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तीसरा विकल्प - खोज जारी है...

भारत अब जी-20 देशों का नेतृत्व कर रहा है। विश्व की सबसे तेज रफ़्तार से आर्थिक उन्नति करने वाला राष्ट्र बन गया है।  — डॉ. धनपतराम अग्रवाल

 

श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने जिस तीसरे विकल्प की अवधारणा हमारे राष्ट्र के सम्मुख विचारार्थ रखी, वह चिंतन और मनन का ही विषय नहीं है बल्कि उसे हमें अपने जीवन में आत्मसात् करने का निर्देश है। यह पंडित दीनदयाल जी के एकात्म मानवदर्शन का व्यावहारिक स्वरूप है, जिसे सांकेतिक अर्थ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने “नये अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था” न्यू इंटरनेशनल इकोनॉमिक ऑर्डर, (एनईओ) के नाम से अपने जी-77 देशों द्वारा उठाई गई माँगों को स्वीकार करते हुए 12 दिसंबर 1974 के प्रस्ताव क्रमांक 3281 में घोषणा पत्र के रूप में ग्रहण किया था। यह घोषणा पत्र साम्यवाद और पूंजीवाद के खिलाप विकाशशील देशों की उन भावनाओं को समाहित करके बना है, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद राजनैतिक रूप से उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद आर्थिक उपनिवेशवाद के स्वरूप को बनाये रखकर आर्थिक शोषण की प्रक्रिया को जारी रखने की संरचना को ख़त्म कर एक न्यायपूर्ण आर्थिक समता के आधार पर अपना विकास चाहते थे। ब्रिट्टन उड़ द्वारा स्थापित विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, दोनों संगठन ही आर्थिक उपनिवेशवाद (इकोनोमिक कॉलोनिज्म) को भूमण्डलीकरण के नाम पर उसे शोषण-तंत्र के रूप में एक माध्यम बनाने का ही प्रयास था जिसे यूरोप और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने मिलकर बनाया था। यह पूंजीवाद का छलावा आवरण था और इसमें बदलाव की आवश्यकता को विकासशील देशों ने समझ लिया था। दूसरी तरफ़ साम्यवादी ताकतें यह चेष्टा कर रही थी कि नये स्वतंत्र राष्ट्र उसके पक्ष में आयें। 

पूंजीवादी और साम्यवादी ताकतों के बीच अकथित युद्ध चल रहा था, जिसे सामान्य भाषा में कोल्ड वार के रूप में जाना जाता रहा है। ऐसे में नये स्वतंत्र राष्ट्र निष्पक्ष और तटस्थ रहकर अपना विकाश चाह रहे थे, जिससे उनका समग्र विकास हो सके। उनकी आर्थिक नीतियों पर उनकी संप्रभुता बनी रहे और उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं का उन्हें उचित मूल्य मिले। नॉन एलाइंड मूवमेंट (एनएएम), इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर बना था और आज भी इसका अस्तित्व है, हालाँकि अब यह इतना सार्थक और प्रभावी नहीं रहा। परन्तु विकासशील देशों की एकजुटता की नींव डालने में एनएएम की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा NIEO को मान्यता देने के बाद व्यापार तथा विनियोग (ट्रेड एंड इनवेस्टमेंट) के क्षेत्रों में अब विकासशील देशों को एक ऊर्जा मिल गई और वे अपने राष्ट्र के आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर अपनी नीति निर्माण में स्वाधीन हो गये। इसी कारण अमेरिका इसे अन्तर्राष्ट्रीय क़ानूनों में संयुक्त राष्ट्र का दख़ल हो रहा है, इस तरह का प्रस्ताव अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में पेश करके इस प्रस्ताव की तीक्ष्णता को कम करवाने में सफल रहा और कभी भी एनआईईओ के यूएन प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। साथ ही उसने यूएनसीटीएटी जो कि 1964 में विकासशील राष्ट्रों के हितों की रक्षा के लिये बना था, उसे भी प्रभावहीन बना दिया। उसे लगा कि जैसे ओपेक के बन जाने से खनिज तेल के उत्पादन और उनकी क़ीमतों को बढ़ाने में खाड़ी देशों को जो सफलता मिली उससे विकसित राष्ट्रों को काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा, क्योंकि खनिज तेल का दाम एक साथ अक्टूबर 1973 में 3 डालर प्रति बेरल से बढ़कर मई 1974 में 11 डालर प्रति बेरल हो गया। अमरीकी डालर बहुत कठिनाई में पड़ गया तथा आईएमएफ ने नई मुद्रा के रूप में एसडीआर की घोषणा की। विकसित राष्ट्रों ने मिलकर फिर जीएटीटी के सहारे युरूगवे में 1986 में नई व्यापार वार्ता चालू करवाई जिससे विकसित राष्ट्रों का वर्चस्व और शोषण चालू रह सके। 1989 में बर्लिन दीवार के गिरने और दोनों जर्मनी के एक हो जाने और फिर सोवियत रुस के 1990 में विघटन हो जाने से अमेरिका के बाज़ारवादी नीति को नई ऊर्जा मिलने लगी। विश्व व्यापार संगठन का निर्माण 1993 के दिसंबर महीने में हो गया और उसके बाद न सिर्फ़ शिल्प बल्कि कृषि और सेवा क्षेत्र को भी मुक्त बाज़ार की परिधि में ढकेलकर भूमंडलीकरण का क़हर सभी विकासशील देशों पर थोप दिया गया। पिछले 30 वर्षों में दुनिया में धनी और गरीब देशों के बीच की खाई और गहरी हो गई है। बौद्धिक सम्पदा क़ानूनों के द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपना एकाधिकार और मज़बूत करती जा रही हैं। जो स्थिति द्वितीय विश्व युद्ध के समय हुई थी, वैसे आसार अब फिर से दिखने लगे हैं। जो आर्थिक विषमता एक तरफ़ ग़रीबी और बेरोज़गारी को बढ़ावा दे रही है वहीं दूसरी तरफ़ मंदी तथा महंगाई की मार आम व्यक्ति की दैनिक ज़िंदगी में नाना प्रकार की समस्याएँ पैदा कर रही हैं और इससे पूरी मानवजाति त्रस्त है। लोगों का एक दूसरे पर विश्वास ख़त्म हो रहा है। व्यापार और वाणिज्य पर इसका बड़ा दूषित प्रभाव पड़ रहा है। सामाजिक जीवन भी इससे प्रभावित हो रहा है। स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। दुनिया में आत्म हत्याएँ बढ़ रही हैं। परिवार टूट रहे हैं, सामाजिक समरसता प्रायः समाप्त होती जा रही है।

वर्तमान में जो अर्थव्यवस्था दुनिया में चल रही है, उसमे कुछ ऐसे विरोधाभास हैं जो एक साधारण से व्यक्ति को भी विस्मय में डाल देते हैं। उदाहरण के लिये अमेरिका डालर प्रिंट करता है और उनके यहाँ साधारणतया महंगाई का बहुत ज़्यादा असर नहीं होता, अभी इस साल थोड़ा सा अपवाद ज़रूर दिख रहा है जिसके लिए रुस-यूक्रेन युद्ध ज़्यादा ज़िम्मेवार है। अन्यथा 2008-09 की सब-प्राइम आर्थिक तंगी के समय वहाँ की केंद्रीय बैंक फेड रिज़र्व ने खरबों डालर छापे, किंतु उसका महंगाई पर कोई असर नहीं हुआ। फिर कोविड-19 की महामारी में भी खरबों डालर प्रिंट करके लोगों में बाँटे गये, फिर भी वहाँ की अर्थ व्यवस्था सुदृढ़ हुई। डालर दुनिया की सभी मुद्राओं की तुलना में मज़बूत हुआ। दूसरा विरोधाभास कि अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा क़र्ज़दार देश होते हुए भी वहाँ कोई दीवालिएपन की स्थिति नहीं आती। उनका पूँजी बाज़ार मज़बूत होता है। सारी दुनिया से वहाँ विनियोग बढ़ता है, उनकी क्रेडिट रेटिंग या साख बढ़ती है। ऐसी स्थिति में यूरोप का भी कोई देश अपवाद नहीं होता। फ़्रान्स, इटली, इंगलेंड, ग्रीस, स्पेन आदि देशों में आर्थिक तंगी के आसार देखने को मिले हैं, परन्तु अमेरिका में एक स्वचालित व्यवस्था है जिसके कारण बजट का वित्तीय घाटा या व्यापार घाटा कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता। अमेरिका आज विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बना हुआ है।कुल मिलाकर डालर के अंतरराष्ट्रीय मुद्रा का मुखिया होने का जो ख़तिब उन्होंने अपने साथ लगा लिया है, वह उनका वित्त बाज़ार और पूँजी बाज़ार में एक माफिया जैसी शक्ति उनको दे रखा है और आज जब मर्ज़ी हो किसी दूसरे देश पर उनकी मुद्रा का डालर से लेन-देन पर रोक लगाकर वहाँ की आर्थिक गतिविधियों पर अंकुश कसता रहता है। इस डर से या तो वे देश उसकी मर्ज़ी से चलें या फिर उसकी मार सहें। आज वेनेज़ुएला, ईरान तथा अभी रुस तथा अन्य कई देश उसकी इस माफियागिरी का शिकार बने हुए हैं। क्या जो स्विफ्ट व्यवस्था है,उसको बदला नहीं जा सकता? क्या अमेरिकन डॉलर डिप्लोमेसी को रोका नहीं जा सकता? क्या ब्रिट्टन वुड व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता? इन सब सवालों के जवाब कौन दे सकता है। विकासशील देश ज़्यादातर मुद्दों पर आपस में छूद्र कारणों को लेकर झगड़ते रहते हैं, परिणाम में अमेरिका को पंचायती करने का फ़ायदा मिलता है। आज तक अमेरिका को कभी भी आईएमएफ़ से मदद लेने की ज़रूरत नहीं पड़ी। अमेरिका का अधिकतर देशों से व्यापार घाटा है और उन निर्यात करने वाले देशों का पैसा अमेरिकन फेड रिज़र्व में लगभग बिना ब्याज या बिलकुल नगण्य ब्याज पर जमा रहता है- चाहे चीन हो या जापान या कोरिया। ये सारे विरोधाभास नई आर्थिक व्यवस्था के दरवाज़े खट खटा रहे हैं और अभी उस प्रयास को लगभग 50 वर्ष होने चले हैं। शायद अब समय आने वाला है। इसके लिये चीन और भारत को एक साथ आना होगा। नहीं तो जैसे डब्ल्यूटीओ में दोहा डेवलपमेंट एजेंडा कई सालों के प्रयास के बाद ठंडे बक्शे में बंद हो गया। नये विकल्प की मांग भी धीरे-धीरे आपसी विवाद के घेरे में स्तब्ध या ध्वस्त हो जायेगी। फिर भी आशा तो रखनी ही होगी और पुरुषार्थ भी करना ही होगा। भारत यह नेतृत्व अपने कंधे पर ले सकता है।

वित्तीय समस्या के साथ-साथ प्रकृति के शोषण से पर्यावरण की समस्या भी बेक़ाबू होती जा रही है। कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा, कहीं दावानल तो कहीं बर्फ़ के पिघलने से तटीय क्षेत्रों में समुद्र के जल स्तर के बढ़ने से लोगों के जीवन में त्रासदी बढ़ती जा रही है। इसी बीच करोना की महामारी से सारी दुनिया दो वर्ष तक परेशान रही और अब रुस और यूक्रेन युद्ध ने एक नई विभीषिका को जन्म दे दिया है।

इन सारी समस्याओं के मध्य में गुमनामी तरीक़े से मानवतावादी शक्तियाँ भी फिर से सजग हो रही हैं। भारत अब एक नई आर्थिक और सांस्कृतिक शक्ति के रूप में उभर कर दुनिया को नेतृत्व देने की स्थिति में आ रहा है। सिर्फ़ भौतिक उन्नति दुनिया में शान्ति नहीं ला सकती। उपभोक्तावाद और बाज़ारवादी संस्कृति से चारों तरफ़ असंतोष और हिंसा का वातावरण बनता जा रहा है। भारतीय संस्कृति निःश्रेयस अभ्युदय का संदेश देती है। हमें दीर्घकालीन विकाश को दृष्टि में रखकर अपनी जीवन प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। ऊर्जा के नये श्रोतों की खोज और नये अविष्कारों के आधार पर प्रकृति के साथ सामंजस्य रखते हुए एक ऐसी नई व्यवस्था बनानी होगी जहां सभी राष्ट्र स्वावलंबी बनें और परस्पर सहयोग के आधार पर पूंजीवाद और साम्यवाद के ख़तरों से बचकर एक तीसरे विकल्प को अपनायें, जो एकात्म मानव दर्शन पर आधारित हो। भारत अब जी-20 देशों का नेतृत्व कर रहा है। विश्व की सबसे तेज रफ़्तार से आर्थिक उन्नति करने वाला राष्ट्र बन गया है। आज़ादी के 75वें अमृतोत्सव में आगामी वर्षों में विश्व की एक सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहा है। नई तकनीक और अपनी युवा शक्ति के आधार पर भारत एक स्वावलंबी और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनकर सारी दुनिया को एक शान्ति और विकाश का पथ प्रदर्शन करेगा, ऐसा हम सभी को विश्वास है।    

लेखक स्वदेशी जागरण मंच के अ.भा. सह-संयोजक हैं।

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