swadeshi jagran manch logo

फूट रहा चीनी बुलबुला

अभी हाल ही तक दुनिया में अर्थशास्त्रियों और नीति विश्लेषकों का अधिकतर यह तर्क हुआ करता था कि दुनिया को चीन से सीखने की जरुरत है। भारत में भी कई अर्थशास्त्री इसी प्रकार की सलाह देते नजर आ रहे थे। वे़ अर्थशास्त्री चीन में औद्योगिक ग्रोथ और इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण के परिणामों से अभीभूत थे। लेकिन पिछले कुछ समय से चीन में औद्योगिक गिरावट और अन्यान्य संकटों के समाचारों ने दुनिया को झकझोर कर रख दिया है। अब कुछ लोग तो चीन के विकास मॉडल पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं। चीन में पिछले कुछ वर्षों और खासतौर पर कोरोना के पश्चात होने वाले परिवर्तन का अध्ययन करना दुनिया के लोगों के लिए जरुरी हो गया है, ताकि विश्व के देश चीन की वास्तविकता को समझकर उसके प्रति अपने नजरिए को दुरुस्त करें और अपने विकास के लिए उचित मार्ग का चयन भी करें।

कोई जमाना था जब चीन 30 प्रतिशत से 50 प्रतिशत की दर से औद्योगिक विकास कर रहा था। बड़े पैमाने पर औद्योगिक ईकाईयां लग रही थी और उनमें अपार उत्पादन को दुनिया के बाजारों में आक्रामक तरीके से खपाता जा रहा था। उसके लिए सरकारी मदद से सामानों को सस्ता तो किया ही जा रहा था, ‘अंडर इनवॉईसिंग’, डंपिंग, घूसखोरी समेत तमाम प्रकार के अनुचित और गैरकानूनी हथकंडे अपनाकर भी दुनिया के बाजारों पर चीन का कब्जा बढ़ता जा रहा था। इन सब कारगुजारियों को देखकर भी अनदेखा करते हुए दुनिया भर में नीति निर्माता चीन के इस आक्रमण का प्रतिकार नहीं कर रहे थे, बल्कि चीन में औद्योगिक कार्यकुशलता को इसका श्रेय दे रहे थे। उनका तर्क यह था कि चीन से सस्ते आयातों के माध्यम से उपभोक्ताओं को सस्ता साजो-सामान मिल रहा है। रेलवे, बंदरगाह, सड़क, एयरपोर्ट, पुल, बिजली घर, औद्योगिक शोध एवं विकास केंद्र समेत इन्फ्रास्ट्रक्चर में चीन की अभूतपूर्व प्रगति ने दुनिया की आंखें चौंधिया दी थी। दुनिया के लगभग सभी देशों में चीन की कंपनियां इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण में संलग्न थी और चीनी सरकार की आर्थिक मदद से वहां इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण में सहयोग के नाम पर सरकारों पर अपना दबदबा बनाकर, वहां की नीतियों में दखल भी दे रही थी।

चीन के लगातार बढ़ते तैयार माल के निर्यातों और अत्यंत सीमित आयातों (खासतौर पर कच्चे माल और मध्यवर्ती वस्तुओं) के कारण व्यापार शेष में बढ़ते अतिरेक के चलते चीन के पास विदेशी मुद्रा का भंडार उफान ले रहा था। उस बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडारों के दम पर चीन की सरकार अफ्रीका समेत कई मुल्कों में जमीनों का अधिग्रहण तो कर ही रही थी, बड़ी मात्रा में यूरोपीय, अमरीकी और एशियाई देशों में कंपनियों को भी उन्होंने अधिग्रहित कर लिया। स्थान-स्थान पर ‘बेल्ट रोड’ परियोजनाओं को चीन आसानी से लागू करवा पा रहा था। हालांकि कई देशों में चीनी दबदबे के कारण स्थानीय जनता का कुछ विरोध देखने को मिल रहा था, लेकिन उन देशों की सरकारों में भ्रष्टाचार और चीनी सरकार के डर के कारण, चीन बेधड़क अपनी उपस्थिति बढ़ाता जा रहा था। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि चीन आर्थिक संकट में आ सकता है। लेकिन संकेतों की मानें तो चीन के विकास को लगाम तो लगी ही है, साथ ही चीन भीषण संकट में फंसता दिखाई दे रहा है। ऊर्जा संकट के चलते चीन में पावर कट के कारण कई फैक्ट्रियां या तो बंद है अथवा अधूरे रुप से चल रही है। यह समस्या 20 प्रांतों में है। इस संकट के कारण गोल्डमैन सैक और नोमुरा नाम की एजेंसियों ने चीन के ग्रोथ के अनुमान को काफी घटा दिया है। 

चीन की दूसरी सबसे बडी रियेल स्टेट कंपनी एवरग्रांड की 300 अरब डालर से भी ज्यादा देनदारियों के कारण चीन के प्रॉपर्टी मार्केट की ही नहीं लोगों के वित्तीय व्यवस्थाओं में विश्वास में भी भारी कमी आई है। रियेल इस्टेट मार्किट का बुलबुला न फट जाए, इसलिए चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने कई अधूरी बनी गगनचुंबी इमारतों को ध्वस्त कर दिया है।

आक्रामक इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना का शिकार बनाने के लिए उसने धूमधाम से ‘बेल्ट रोड योजना’ की शुरुआत कर 65 देशों को उसमें शामिल कर लिया। लेकिन नापाक इरादों के कारण आज वह दुनिया भर में बदनाम हो चुका है। परियोजना के नाम पर उसने बीसियों देशों को अपने कर्जजाल में फंसाकर उनके सामरिक महत्व वाली परियोजनाओं को हथियाना शुरू कर दिया। श्रीलंका का हम्बनटोटा बंदरगाह उसकी बदनीयती का जीता जागता उदाहरण बना।

आज दुनिया को यह स्पष्ट रुप से लग रहा है कि महामारी के कारण विश्व जिस स्वास्थ और आर्थिक संकट से गुजरा है उसके मूल में कहीं ने कहीं चीन है। दुनिया को यह भी समझ आ रहा है कि भूमंडलीकरण की आड़ में जैसे औद्योगिक वस्तुओं के लिए चीन पर निर्भरता बढी, उसने उनकी अर्थव्यवस्थाओं को ध्वस्त किया है और उसके कारण गरीबी और बेरोजगारी भी बढ़ी है। भारत, अमरीका, यूरोप समेत दुनिया भर के देश आत्मनिर्भरता की और कदम बढ़ाते दिख रहे हैं। चीन के प्रति विमुखता के कारण विभिन्न देशों द्वारा चीन से आयात घटाने के प्रयास शुरू हुए हैं, जिससे उसके औद्योगिक उत्पादन पर असर पड़ रहा है। बेल्ट रोड समझौते रद्द होने के कारण चीन की इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियां संकट में हैं। चीन की वित्तीय संस्थाएं भी संकट में है और लोगों की वित्तीय बचत डूबने लगी है।

उधर चीन पहले समुद्र में अपनी सामरिक शक्ति के प्रदर्शन द्वारा भारत सहित कई मुल्कों को डराने का प्रयास कर रहा था। उसके मद्देनज़र भारत, आस्ट्रेलिया, अमरीका और जापान के समूह ‘क्वाड’ के तत्वाधान में सैन्य अभ्यासों ने चीन को चुनौती दी हुई है।

भारत ने नवंबर 2019 को पिछले लगभग एक दशक से चल रहे ‘आरसीईपी’ समझौते से बाहर आकर चीन के विस्तारवादी मंसूबों पर पानी फेर दिया है। संकटों में घिरे चीन के हुकमरान अपनी ओर से ऊपरी दृढ़ता दिखाकर दुनिया को भरमाने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन समझना होगा कि भारत सहित दुनिया के तमाम मुल्कों के लिए यह एक बड़ा अवसर भी है कि वे अपने देशों में औद्योगिक प्रगति को गति दे और सस्ती लेकिन घटिया चीनी साजो-समान का मोह त्यागकर आत्मनिर्भरता के मार्ग पर अग्रसर हों। चीनी कंपनियों को किसी भी प्रकार के ठेके न दिए जाए। जिन मुल्कों ने बेल्ट रोड परियोजना पर हस्ताक्षर किए हुए हैं, वे इस परियोजना से बाहर आकर अपने-अपने देशों को कर्जजाल से मुक्ति दिलाएं।

Share This

Click to Subscribe