3, 1991 को कुल मिलाकर 21 प्रतिषत अवमूल्यन करना पड़ा है। 

विश्व व्यापार संगठन - सर्वाधिक विवादों का कारणः 

विश्व व्यापार संगठन के बहुपक्षीय व्यापार समझौते केवल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितसाधक हैं। वैसे विष्व व्यापार संगठन की एक विषेषता यह तो अच्छी कही जा सकती है कि, उसमें प्रति देष एक ही मत होता है और किसी भी देष का वीटो नहीं है। लेकिन, इसके सारे प्रमुख बहुपक्षीय व्यापार समझौते औद्योगिक देषों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को एकतरफा लाभ पहुँचाने वाले हैं। गैट वात्ताओं के आठवें चक्र में 1989 में आर्थर डंकेल द्वारा प्रस्तावित प्रस्ताव विवादास्पद रहे हैं। वस्तुतः 1994 में हस्ताक्षरित व 1 जनवरी 1995 से प्रभावी हुए विष्व व्यापार संगठन एवं उसके अधिकांष बहुपक्षीय व्यापार समझौते सर्वथा दोषपूर्ण हैं। इसके निर्माण के समय से प्रभावी एवं उसके बाद परवर्ती काल में हस्ताक्षरित हुए सभी बहुपक्षीय व्यापार समझौते आज केवल औद्योगिक देषों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ही लाभ पहुँचाते हैं। ये समझौते सभी विकासषील देषों के उद्योगों, व्यापार, वाणिज्य व लोक कल्याण को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते है एवं केवल  बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधन करते हैं। उदाहरणार्थ - प्रषुल्क व व्यापार विषयक सामान्य समझौता- 1994 (गैट-1994) अन्य बातों के साथ-साथ विष्व व्यापार संगठन के सदस्य देषों व उनकी सरकारों के इस सम्प्रभू अधिकार का निषेध करता है कि वे अपने यहाँ किसी वस्तु के आयात व निर्यात पर कोई नियन्त्रण लागू करें। भारत को तो 2001 में भारत पर चले एक विवाद में, विष्व व्यापार संगठन के विवाद निवारण तंत्र के एक निर्णय पर 700 वस्तुओं पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटा कर उनका आयात खुला करना पड़ा है। वस्तुतः लघु उद्योगों के लिए आरक्षित, इन सभी उत्पादों का आयात खुला हो जाने से सरकारों को शनैः-षनैः लघु उद्योगों के लिए आरक्षित 1049 उद्योग वर्गों का आरक्षण भी समाप्त करना पड़ा है। गेट 1994 के साथ ही उसके पूर्व मुद्रा कोष के 1991 से थोपे सुधारों के समय 1991-92 में भारत का विदेष व्यापार घाटा मात्र 1.6 अरब डालर ही था, जो 2019-20 में सौ गुना बढ़ कर 160 अरब डालर हो गया। इस बढ़े हुए घाटे के कारण ही रुपये-डालर की विनिमय दर जो 1991 में रु0 18 थीं वह आज गिरकर रू 75 तुल्य हो गयी। उस पुरानी दर की दषा में हमें 100 डालर के किसी भी आयात का मात्र 1800 रूपये भुगतान करना होता था। आज रूपये के मूल्य में गिरावट से उसी 100 डालर मूल्य के आयातों का रूपये 7500 का भुगतान करना होता है। 

इसी प्रकार विश्व व्यापार संगठन की ‘‘कृषि पर समझौता’’ अन्य कई बातों के साथ-साथ भारत में खाद्यान्नों के समर्थन मूल्य व खाद्यान्नों की सरकारी खरीद पर देय कृषि अनुदानों पर अंकुष लगाता है। इसमें 1986-88 के मूल्य स्तर को आधार मानकर अनुदान गणना किया जाना सर्वथा अन्यायोकूल है। इसी क्रम में विष्व व्यापार संगठन के निवेष संबंधी उपायों का समझौता जिसे एग्रीमेण्ट ऑन ट्रिम्स कहते हैं, वह भी देष में उत्पादित वस्तुओं में घरेलू साज सामानों के उपयोग की प्राथमिकता की केन्द्र सरकार की नीति को बाधित करता है। मनमोहन सिहं सरकार तो चाहकार एवं ऐसी नीति प्रारूप बना लेने के बाद भी इलेक्ट्रानिक उत्पादों के उत्पादन में स्थानीय आदायों के उपयोग की अनिवार्यता के प्रावधान लागू नहीं कर सकी थी। इस नीति को सरकार तब विष्व व्यापार संगठन के एग्रीमेण्ट आन ट्रिम्स के कारण ही लागू नहीं कर पाई थी। वर्तमान नरेन्द्र मोदी सरकार ने इन ट्रिम्स के प्रावधानों की सर्वथा अनदेखी कर, देष हित में ‘‘स्थानीय सामग्री उपयोग नियम’’ अर्थात ‘लोकल कण्टेण्ट रूल्स’ लागू कर एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है। 

विश्व व्यापार संगठन के बौद्धिक सम्पदा अधिकार सम्बन्धी समझौते को लेकर विशेषतः पेटेण्ट के मुद्दे पर तो 2001 से कई बार विकसित व विकासषील देषों में टकराव की स्थिति बनती रही है। हाल ही मे कोविड-19 के टीकों व औषधियों को पेटेण्ट मुक्त किए जाने के भारत प्रस्ताव पर, अक्टूबर 2020 से ही गतिरोध बना हुआ है। इस प्रस्ताव को 120 देषों का समर्थन होने से 5 मई 2021 को तो अमेरिका को भी सहमति देनी पड़ी है। लेकिन, अभी भी मानवीयता की अनदेखी कर यूरोपीयन कमीषन ने इसे टेक्स्ट बेस्ड नेगोषिएषन्स में उलझा रखा है। ट्रिप्स के अन्तर्गत किसी प्रथम आविष्कारक को 20 वर्ष के लिए सम्पूर्ण विष्व की 786 करोड़ जनसंख्या के विरूद्ध पेटेण्ट के माध्यम से एकाधिकार प्रदान किया जाना सर्वथा मानवीयता के विरूद्ध व अन्यायपूर्ण है। ऐसी ही विवादास्पद स्थिति, विष्व व्यापार संगठन के अन्य भी लगभग सभी 60 बहुपक्षीय व्यापार समझौतों संबंध में है। अतएव विष्व व्यापार संगठन के इन अधिकांष समझौतों को निरस्त किया जाना आवष्यक है। 

वित्तीय तंत्र के अन्य घटक भी प्रभावहीनः

वैश्विक वित्तीय तंत्र के अन्तर्गत, ‘वित्तीय स्थायित्व बोर्ड’ अर्थात फाइनेन्सियल स्टेबिलिटी बोर्ड का तो कोई विधिक अस्तित्व ही नहीं है और मात्र 65 देशों की यह अनौपचारिक व्यवस्था है। बेसल के बैंक संबंधी नियमनों के प्रावधान विवाद पूर्ण व असमंजस कारी हैं। एशियाई विकास बैंक सहित क्षेत्रीय विकास बैंकों का भी पुनर्गठन आवश्यक है। इसके अतिरिक्त विगत दस वर्षों में चीन द्वारा श्रीलंका, कम्बोडिया, जीबूती आदि लगभग 75 से अधिक देशों को अनुचित व अपारदर्शी शर्त्तों पर ऋण देकर उनकी अवसंरचनाओं को हस्तगत किया है अथवा करने का इरादा रखता है। यह, वैश्विक वित्तीय तंत्र द्वारा विविध विकासशील देशों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्त्ति नहीं कर पाने से ही हुआ है।

समग्र पुनर्रचना की आवश्यकता 

आज के बदले हुए आर्थिक परिदृश्य के आलोक में मुद्रा कोष, विश्व बैंक के साथ सभी क्षेत्रीय विकास बैंकों की पुनर्रचना परम आवष्यक है। विष्व व्यापार संगठन के गेट-1994, कृषि संबंधी समझौते, ट्रिप्स व ट्रिम्स सहित सभी बहुपक्षीय व्यापार समझौते निरस्त कर, आवष्यकतानुसार उन्हे ऐसे प्रावधानों से विस्थापित किया जाना होगा, जो संबंधित देषों और उनके आर्थिक विकास व लोकहित की प्राथमिकताओं के अनुरूप हों। आज कोरोना के बाद आर्थिक पुनर्रचना हेतु सभी देषों की वर्तमान व भावी वित्तीय आवष्यकताओं, उनके व्यापार व भुगतान सन्तुलन को बनाए रखने एवं उनकी विनिमय दरों में समन्वय आदि के लिए तर्क संगत व समतामूलक वित्तीय तंत्र विकसित किए जाने की आवष्यकता है। आज हो रहे आर्थिक संकुचन के बाद, अब विष्व की सभी अर्थव्यवस्थाएँ, सन्तुलित व समावेषी विकास के मार्ग पर आगे बढ़ सकें। इस हेतु उचित पारिस्थितिकी तंत्र का विकास करने में सक्षम वैश्विक वित्तीय तंत्र का विकास किया जाना अपेक्षित है। भारत विष्व का विषालतम लोकतंत्र है। विष्व के सर्वाधिक 20 प्रतिषत युवा भारत में हैं। विश्व के सर्वाधिक 6.34 करोड़ सूक्ष्म, लघु, व मध्यमाकार उपक्रम भारत में है। इसलिए भारत को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक वित्तीय तंत्र की पुनर्रचना की पहल करनी चाहिए।

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