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कामकाजी महिला शक्ति

उपयुक्त उत्पादक कार्यों के माध्यम से महिला सशक्तिकरण एक बहुत ही आकर्षक विचार है लेकिन जमीनी स्तर पर इसके कार्यान्वयनके लिए बहुआयामी योजना और उसके क्रियान्वयन की आवश्यकता है। — डॉ. जया कक्कड़

 

विकसित और आत्मनिर्भर भारत के लिए प्रधानमंत्री ने महिलाओं की भूमिका को प्रमुखता से रेखांकित किया है। लाल किले की प्राचीर से बोलते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि अगर हम नारी शक्ति पर ध्यान केंद्रित करेंगे तो अमृत काल के दौरान देश को एक नई ऊंचाई स्वतः मिल जाएगी। पिछले दिनों राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री ने विशेष रूप से महिला बल को काम करने के लिए सशक्त बनाने के बारे में गंभीर बात करने को प्रमुखता से चुना। उनके अनुसार वर्क फ्रॉम होम, इकोसिस्टम, लचीले कामकाजी घंटों के प्रावधान और गैर स्थिर कार्य स्थलों को एक साथ जोड़कर स्थापित करने से महिलाओं के लिए काम के व्यापक अवसर पैदा होंगे। प्रधानमंत्री ने उद्योग जगत के प्रमुखों से भी अपील की कि वे ऐसे तरीके अपनाएं ताकि महिलाएं अधिक से अधिक काम के प्रति आकर्षित हो। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यदि महिलाओं को प्रगति में भागीदार के रूप में शामिल किया जाता है तो राष्ट्र अपने लक्ष्यों को तेजी से प्राप्त कर सकता है।

हालांकि यह केवल अभी बातें हैं लेकिन इन बातों को भी पंख लग सकते हैं, जरूरत है कि सरकार और निजी क्षेत्र के लोग प्रधानमंत्री के मकसद को जमीन पर साकार करने के लिए एकसाथ बैठकर गंभीर विमर्श करें। कार्यबल में महिलाओं के शामिल होने लिए जिन बुनियादी जरूरतों की दरकार है उसे सरकार तथा निजी क्षेत्र के बड़े लोगों को मुहैया कराना होगा, कामकाज में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए इसके राह में आ रही बाधाओं को दूर करना होगा।

फिलहाल भारत में महिलाओं की वास्तविक कार्य भागीदारी एक निराशाजनक स्थिति में है। ऑक्सफैम का सुझाव है कि अगर भारतीय महिलाएं भारतीय पुरुषों की तरह भागीदारी निभाने लगे तो भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 43 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। वास्तव में भारत में महिलाओं की भागीदारी का मौजूदा आंकड़ा न केवल समकक्ष अर्थव्यवस्थाओं के साथ बल्कि कुछ कम विकसित देशों की तुलना में भी बहुत कम है।

दरअसल भारत के कामकाजी लोगों में लैंगिक असंतुलन की गंभीर चुनौतियां है, उसे ठीक किए जाने की जरूरत है। भारत में महिलाओं की संख्या 48 प्रतिशत है लेकिन उनका कामकाजी प्रतिनिधित्व बेहद अपर्याप्त है। यह लगातार गिरावट की ओर देखा जा रहा है। 1991 से 2005 के बीच महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर 30 से 32 प्रतिशत के बीच रही। अफसोस की बात है कि 2020-21 के दौरान यह आंकड़ा घटकर मात्र 25 प्रतिशत रह गया था। चिंताजनक बात यह है कि तृतीयक शिक्षा में भारतीय महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है और अब पुरुषों के बराबर हो गई है। महिलाओं की पिछड़ी हुई एलएफपीआर हमारे देश की आर्थिक प्रगति में योगदान देने में शिक्षित महिला प्रतिभा का उपयोग न करने की ओर इशारा करती है। इस आंकड़े को इस तथ्य से जोड़ दें कि भारत कौशल रिपोर्ट के अनुसार 46 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 51 प्रतिशत महिलाएं उच्च मानदंड पर योग्य हैं तो यह बात स्पष्ट रूप से निकलकर आती है कि महिलाओं में काम करने की क्षमता में कोई कमी नहीं है, बल्कि अवसर की कमी महिलाओं के कार्य बल में शामिल होने के रास्ते में खड़ी है।

लैंगिक असंतुलन को समझने के लिए हम मनोरंजन उद्योग का उदाहरण ले सकते हैं। एक शोध के अनुसार भारत विश्व स्तर पर सबसे तेजी से विकसित हो रहे मीडिया और मनोरंजन बाजारों में से एक है। यह हर साल सबसे ज्यादा फिल्मों का निर्माण करता है। लेकिन डिजाइनिंग, लेखन, निर्देशन, संपादन आदि सहित प्रमुख भूमिकाओं में केवल 10 प्रतिशत महिलाओं को अवसर मिल पाया है। सर्वेक्षण में मुख्यधारा की 568 फिल्मों में से एक का भी निर्देशन या संपादन किसी महिला ने नहीं किया था। ट्रेलरों में पुरुष अभिनेताओं ने महिलाओं की तुलना में 3 गुना अधिक काम किया। फिल्म प्रचार के क्षेत्र में भी पुरुष प्रमुख है। इस तरह कई एक ऐसे क्षेत्र हैं जहां महिलाओं की भागीदारी अभी भी ना के बराबर है और हाल फिलहाल इसमें सुधार के भी कोई लक्षण नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाए बगैर लक्ष्य प्राप्ति के सवाल अनुत्तरित ही रह जाते हैं।

यही स्थिति केवल फिल्म और नाटक में ही नहीं, ऐसी ही तस्वीर हर तरफ समान रूप से देनी है। भारत में महिलाओं की उपस्थिति नगण्य है। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के अनुसार पूर्ण लैंगिक समानता प्राप्त करने में अभी भी लगभग 200 वर्ष लग सकते हैं। ऐसे में केवल बयानबाजी करने से परिणाम हासिल नहीं होगा, जरूरत इस बात की है कि ठोस कार्रवाई की जाए। अभी तक सरकार और निजी उद्योग दोनों का रिकॉर्ड कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। उदाहरण के लिए संसद में जब महिला आरक्षण बिल प्रस्तुत किया जाता है तो कमोवेश हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर इसे टाल दिया जाता है। इसके पीछे ठोस कारण पुरूषवादी मानसिकता है। यह वर्ग यह कतई नहीं चाहता कि महिलाएं घर के चूल्हा चौके से बाहर निकल अपना स्वतंत्र आत्मनिर्भर अस्तित्व विकसित कर सके। इस वर्ग के भीतर एक अनचाहा डर बैठा हुआ है जो इन्हें महिलाओं को मौका दिये जाने से बार-बार रोकता है। 

महिलाएं आमतौर पर समय की कमी के कारण घर के काम और देखभाल की जिम्मेदारियों की दोहरी पाली में काम करने के लिए मजबूर होती हैं। नतीजा वे या तो पूरी तरह से बाहर हो जाती हैं या एक सुरक्षित कम फायदेमंद ट्रैक का विकल्प चुन सकती हैं। सर्वेक्षण में एक चौंकाने वाला यह भी तथ्य उभरकर आया है कि कोरोना महामारी के बाद भौतिक तौर पर कार्यालय जाकर काम करने की स्थिति में पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने अपना त्यागपत्र ज्यादा दिया है। यह भी निष्कर्ष निकलकर आया है कि केवल 21 प्रतिशत महिलाएं वेतन सहित कार्य में शामिल थी जबकि 79 प्रतिशत घर और अन्य जगहों पर अवैतनिक कार्य में लगी हुई थी। पुरुषों के लिए आंकड़े क्रमश 70 प्रतिशत और 49 प्रतिशत है। इस प्रकार जब घर से बाहर काम करने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मजबूरियों के कारण रोजगार योग्य महिलाओं के लिए विकल्प नहीं है तो ऐसे में इन्हें मुख्यधारा में कैसे शामिल किया जा सकता है। अगर घर से काम करने की संस्कृति विकसित की जाए तो निश्चित रूप से महिलाओं की भागीदारी धीरे-धीरे उसमें बढ़ेगी। सरकार और उद्योग से जुड़े हुए लोगों को एकसाथ बैठकर इस पर चिंतन करना होगा तथा इसके लिए रास्ता बनाना होगा ताकि महिलाएं निर्भीक होकर अधिक स्वतंत्रता के साथ अपने पूरे सामर्थ्य से कार्य बल में शामिल हो सके।

हालांकि यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस तरह के लचीलापन को अन्य व्यवहारिक और मौलिक परिवर्तनों के साथ पूर्ण करने की आवश्यकता होगी, समस्या के केवल एक हिस्से को ठीक करना होगा। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण जरूरत है कि लैंगिक पूर्वाग्रहों को ठीक किया जाए। इसी तरह महिला और पुरुषों के बीच कैरियर और पदोन्नति को लेकर जो भी विसंगतियां है उन्हें दूर करने के लिए वास्तविक मानक तैयार करना चाहिए। महिलाओं को कार्य बल में शामिल करने के लिए जो सबसे बड़ी आवश्यकता है वह घर के देखभाल की है। पुरुष को भी घर की देखभाल का बोझ महिला के समान साझा रूप से करने की व्यवस्था होनी चाहिए। कार्यस्थल पर चाइल्ड केयर की सुविधाओं पर भी निवेश बढ़ाना होगा।

इस कार्य में महिला कुपोषण भी एक अहम समस्या है। अक्सर महिलाएं एनमिक होती हैं जो उनके कार्य क्षमता को प्रभावित करती हैं, उचित पोषण के अभाव में महिलाएं खराब स्वास्थ्य से पीड़ित हैं, उनकी कार्यक्षमता घट गई है। वर्ल्ड इकोनामिक फोरम की जेंडर गैप रिपोर्ट में बताया गया है कि पोषण सुविधा, काम की परिस्थितियों में लचीलापन, देखभाल, सहायता आदि के जरिए महिलाओं को कार्यबल में भारी संख्या में जोड़ा जा सकता है, इसके लिए राज्यों को भी अपने स्तर पर तैयारी करनी चाहिए। कुल मिलाकर यह एक अच्छी पहल है। कार्यबल में महिलाओं की तादाद बढ़ेगी तो देश आगे बढ़ेगा पर सिर्फ ख्याली पुलाव पकाने से बात नहीं बनेगी इसके लिए सबको साथ मिलकर कार्य योजना के अनुरूप कदम से कदम होगा। अच्छा होगा कि प्रधानमंत्री इसे स्वयं अपने हाथ में ले।       

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